शनिवार, 30 जनवरी 2010

मैंने काफी करीब से देखा है गांधी को ...आपने ?

आज शहीद दिवस है, सबसे पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को नत मस्तक नमन करते हुए हम उस व्यक्ति का स्मरण करने जा रहे हैं जो न राजनेता था , न समाज सेवी, न धर्म का ठेकेदार और न देश के शीर्षस्थ पद पर आसीन कोई व्यक्ति . वह तो सीधा-सादा सच्चा हिन्दुस्तानी था अपने राष्ट्रपिता के विचारों को काव्य में प्रस्तुत करने वाला एक भारतीय . वह न तो हिन्दू था और न मुसलमान , वल्कि उसे फक्र था हिन्दुस्तानी होने पर . वह कहता था, कि- " हिन्दुओं को तो यकीं है कि मुसलमान है 'नजीर',   कुछ मुसलमां हैं जिन्हें शक है कि हिन्दू तो नहीं !"


वह कोई और नहीं था वह था हिन्दुस्तान का नजीर , प्यार से उसे नजीर बनारसी कहकर पुकारते थे लोग .वह एक शायर था और उसकी शायरी में समाया हुआ था समूचा हिन्दुस्तान .

वे अक्सर कहते थे कि " अगर ईन्सान को हर ईन्सान से मुहब्बत हो जाए, यही दुनिया जो जहन्नुम है यह जन्नत हो जाए !" राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बलिदान की खबर सुनकर उनके होठों से निकले थे ये शब्द -"मेरे गांधी जमीं वालों ने तेरी क़द्र जब कम की , उठा कर ले गए तुझको जमीं से आसमां वाले !"


इस महान शायर से मेरी आख़िरी मुलाक़ात हुयी थी दिनांक १२ अप्रैल १९९४ को मदनपुरा वाराणसी स्थित उनके आवास पर , तब उन्होंने बिस्तर पर लेटे-लेटे मेरे हाथों को चुमते हुए कहा - बेटा प्रभात ! "कम उम्र है मेरी कम जिऊंगा , पर आख़िरी सांस तक हंसूंगा !"......उन्होंने आगे कहा कि -"घाटों पर मंदिरों के साए में , बैठकर दूर कर रहा हूँ थकान !" साथ ही वे यह अंदेशा भी व्यक्त करते दिखे, कि -" मेरे बाद ए बुताने-शहर- काशी, मुझ ऐसा अहले ईमां कौन होगा ! करे है सजदा-ऐ- हक़ बुतकदे में, 'नजीर' ऐसा मुसलमां कौन होगा ?"



दिनांक ०९ अप्रैल १९९४ को प्रयाग महिला विद्यापीठ ईलाहाबाद में हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग द्वारा समकालीन हिंदी साहित्य की दिशा और दशा पर आयोजित संगोष्ठी में अपना पक्ष रखने के बाद जैसे ही मैं अपने स्थान पर बैठा हिंदी और भोजपुरी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार पांडे आशुतोष जी ने मुझे बताया कि प्रभात, नजीर साहब की तबियत अचानक नाशाद हो गयी है , इतना सुनते ही मैं वहां से सीधे वाराणसी के लिए प्रस्थान हेतु तैयारी करने लगा . श्री पांडे आशुतोष जी और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री डा जगन्नाथ मिश्र की भतीजी और कवियित्री रेणुका मिश्रा भी मेरे साथ चलने के लिए तैयार हो गयी,फिर हम तीनों साथ-साथ वाराणसी के लिए प्रस्थान कर गये .कुछ दिनों के बाद पता चला कि गंगा-जमुनी संस्कृति की मिशाल कायम करने वाले शायर नजीर साहब का इंतकाल हो गया है और मेरी यह मुलाक़ात आख़िरी मुलाक़ात में तब्दील हो गयी . एक और गांधी के चले जाने से मन शोक में डूब गया . अब आगे क्या कहूं ?

वसंत का मौसम है,आइए उनकी एक वसंत कविता पर दृष्टि डालते हैं -

तमन्नाओं के गुल खिलाने के दिन हैं,
ये कलियों के घूँघट उठाने के दिन हैं!

निगाहों से पीने पिलाने के दिन हैं,
यहीं रंगने रंग जाने के दिन हैं !

ये केश और मुखड़े सजाने के दिन हैं,
ठिकाने की रातें ठिकाने के दिन हैं !

निगाहें - मुहब्बत उठाने के दिन हैं,
करीने से बिजली गिराने के दिन हैं !


यही अंचलों के सरकने का मौसम,
यही हुस्न के सर उठाने के दिन हैं !
 

मुबारक हो लहरा के चलने की यह रुत,
मुहब्बत की गंगा बहाने के दिन है !


जवानी कहाँ तक संभल कर चलेगी,
यही तो कदम डगमगाने के दिन हैं !


उठाओ न बोतल उठाने की जहमत,
कि यह बिन पिए झूम जाने के दिन हैं !

() () ()
जारी है वसंतोत्सव , मिलते हैं एक छोटे से विराम के बाद ...!

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

वसंतोत्सव में आज साढ़े आठ दशक पूर्व मनाई गयी होली का दृश्य

साहित्य समय की सीमाओं में कभी नहीं बंधता .वह तो शाश्वत होता है.१९२४ की इस साहित्यिक रचना को आज के परिवेश में केन्द्रित कर देखें . क्या  88  वर्ष पूर्व की धड़कनें आज आपके चतुर्दिक फैले परिवेश में नहीं धड़क रही है ? आज की बात को साढ़े आठ दशक पहले ही रचनाकार ने जिस अंत:दृष्टि से देख लिया था,वही अंत:दृष्टि शाश्वत साहित्य की-"संजय दृष्टि" है .................


वसंतोत्सव के अंतर्गत परिकल्पना पर फगुनाहट सम्मान हेतु लगातार ई-मेल पर रचनाएँ प्राप्त हो रही हैं . इस सन्दर्भ में आप सभी से मेरी विनम्र प्रार्थना है कि व्यंग्य -गीत-ग़ज़ल -दोहे - लघुकथा आदि जो भी भेजें वह छोटी हो , क्योंकि बड़ी रचना को स्थान देना संभव नहीं हो पायेगा .  कोशिश करें कि आपकी रचना ७ फरवरी तक अवश्य प्राप्त हो जाए . अभी कालजयी रचनाओं को प्रस्तुत किया जा रहा है जो फरवरी के मध्य तक चलेगा . उसके बाद हम आपकी रचनाओं को स्थान देंगे और यह क्रम फरवरी के अंत अथवा मार्च के प्रथम सप्ताह तक चलने की संभावना है . उसके बाद हर विधा से एक श्रेष्ठ रचना का चुनाव करते हुए उन्हें फगुनाहट सम्मान से नवाजा जाएगा , जिसके अंतर्गत प्रत्येक रचनाकार को १००१/- सम्मान राशि के साथ सम्मान पत्र प्रदान करते हुए उनके पते पर डाक से प्रेषित किया जाएगा .


     आज वसंतोत्सव के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं राम नाथ लाल सुमन के एक ऐसे व्यंग्य जो लिखी गयी आज से साढ़े आठ दशक पूर्व और महाप्राण निराला के द्वारा प्रकाशित किया गया   "मतवाला " के १५ मार्च १९२४ अंक में---------------

!! हमारी तो बस होली !!

  • रामनाथ लाल "सुमन"

हाय ! वो भी एक दिन थे , जब इस शाश्यश्यामला भूमि पर दूध की धाराएं बहा करती थी , जब कालिंदी के कलित कलेवर में सुन्दर सरोजों की बाढ़ थी, जब सुरसरि का तट आनन्दोनमत मोरों और कोकिलों के कल-कूजन से गूँज उठता था . उसके बाद - वे भी एक दिन थे , जब मेखालाधारी ऋषिओं की  'तत्वमसि'  ध्वनि से वायुमंडल में प्रकंपन होता था , वे भी एक दिन थे , जब योद्धाओं के भयंकर हुंकार से मेदिनी काँप उठाती थी, ऊपर निचे होने लगती थी . और सुनोगे - वे हमारे ही दिन तो थे , जब एक साधारण योद्धा ने स्वयं भगवान को ही ललकार कर कहा था -" सूच्यग्र न दास्यामि विना युद्धे न केशव !"

और सुनना चाहते हो ? नहीं, जाने दो, गुलामी की चक्की के गहुओं ! अपनी कायरता की कहानी सुनकर क्या करोगे? उधर से आंख ही फेर लेना अच्छा है . जिनकी आँखों के सामने से , अभागे अशांत विश्व का त्राता,महात्मा ईशा की पवित्र वाणी से संसार को कंपा देने वाला , शान्ति का उपासक , तपस्वी - अशांति फैलाने के अपराध में - देखते-देखते छीनकर जेल की कोठरी में धकेल दिया गया हो , किन्तु ईश्वरेच्छा कहकर पिंड छुडाने में जिन्हें ज़रा भी लाज न आई हो , उन्हें उनकी मर्यादा सुनाना क्या और न सुनाना क्या ? जीवन में ही मरे हुए हम अभागे गुलामों की संतान हमारे नाम अपने मुंह पर किस हौसले से लावेगी ?

हाँ, तो उस समय भी हम होली खेला करते थे और आज भी खेलते हैं - पर उस समय अपने ह्रदय के आनंदोल्लास में डूबकर , प्रेम रंग में सराबोर होकर खेलते थे और आज रोकर, अपना कलेजा मसोसकर खेलते हैं . उन दिनों भी हम होली मनाते थे , जब हमारे बनाए हुए दिव्य मलमल से यूरोप की नवोढा युवतियों का श्रृंगार होता था और आज भी होली खेलते हैं , जबकि हमारी बहुएं वस्त्राभाव से गीली धोती पहने हुए उसके छोर सुखाकर दिन बिताती हैं . तब भी हम होली खेलते थे जब रुपयों के मनो अन्न मिलते  थे और आज भी मनाते हैं जबकि वामन किये हुए अन्न को धो-धोकर खाने वालों की कमी नहीं है !!! हमारी वेशर्मी पर , हमारी बेगैरती पर , भले ही लोग थूका करे , हंसी उडाये , आवाजें कसे, किन्तु हम अभागे जीव सुनते कब हैं ?

आज नारद की वीणा ध्वस्त हो चुकी है . हमारा संगीत भंग की धारा में बह गया है . हमारी लाज कुल बंधुओं की ओर झांकते-झांकते दूर हो गयी है . होली का संजीवनोत्पादक पवित्र प्रेम वेश्याओं के मुखड़े तक ही ख़तम हो रहा है . हमारी पवित्र जिह्वा दूसरे को गंदी गालियाँ सुनाकर तृप्ति लाभ करती है . विदेशी गुलाल और चकचकाती हुयी    अद्धी के कुरते , शत-शत विधवाओं की आहों को कुचलकर , पहने जाते हैं . हमारी ऐंठ , अपने सेवकों तक ही समाप्त हो जाती है . हम अपने नाच-रंग , खुशी-मुजरे और भंगभावानी की उपासना में यह सोचकर कभी खलल नहीं डालना चाहते कि हमारे ही घर के दस करोड़ भाईयों  के पेट में मुश्किल से एक समय चारा पड़ता है .  आज यही हमारी होली है! हम अभागों को कौन बतावेगा कि ये आंसू हर्षातिरेक में उमड़े हुए ह्रदय के मोती है वा कलेजे को चीरकर दो  टूक कर देने वाली  निगूढ़ -क्रंदन-ध्वनि के अशक्त और मौन दूत ...!

( मतवाला, वर्ष-१, अंक-३०, १५ मार्च १९२४ से साभार )
जारी है वसंतोत्सव , मिलते हैं एक छोटे से विराम के बाद ...!

बुधवार, 27 जनवरी 2010

वसंतोत्सव में आज गीतों के राजकुमार

वसंतोत्सव के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत आचार्य  जी पर केन्द्रित पोस्ट पर अपनी टिपण्णी देते हुए श्री अरविन्द मिश्र ने कहा कि आदरणीय जानकी वल्लभ शास्त्री जी हिन्दी साहित्यं के एक जीवित किवदंती हैं -कला साधना, कुंद छुरी से दिल को रेते जाना,  अटल आंसुओं के सागर में सपने खेते जाना....जैसी अमर पंक्तियों के प्रणेता ....वहीँ हिमांशु जी की टिपण्णी काफी भावात्मक रही कि शास्त्री जी के व्यक्तित्व और कृतित्व दोनॊ की उदात्तता का कायल हूँ । उनकी बहुत-सी कवितायें पढ़ कर मुग्ध होता रहा हूँ, और उनकी प्रतिभा से चमत्कृत ! निराला द्वारा उनको लिखे गये पत्रों का संकलन उनके स्नेह-संबंधों का जीवंत दस्तावेज है, और उस संकलन की भूमिका शायद किसी भी भूमिका से अधिक जीवंत और विद्वतापूर्ण ! राधा खण्डकाव्य के बारे में कुछ कहने की सामर्थ्य नहीं ! श्रद्धावनत !........... आज हम लेकर आये हैं आचार्य जी के समकालीन रहे बहुचर्चित गीतकार कविवर गोपाल सिंह नेपाली का एक सुमधुर गीत !




कविवर गोपाल सिंह नेपाली हिंदी के छायावादोत्तर काल के कवियों में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। वे उस काल के कवियों में से थे जब बड़े बड़े साहित्यकार और कवि फ़िल्मों के लिए काम करते थे। 1944 से 1963 तक मृत्यु पर्यंत वे बंबई में फ़िल्म जगत से जुड़े रहे। उन्होंने एक फ़िल्म का निर्माण भी किया। वे पत्रकार भी थे और उन्होंने कम से कम चार हिंदी पत्र-पत्रिकाओं रतलाम टाइम्स, चित्रपट, सुधा और योगी का संपादन किया। फ़िल्मों के लिए लिखे गए उनके कुछ गीत अत्यंत लोकप्रिय हुए। 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय उन्होंने देशभक्ति की अनेक कविताएँ रचीं। कविता के क्षेत्र में गोपाल सिंह नेपाली ने देश प्रेम, प्रकृति प्रेम, तथा मानवीय भावनाओं का सुंदर चित्रण किया है।














!! वसंत गीत !!


ओ मृगनैनी , ओ पिक बैनी ,
तेरे सामने बाँसुरिया झूठी है !
रग-रग में इतना रंग भरा,
कि रंगीन चुनरिया झूठी है !


मुख भी तेरा इतना गोरा,
बिना चाँद का है पूनम !
है दरस-परस इतना शीतल ,
शरीर नहीं है शबनम !
अलकें-पलकें इतनी काली,
घनश्याम बदरिया झूठी है !





रग-रग में इतना रंग भरा,
कि रंगीन चुनरिया झूठी है !

क्या होड़ करें चन्दा तेरी ,
काली सूरत धब्बे वाली !
कहने को जग को भला-बुरा,
तू हंसती और लजाती !
मौसम सच्चा तू सच्ची है,
यह सकल बदरिया झूठी है !


रग-रग में इतना रंग भरा,
कि रंगीन चुनरिया झूठी है !

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जारी है वसंतोत्सव , मिलते हैं एक छोटे से विराम के बाद ...!

शनिवार, 23 जनवरी 2010

मैंने कभी महाप्राण निराला को नहीं देखा मगर एक व्यक्ति की आँखों में मैंने देखी है निराला की छवि



                                                                                यह छाया चित्र १२ फरवरी १९९४ का है जब मैं पहली बार मिला आचार्य जी से .......




मैंने कभी महाप्राण निराला को नहीं देखा मगर जिस व्यक्ति की आँखों में मैंने देखी  है निराला की छवि . सोचिये जब आप उस व्यक्तित्व से पहली बार मिलेंगे तो आपकी मन:स्थिति क्या होगी ?....और एक ऐसे साहित्यकार के लिए जो संघर्ष कर रहा हो अपनी पहचान बनाने की दिशा में उसके लिए यह अवसर अकल्पनीय नहीं तो और क्या है?

बात उन दिनों की है जब वर्ष-१९९१ में मेरा पहला ग़ज़ल संग्रह "हम सफ़र " प्रकाशित हुआ . नया-नया साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश किया था . लोगों ने काफी सराहा और ग़ज़ल-गीत-कविता लिखने का जूनून बढ़ता गया .मगर मैं तब हतप्रभ रह गया जब वर्ष -१९९३ में हिन्दी साहित्य के शलाका पुरुष आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री जी ने मेरी चार ग़ज़लों को अपनी मासिक पत्रिका बेला के कवर पृष्ठ पर छापा और ११-१२ फरवरी १९९४ को निराला निकेतन में आयोजित कवि सम्मलेन हेतु आमंत्रित किया  इसी दौरान पहली वार मैं मिला आदरणीय आचार्य जी से और खो गया उनके प्रभामंडल में एकबारगी समारोह के दुसरे दिन आचार्य जी ने अलग से मुझे मिलने हेतु अपने निवास पर बुलाया और अपनी शुभकामनाओं के साथ-साथ अपना आशीर्वचन दिया . उसी समय आचार्य जी का नया-नया खंडकाव्य "राधा" और कौन सुने नगमा ग़ज़ल की किताब आई थी जिसपर विस्तार से चर्चा हुयी . मैंने उन्हें उसी दौरान उन्हें सीतामढ़ी में होने वाले विराट कवि सम्मलेन सह सम्मान समारोह में आने हेतु ससम्मान आमंत्रित किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया ...आदरणीय आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री जी के उस सान्निध्य को याद करते हुए इस अवसर पर प्रस्तुत है उनकी वसंत पर आधारित उनकी एक अनमोल रचना -   

जब भी वसंत की चर्चा होती है राधा और कृष्ण की चर्चा अवश्य होती है , इस सन्दर्भ में आचार्य जी ने कभी कहा था ,कि - - कृष्ण सबके मन पर चढ़ते हैं। जीवन के यथार्थ में राधा ने कृष्ण को आत्मसात कर लिया। इसीलिए राधा वाले कृष्ण सबको भाते हैं। कृष्ण में तन्मय होने के कारण  राधा ने स्वयं को अलग से जानने की जरूरत ही नहीं समझीं। स्वयं वही हो गयीं, यानी कृष्णमय हो गयी । राजनीति ने कृष्ण को भिन्न-भिन्न रूपों में बांटा, पर एकमात्र प्रणय ने राधा को कृष्णमय बना दिया। प्रेम का यही शाश्वत रूप सही मायनों में वसंत का रूप है ।
                                                    

रंग लगे अंग चम्पई
नई लता के


धड़कन बन तरु को
अपराधिन-सी ताके


फड़क रही थी कोंपल
आँखुओं से ढक के
गुच्छे थे सोए
टहनी से दब, थक के


औचक झकझोर गया
नया था झकोरा,
तन में भी दाग लगे
मन न रहा कोरा


अनचाहा संग शिविर का,
ठंडा पा के
वासन्ती उझक झुकी,
सिमटी सकुचा के !

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जारी है वसंतोत्सव , मिलते हैं एक छोटे से विराम के बाद ...!

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

वसंत के प्रति शिशिर की उक्ति


बसंत को संस्कृत में बेहद सारगर्भित परंतु संक्षेप में परिभाषित किया गया है। यथा-

" वसन्ति अग्नि कण: जीवदायका। यस्मिन काले पदार्थेषु स: बसंत।"

यानी बसंत का अर्थ  है खुशी, आशा, विश्वास, सकारात्मकता, मादकता और  ज्ञानमयता ।

बसंत जहां एक तरफ खुशियों का प्रतीक है, वहीं यह दिन सर्दी जाने और पतझड़ खत्म होने पर हर तरफ बहार आने का संकेत भी देता है। हर तरफ खिले रंग-बिरंगे फूल अहसास दिलाते हैं कि नए साल के आगमन के बाद सब कुछ नया-नया है। हिंदी  साहित्य में बसंत को श्रंगार रस व भक्ति रस में अनेक कवियों ने अपने-अपने तरीके से अपनी रचनाओं में सृजित किया है।

कवि हरिवंशराय बच्चन ने बसंत कुछ यू बयां किया है, बसंत दूत, कुंज-कुज कूकता। बसंत राज, कुज-कुज कूकता। पराग से सजी, सुहाग में जली। बसंत गोद में लखी, प्रकृति परी।

        चाहे वे संस्कृति के महाकवि पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला रहे हों अथवा प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत......चाहे वह राष्ट्रकवि राम धारी सिंह "दिनकर" रहे हों अथवा मैथली शरण गुप्त सभी ने गाये हैं वसंत के गीत ..


वसंत के आगमन पर आचार्य सारंग शास्त्री कहते हैं कि-"आओ हम-तुम दूर करें अब अपनी -अपनी दूरी ....नव वसंत में भूल जाएँ हम निर्बलता मजबूरी ...!"


.......इसवार धुंध की चादर ओढ़े कंपकपाती सर्द में वसंत ने दस्तक दिया है ...

 आज से साढ़े तीन दशक पूर्व यही वह मौसम रहा होगा जब एक वीर रस के कवि की लेखनी से यह कविता फूटी होगी । आज के इस मौसम के अनुकूल साढ़े तीन दशक पूर्व लिखी गयी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह "दिनकर" की एक कालजयी कृति पर आईये दृष्टि डालते हैं -






















!! जागरण : वसंत के प्रति शिशिर की उक्ति !!


मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !



खोल दृग, मधु नींद तज , तंद्राल से , रूपसि विजन की,
साज नव श्रृंगार, मधु-घट संग ले, कर सुधि भुवन की,
विश्व में तृण-तृण जगी है, आज मधु की प्यास आली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!


 
वर्ष की कविता सुनाने खोजते पिक मौन भोले ,
स्पर्श कर द्रुत बौरने को आम्र आकुल बांह खोले,
पंथ में कोरकवती        जूही खडी ले नम्र डाली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!

लौट जाता गंधवह सौरभ बिना फिर-फिर मलय को,
पुष्पषर चिंतित खडा संसार के उर की विजय की ,
मौन खग विस्मित- " कंहा अटकी मधुर उल्लास वाली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!
 
मुक्त करने को विकल है लाज की मधु-प्रीति  कारा,
विश्व - यौवन की        शिरा में नाचने को रक्तधारा,
चाहती छाना दृग में आज तजकर गाल लाली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!

है विकल उल्लास वसुधा के ह्रदय को फूटने को,
प्रात-अंचल-ग्रंथि से नव रश्मि चंचल छूटने को,
मद्य पीने को खड़े हैं भृंग लेकर रिक्त प्याली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!
 
इंद्र की धनुषी बनी तितली पवन में डोलती है,
अप्सराएं भूमि के हित पंख - पट निज खोलती है,
आज बन साकार छाना चाहते कवि -स्वप्न आली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!
 
() () ()....जारी है वसन्तोत्सव ...मिलते हैं एक छोटे से विराम के बाद......!

बुधवार, 20 जनवरी 2010

परिकल्पना पर वसंतोत्सव ..बहेगी बसंत की मादकता के साथ-साथ फगुनाहट की बयार होली तक लगातार ....



सखि, वसंत आया .
भरा हर्ष वन में मन, नवोत्कर्ष  छाया .
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु पतिका,
मधुप-वृंद वंदी पिक़- स्वर नभ गहराया .
लता-मुकुल -हार- गंध-भार भर
बही पवन मन्द-मन्द मदंतर ,
जागी नयनों में वन यौवन की माया .
आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे ,
केसर के केश काली के छुटे  ,
स्वर्ण- शस्य - अंचल पृथ्वी का लहराया  .
  • महाप्राण निराला
साहित्य समय की सीमाओं में कभी नहीं बंधता . वह तो शाश्वत होता है . शाश्वत सत्य को उद्घाटित करने वाला साहित्यकार केवल साहित्यकार ही नहीं होता युगद्रष्टा भी होता है .ऐसे साहित्यकार की केवल रचनाएँ ही महान नहीं होती अपितु जीवन भी महान होता है .हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक चर्चित साहित्यकारों मे से एक महाप्राण निराला उन्हीं साहित्यकारों में से एक थे  .

  वैसे तो उनका जन्म बंगाल की रियासत महिषादल (जिला मेदिनीपुर) में माघ शुक्ल एकादशी संवत १९५५ तदनुसार २१ फरवरी सन १८९९ में हुआ था, लेकिन वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा १९३० में प्रारंभ हुई . इसीलिए हम आज के दिन इस कालजयी साहित्यकार को स्मरण करते हुए उनके आदर्शों पर चलने की प्रेरणा लेते हैं .


बताया जाता है कि इस महान छायावादी कवि को याद करते हुए उत्तर प्रदेश में अक्सर ईलाहाबाद और उन्नाव की ही चर्चा होती है लेकिन उनके जीवन के कई वर्ष न सिर्फ लखनऊ में बीते बल्कि उन्होंने यहाँ कई महत्वपूर्ण कृतियाँ या उनके अंश लिखे . मैं अपने आप को सौभाग्यशाली समझता हूँ कि उस शहर में हमें रहने का सौभाग्य मिला है जहां की गलियों में कभी ग़ालिब ही नहीं निराला की भी कवितायें गूंजती थी ,क्योंकि यह जगजाहिर है कि दोनों में से एक उर्दू के और दुसरे हिन्दी के अमर रचनाकार हैं .

 महाकवि निराला के बारे में बताया जाता है कि निराला वर्ष-१९२८ के करीब लखनऊ आये थे . उन्होंने दुलारे लाल भार्गव की गंगा पुस्तक माला के लिए काम किया और सुधा पत्रिका में टिप्पणियाँ लिखी . लखनऊ से ही उनकी प्रसिद्द कृति "परिमल" का प्रकाशन हुआ . उन्होंने "अप्सरा", "निरुपमा ", "अलका" "लिली" "प्रभावती " उपन्यासों , कहानी संग्रहों या उसके ज्यादातर अंशों का लेखन किया .यह भी बताया जाता है कि लखनऊ प्रवास के दौरान ही उन्होंने तुलसीदास काव्य के बहुतेरे छंद लिखे .


साहित्यकार अमृत लाल नागर और राम बिलास शर्मा के अनुसार महाप्राण निराला ने लखनऊ के लालकुआं , भुसामंडी  , लाटूश रोड , चौक आदि इलाकों में लगभग एक दशक का समय गुजारा .नागर जी ने निराला से जुड़े अपने संस्मरण में उनके लखनऊ प्रवास को याद करते हुए लिखा है कि निराला जी पैसों के अभाव से बीसों बार नारियल वाली गली और भुसामंडी वाले मकानों से चलकर चौक में मेरे यहाँ आते थे .फिर वहां डा. राम विलास शर्मा , नरोत्तम नागर और पधिश जी भी देर-सवेर आ जाते फिर घंटों चौकरी जमती.

     महाकवि निराला को याद करते हुए आज से हम शुरू कर रहे हैं परिकल्पना पर " बसंतोत्सव " जिसके अंतर्गत  हिंदी के कालजयी साहित्यकारों के साथ- साथ आज के कुछ महत्वपूर्ण कवियों की वसंत पर आधारित कवितायें प्रस्तुत की जायेंगी और फगुनाहट की यह बयार थमेगी होली की मस्ती के साथ . इसमें कवितायें भी होंगी , व्यंग्य भी , ग़ज़ल भी , दोहे भी और वसंत की मादकता से सराबोर गीत भी . इस श्रृंखला में हम देंगे आपकी भी स्तरीय रचनाओं को सम्मान और प्रकाशित करेंगे परिकल्पना पर ...शर्त है कि आपकी रचना बड़ी न हो . तो देर किस बात की आप अपनी एक छोटी रचना चाहे वाह व्यंग्य हो , कविता हो , गीत हो अथवा ग़ज़ल यूनिकोड में टाईप कर भेज दीजिये निम्न लिखित यी-मेल आई डी पर - mailto:ravindra.prabhat@gmail.com  
    हम आपकी रचनाओं को केवल प्रकाशित ही नहीं करेंगे बल्कि एक सर्वश्रेष्ठ रचना का चुनाव करते हुए उन्हें सम्मानजनक नगद राशि के साथ " फगुनाहट सम्मान " से नवाजेंगे भी .

बुधवार, 13 जनवरी 2010

वह शब्दों से ऐसे खेलता है,जैसे कोई भोला सा बच्चा अपनी माँ से खेलता हो ...

                            
 कहा जाता है कि समुद्र में जितनी गहराई तक डूबेंगे मोती मिलने की संभावना उतनी ही ज्यादा होगी .उसीप्रकार भाषा की गहराई में आप जितना ज्यादा डूबेंगे शब्दों से आपका लगाव उतना ही ज्यादा होता चला जाएगा . शब्दों के साथ खेलने की आदत यदि एक बार पर गयी तो समझ लीजिये भाषा आपकी चेरी हो जायेगी . शब्दों के साथ उसीप्रकार खेलिए जिसप्रकार कोई भोला सा बच्चा अपनी माँ के साथ खेलता है .यह एक साहित्यकार अथवा चिट्ठाकार के लिए बहुत ही आवश्यक है . क्योंकि आपके लेखन से आपकी भाषा का व्यापक विस्तार होता है .कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दी बहुत कठिन भाषा है . वस्तुत: भाषा क्लिष्ट नहीं होती , भाषा में प्रयुक्त होने वाले शब्द परिचित या अपरिचित होते हैं । शब्द क्लिष्ट नहीं होता , यदि हमें किसी भाषा के किसी शब्द का अर्थ मालूम नहीं है , तो हमें उस शब्द से परिचय प्राप्त करना चाहिए ।

    कल अचानक  मेरी नज़र  गूंजअनुगूंज / GUNJANUGUNJ  पर प्रकाशित पोस्ट    भाषा की क्लिष्टता  पर पडी . आध्यात्मिक विषयों पर केंद्रित यह ब्लॉग सत्य,अस्तित्व और वैश्विक सत्ता को समर्पित एक प्रयास है : जीवन को इसके विस्तार में समझने और इसके आनंद को बांटने के इस अनूठे ब्लॉग में बहुत ही सुन्दर और सारगर्भित बातें यदा-कदा पढ़ने को मिलती रहती है .
    इस  वर्ष जनवरी माह में अब तक इस अनूठे ब्लॉग पर तीन पोस्ट प्रकाशित हुए हैं . पहला पोस्ट दफ्तर की ज़िन्दगी  - दफ़्तर की जिंदगी कितनी निरस और उबाऊ होती है, इसका अहसास कराता है . दूसरा पोस्ट - वर्ष २००९ में प्रसिद्ध हस्तियों ने क्या पढ़ा ?  है, जिसमें बताया गया है कि हर वर्ष कुछ अच्छा लिखा जा रहा है । कुछ पुराना नए कलेवर और साज़-सज्जा के साथ पुन: प्रकाशित होता है । वर्ष २००९ में प्रसिद्ध हस्तियों ने इनमें से क्या पढ़ा, जो उन्हें पसंद आया ... इस पोस्ट में विभिन्न माध्यमों से संकलित सामग्री प्रस्तुत की गयी  है और तीसरा पोस्ट है भाषा की क्लिष्टता  जिसकी चर्चा आज परिकल्पना पर की जा रही है .

.इस पोस्ट में बताया गया है कि - "शब्दों की उत्पत्ति होती है और शब्द मर भी जाते हैं । किसी शब्द की व्युत्पत्ति का अध्ययन इटायमोलॉजी में किया जाता है । शब्द तब तक जिंदा रहता है, जब तक वह व्यवहार में लाया जाता रहता है । आज शहरों में बहुत से देशज शब्द विलुप्त प्राय: हो गए हैं; क्योंकि उनका शहरों में प्रचलन बंद सा हो गया है ."


 हिंदी ब्लॉगिंग का सदुपयोग करने वाले गिने-चुने लेखकों में से एक चिट्ठाकार श्री रवीश कुमार  का भाषा और शब्द की क्लिष्टता के सन्दर्भ में मानना है कि " शब्दों के प्रति लापरवाही भरे इस दौर में हर शब्द को अर्थ हीन बनाने का चलन आम  हो गया है . इस्तेमाल किये जाने भर के लिए ही शब्दों का वाक्यों के बीच में आना-जाना हो रहा है , खासकर पत्रकारिता ने सरल शब्दों के चुनाव के क्रम में कई सारे शब्दों को हमेशा-हमेशा के लिए स्मृति से बहार कर दिया है ."

हि‍न्‍दी के 'ई लेखकों' की चुनौति‍यां विषय पर कोलकाता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर जगदीश्‍वर चतुर्वेदी का मानना है कि "हि‍न्‍दी 'ई' लेखकों की बहुत बडी तादाद है। इतनी बडी संख्‍या में कभी हि‍न्‍दी में लेखक नहीं थे। तकरीबन 11 हजार से ज्‍यादा ब्‍लॉग लेखकों के कई लाख सुंदर लेख नेट पर देखे जा सकते हैं। ये जल्‍दी पढ़ते हैं और तुरंत प्रति‍क्रि‍या व्‍यक्‍त करते हैं। हि‍न्‍दी गद्य के वैवि‍ध्‍य का यह सुंदर नमूना है। मैंने अपने एक लेख में हि‍न्‍दी के ई लेखन की तरफ कुछ आलोचनात्‍मक बातें लि‍खीं तो अनेक 'ई' लेखक नाराज हो गए। मैं उनकी नाराजगी से सहमत हूँ। उनके पास अपनी बात के पक्ष में सुंदर तर्क हैं। उनके सुंदर तर्कों से असहमत होना असंभव है। लेकि‍न 'ई' लेखन की कमि‍यों को हम यदि‍ आलोचनात्‍मक ढ़ंग से नहीं देखेंगे तो कैसे आगे अपना वि‍कास करेंगे ?"

माँ और बेटे की मानिंद निष्कपट शब्दों से खेलने वाले एक और ब्लोगर हैं अपने इस चिटठा संसार में नाम है अजित बडनेरकर .कहते हैं - उत्पत्ति की तलाश में निकलें तो शब्दों का बहुत दिलचस्प सफर सामने आता है। लाखों सालों में जैसे इन्सान ने धीरे -धीरे अपनी शक्ल बदली, सभ्यता के विकास के बाद से शब्दों ने धीरे-धीरे अपने व्यवहार बदले। एक भाषा का शब्द दूसरी भाषा में गया और अरसे बाद एक तीसरी ही शक्ल में सामने आया।


दि‍ल्‍ली वि‍श्‍ववि‍द्यालय की एसोसि‍एट प्रोफेसर सुधा सिंह के तेवर इस दिशा में कुछ ज्यादा आक्रामक दिखाई देते हैं . सुधा कहती हैं कि कोई भी अखबार या चैनल हिंदी  में आने से हिन्दी का भला नहीं करता . इन माध्यमों के लिए तो हिंदी एक उपरी आभूषण है .

हिन्दी वेबसाइट पर प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार -हिन्दी भाषा को संसार भर में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं मे से एक होने का सम्मान प्राप्त है और यह विश्व के 56 करोड़ लोगों की भाषा है। आँकड़े बताते हैं कि भारत में 54 करोड़ तथा विश्व के अन्य देशों में 2 करोड़ लोग हिंदीभाषी हैं। नेपाल में 80 लाख, दक्षिण अफ्रीका में 8.90 लाख, मारीशस में 6.85 लाख, संयुक्त राज्य अमेरिका में 3.17 लाख, येमन में 2.33 लाख, युगांडा में 1.47 लाख, जर्मनी में 0.30 लाख, न्यूजीलैंड में 0.20 लाख तथा सिंगापुर में 0.05 लाख लोग हिंदीभाषी हैं। इसके अलावा यू.के. तथा यू.ए.ई. में भी बड़ी संख्या में हिंदीभाषी लोग निवास करते हैं। विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी का स्थान दूसरा है।

 हिंदी को समृद्ध कैसे किया जाये इस विषय पर कभी अनुनाद सिंह जी  ने प्रतिभास पर कहा था कि -" विकिपिडिया को संवारो, हिन्दी का भविष्य संवरेगा ." उनका मानना है कि   " दूसरे भी उसी की मदद करते हैं जो स्वयं अपनी मदद करता है। गूगल हिन्दी का अनुवादक नहीं ले आता यदि उसे हिन्दी में कोई क्रियाकलाप नहीं दिखता। इसी तरह आने वाले दिनों में (और आज भी) भाषा की शक्ति उसके विकिपीडिया पर स्थिति से नापी जायेगी। हिन्दी विकिपीडिया पर इस समय उन्नीस हजार से अधिक लेख लिखे जा चुके हैं। यह काफी तेजी से बहुत से भाषाओं को पीछे छोड़ते हुए आगे निकल गयी है। किन्तु अभी भी यह लगभग पचास भाषाओं से पीछे है। हिन्दी के बोलने और समझने वालों की संख्या को देखते हुए इसका स्थान प्रथम दस भाषाओं में होना ही चाहिये।"

     शब्दों को सहेजने की दिशा में एक विनम्र प्रयास मैंने भी  किया है शब्द शब्द अनमोल  के माध्यम से , किन्तु समयाभाव के कारण ब्लॉग पर ज्यादा पोस्ट नहीं दे पा रहा हूँ .मेरी पूरी कोशिश रहेगी की वर्ष-२०१० में कुछ सार्थक और महत्वपूर्ण शब्दों को लेकर आप  सभी के बीच आऊँ .


 
तो आइये! हिंदी के विकास में हम सभी पूरी सामूहिकता के साथ अपना अमूल्य योगदान देते हैं   और इसे अन्तर्जाल की प्रमुख भाषाओं में से एक बनने  की दिशा में अग्रणी भूमिका निभाते हैं ....

बुधवार, 6 जनवरी 2010

पुरस्कार श्रेष्ठता का पैमाना नहीं होता लेकिन श्रेष्ठता का सम्मान जरूर होता हैं।

बचपन में हमें जहाँ भी खिलौने दिखाई देते थे , हम अनायास ही ठिठक जाते थे । हमारे लिए दुनिया का मंहगा उपहार व्यर्थ था इन खिलौनों के एवज में । हमें वह ज्यादा प्रिय लगता था जो खिलौनों के साथ दोस्ती करने की छूट देता था और पागलपन की हद तक उन खिलौनों में समां जाने के जिद पूरी करता था ।


बड़ा हुआ तो किताबों से दोस्ती करने लगा , पागलपन की हद तक लिखने की जिज्ञासा जगी फिर कोरे कागज़ पर कलम से शब्दों को खुरचने लगा और टूटी-फूटी भाषा में लिखने लगा कविता और कहानी ........फिर जीविका और जीवन के बीच तारतम्य बिठाने की जुगत में आगे बढ़ा ....जीवन और जीविका के बीच संघर्ष की भी स्थिति आई ...फिर आधुनिक युग के सबसे बड़े चमत्कार कंप्यूटर से दोस्ती की जिज्ञासा जगी । किसी मित्र ने उकसाया और डायरी लिखने की आदतों से निजात पाने की उद्देश्य से ब्लॉग लिखने लगा .....!


कमोवेश यही शायद आप सभी की साथ भी हुआ होगा ? ......ब्लॉग लेखन के क्रम में वर्ष-२००७ के उत्तरार्द्ध में मैंने खेल-खेल में चिट्ठा और चिट्ठाकारों की वर्ष भर की गतिविधियों को काव्य के माध्यम से प्रस्तुत करने की विनम्र कोशिश की । तब हिन्दी के ज्यादा चिट्ठे सक्रीय नहीं थे । वर्ष-२००८ में चिट्ठों की संख्या में काफी इजाफा हुआ , काव्य में चिट्ठा हलचल को प्रस्तुत करना कठिन था , इसलिए मैंने पिछले दो वर्षों से हिंदी चिट्ठों की वृहद् विवेचना कर रहा हूँ , ताकि आपके लेखन को , समर्पण की हद को वृहद् आयाम मिल सके । आप सम्मान भाव के साथ हिन्दी चिटठा जगत का हिस्सा बने रह सके और नए चिट्ठाकारों को सार्थक लेखन के लिए उत्प्रेरित करते रह सकें ।


परिकल्पना का हिंदी चिटठा विश्लेषण -२००९ शुरू करने से पूर्व मेरे मन में यह ख्याल आया था कि विश्लेषण की समाप्ति के पश्चात् दक्षिण अफ़्रीकी ब्लॉग पुरस्कार की तरह एक बड़ा आयोजन लखनऊ में कराऊं और उस आयोजन में ऑनलाइन कैलेण्डर वर्ष के लिए हिन्दी चिट्ठा पुरस्कार प्रदान किये जाएँ ।भीड़ से सराबोर समारोह स्थल हो और देश-विदेश से आए हुए अंतिम दौर के प्रतिभागी व इसमें रुचि रखने वाले चिट्ठाकार शामिल हो । समारोह पूरी तरह अनौपचारिक हो , जैसा कि चिट्ठाकार समुदाय से उम्मीद की जाती रही है और सम्मान समारोह से पहले और बाद में साथी चिट्ठाकारों, मीडिया तथा वेब में रुचि रखने वालों को सौहार्दपूर्ण वातावरण में आपसी वार्तालाप के लिए ढेरों समय मिले । बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हों । चिट्ठाकारों को कुछ विशिष्ट और नामचीन चिट्ठों के चिट्ठाकारों से मिलने का अवसर प्राप्त हो और नए चमत्कृत करने वाले शख्सियतों से परिचय भी हो ॥ इस समारोह में वर्ष का सर्वश्रेष्ठ भारतीय हिंदी चिट्ठा / हास्य और व्यंग्य के लिए सर्वश्रेष्ठ चिट्ठा /सर्वश्रेष्ठ विदेशी हिंदी चिटठा/सर्वश्रेष्ठ भारतीय हिंदी राजनीतिक चिट्ठा /सर्वश्रेष्ठ भारतीय हिंदी नव चिट्ठा अदि का चुनाव करते हुए अंग वस्त्र , स्मृति चिन्ह , सम्मान पत्र और नकद राशी के साथ भव्य समारोह में प्रदान किये जाएँ ।


परिकल्पना सम्मान की योजना मैं बना ही रहा था कि मुझे अचानक ज्ञात हुआ कि श्री अलवेला खत्री जी इस दिशा में पहल कर चुके हैं । खैर यह उनकी अच्छी पहल थी , किन्तु वे इसे व्यापकता की परिधि में नहीं ले जा सके । उन्हें इस सम्मान सूची में कुछ नए और सार्थक लिखने वाले चिट्ठाकारों को भी शामिल करना चाहिए था । किसी भी यज्ञ की सफलता में समूह का बहुत बड़ा योगदान होता है । कहा गया है कि पुरस्कार श्रेष्ठता का पैमाना नहीं होता लेकिन श्रेष्ठता का सम्मान जरूर होता हैं।आशा है आगे से अलवेला जी इन बातों पर अवश्य ध्यान देंगे ।

हाँ इस दिशा में एक सार्थक और इमानदार पहल की गुंजाईश नज़र आ रही है पिछले दिनों की गयी संवाद सम्मान की प्रस्तावना में । साहित्यकार के साथ-साथ अत्यंत सुलझे हुए चिट्ठाकार भाई जाकीर अली रजनीश जी के द्वारा घोषित किया गया मेरी दुनिया मेरे सपने पर 20 श्रेणियों में ब्लॉग के लिए दिये जाने वाले 'संवाद सम्मान' हेतु ऑनलॉइन नॉमिनेशन । यह प्रस्तावना वाकई एक बहुत बड़ी पहल है इस दिशा में । इस तरह की पहल होनी ही चाहिए , मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही ...इस पहल का समर्थन भी होना चाहिए और सहयोग भी ।

मैं तो कहूँगा कि जाकिर भाई यदि संभव हो तो इस सम्मान को यादगार बनाईये और आयोजन लखनऊ ब्लॉगर एसोसिएशन के बैनर तले करवाईये । प्रबल प्रताप सिंह् /महफूज़ अली / Sudhir (सुधीर) /Jyoti Verma /Dr.Aditya Kumar /Suman /Mithilesh dubey /लोकेन्द्र /सर्वत एम० /सलीम ख़ान जैसे सुलझे हुए श्रेष्ठ चिट्ठाकार आपकी टीम में है । आप असंभव को संभव कर सकते हैं ।

खैर आयोजन की बात हम बाद में भी कर सकते है अभी नोमिनेशन की प्रक्रिया चल रही है , ऐसे में मेरी यही अपील है कि अपनी पसंदीदा श्रेणियों हेतु योग्य व्यक्तियों का नामांकन कर इस आयोजन को सफल बनाने में अपना अमूल्य योगदान दें।

आप बताएं इस सन्दर्भ में आपका क्या कहना है ?

सोमवार, 4 जनवरी 2010

जहाँ जाने से कद अपना छोटा लगे उस बुलंदी पे जाना नहीं चाहिए ..!


कल सुबह अचानक फोन की घंटी .....फोन उठाते ही दूसरी तरफ से आवाज़ आई - "पापा ! मैं रश्मि बोल रही हूँ !"

"हाँ ! बोल बेटा कैसी है तू ?......पढाई कैसी चल रही है तेरी ?" मैं नींद से जागते हुए पुछा

" पापा मैं चारबाग में हूँ !" " चारबाग में क्या कर रही है तू ?"

"मै अभी-अभी आई हूँ सहारनपुर एक्सप्रेस से ...!"

"तू आने से पहले बताई क्यों नहीं ?"

" आपको सरप्राईज देना चाहती थी इसलिए ....!"

" ठीक है तू वहीँ स्टेशन पर रूक मैं अभी आता हूँ ....!"

बेटी के आने की खबर सुनकर मेरी श्रीमती जी भी तैयार हो गयी स्टेशन जाने के लिए .....! फिर हम दोनों निकल पड़े अपनी इंडिका से । मैं काफी गुस्से में था कि जब फस्ट सिमेस्टर की परीक्षा के बाद छुटी हो गयी तो उसे खबर करना चाहिए था , मैं किसी को भेज देता साथ में आ जाती , अकेले आने की क्या जरूरत थी ?....मैं बरबराता रहा रास्ते भर और मेरी श्रीमती जी मेरे गुस्से को शांत करती रही......अरे जाने भी दीजिये , बच्ची बड़ी हो गयी है ...मैनेजमेंट कर रही है ....साथ में हॉस्टल की और भी बच्चियां रही होंगी ......आप खामखा परेशान हो रहे हैं.....आप अपने समय की बात मत कीजिये ...आज के बच्चे फास्ट लाईफ जीना पसंद करते हैं .....!

खैर श्रीमती जी के बकबक के आगे मैं चुप हो गया .......!



बहुत दिनों के बाद बेटी से मिला था , अच्छा लग रहा था ..... उसकी कहानियां ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी .....पता है पापा ! अमुक विषय में में पिछले बार मुझे इतने मार्क्स आये... मगर एकाउंट्स में निदाफ़ के ज्यादा मार्क्स आ गए .....मात्र तीन नंबर से मैं पिछड़ गयी और फस्ट टॉपर नहीं बन सकी ....मैम ने कहा है थोडा सा और मेहनत करो निदाफ़ को पीछे छोड़ दोगी ......इस बार मेरा पेपर अच्छा गया है मैं फस्ट टॉपर बन के दिखाऊंगी......उसकी बकबक से मेरा सर चकराने लगा तो सोचा क्यों न विषय परिवर्तन किया जाये ....!



मैंने उसकी लिवास की ओर मुखातीव होते हुए पूछा -" क्यों तेरे पास कपडे नहीं है जो फटे - पुराने - चिपियों वाले कपडे पहनी हो ?"

इतना सुनते हीं बिफरने लगी मुझपर - " पापा ! आप भी न ......देहरादून से ली हूँ इसे पूरे दो हजार में ......मात्र एक पिस बची थी दूकानदार के पास ...मैंने ले ली ...पूजा को भी यही पसंद था , मैं क्या करती ...वह मुझपर नाराज हो गयी ...मैंने उससे प्रॉमिस किया है कि लखनऊ में इसकी दूसरी पिस मिली तो ले आऊँगी तेरे लिए भी ....पापा ! कल आप शाम को ऑफिस से लौटते समय हजरतगंज होते हुए आईयेगा .....साहू सिनेमा के पास शायद मिल जाये ?



मैंने कहा ठीक है दे दे हमें ......दूसरे दिन मैं वह कपड़ा लेकर अपने टेलर मास्टर फरहान को दिया और कहा कि देख लो तुम्हारे पास बहुत सारे कपडे के कतरन होंगे ....मैच कराके एक ऐसा ही हुबहू सिल दो ...शाम को ऑफिस से लौटते हुए ले जाऊंगा ।

उसने कहा ठीक है भैया आपके ऑफिस से लौटने से पहले मैं तैयार कर दूंगा । शाम को जब ऑफिस से लौटा तो देखकर हतप्रभ रह गया । पता ही नहीं चल पा रहा था कि कौन असली है और कौन नकली ?

मैंने कहा कितने दे दूं फरहान?

उसने कहा अब आपसे कतरन का पैसा क्या लेना , मार्केट से दो मीटर कपडे लेने पड़े उसके अस्सी रुपये और सिलाई के एक सौ बीस रुपये दे दीजिये यानि कुल दो सौ रुपये मात्र ...!

जब मैं असली और नकली दोनों कपड़ों को लेकर घर लौटा तो मेरी बिटिया रानी खुशी से फूले नहीं समा रही थी बोली -पापा , उतने ही पैसे में मिले कि ज्यादा में ?

मैंने सोचा कम पैसे कहकर उसकी खुशी को कम क्यों किया जाये , सो मैंने कहा विल्कुल बज़ट में ।

मगर उसकी जिद के सामने मैं किं कर्त्तव्य विमूढ़ हो गया .....बार-बार जिद करने पर मैंने कहा -

दो सौ रुपये मात्र !

भौचक रह गयी शूट का दाम सुनकर ...फिर उसे मैंने पूरी बात बताई और उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा- बेटा , यही है नयी पीढी और पुरानी पीढी की सोच का सच ...!

यह सुनकर उसकी आँखों में आंसू छलछला गए ......वातावरण को गंभीर होते देखकर मैंने कहा देखो बेटा ....किसी शायर ने कहा है .....जहां जाने से कद अपना छोटा लगे, उस बुलंदी पे जाना नहीं चाहिए .....!"


जीवन के हर मोड़ पर सलाहकार मिलते रहते हैं , मिलते रहेंगे , उनकी कोई कमी नहीं है । कमी इस बात की है कि हम अनुकूल सलाह को समझ सके और प्रतिकूल सलाह को छोड़ सके । हम हर सलाह को काम में लेने लग जाते हैं , केवल इसलिए कि हम समझ नहीं पाते कि हमारे लिए क्या उचित है । आज मनुष्य विवेक के धरातल पर पराधीन हो गया है । क्या खाना है और क्या खा रहा है उसे यह भी पता नहीं । उसके मन में एक इच्छा है विकासवादी दिखाई पड़ने की ।

आज किसी शहरी बच्चे को चमड़े के जूते पहनने की बात कहो , उसे लगेगा कि वह ऐसा करके महाभारत काल में चला जायेगा । चाहे उसके पांव से बदबू ए या फिर नेत्र ज्योति घटे वह पहनेगा तो बस आधुनिक और भरी मंहगे "स्पोर्ट्स शूज " । किसी माता से कहें कि वह बच्चों के आँखों में काजल डाले वह नाराज हो जायेगी । बड़ी उम्र के लोग आज रूखी चपातियाँ खाते नज़र आते हैं , चर्बी बढ़ने का डर है । पहले बुजुर्गों के लिए घी और मेवा डालकर सर्दियों में लड्डू बनते थे ,ताकि शरीर चलता रहे । सब कुछ उलटा-पुलटा हो रहा है आज कल ।



नमक में घी डालने का काम उधर टेलीविजन कर रहा है अपने विज्ञापनों के जरिये एक धीमा विष दर्शकों के मानस पटल पर घोलने का । उपभोक्ता वस्तुओं की विभिन्न श्रेणियां आज टेलीविजन के प्रभाव से हीं बाज़ार में आ रही है । मंहगाई तो एक बहाना है । टेलीविजन की मर को व्यक्ति सहन नहीं कर पा रहा । बच्चा भी विज्ञापन देखकर जिद करता है , जिसके कारण खरीद की सूची में नित्य नए परिवर्तन होते चले जाते हैं । उधार पर मिलने की नयी-नयी नीतियों ने अग्रिम खरीद का सपना दिखाया और किस्त बांध दी । पूरी वेतन राशी किस्तों में जाने लगी । घर में जब कोई काम अचानक में पड़ा तो मंहगाई याद आ गयी ।



इसलिए बेटा ! आप प्रवंधन की छात्रा हो ........अगर अच्छा मैनेजर स्कील हासिल करना है तो जीवन में सोचने ...बार-बार सोचने की आदत डालो .....फिर किसी निष्कर्ष पर पहुँचो ....यही है मेरी नेक सलाह आपके लिए ।

इतना सुनते हे वह मेरे गले से लिपट गयी और बोली -"मैं ऐसा ही करूंगी पापा और एक अच्छा मैनेजर बनकर दिखाऊंगी !"

() () ()

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

हिंदी चिट्ठाकारी में नवीन संभावनाओं का नवीन प्रकाश कौन ?

आज वीन वर्ष का नवीन दिन , तो क्यों न एक ऐसे नवीन प्रकाश की बात की जाए जो वर्ष-२००९ के आखिरी चार महीनों में सर्वाधिक ४१३ पोस्ट लिखने का गौरव हासिल किया है । यानि प्रत्येक दिन औसत तीन पोस्ट से ज्यादा । चिट्ठाकार हैं नवीन प्रकाश और चिटठा है हिंदी टेक ब्लॉग

आप कहेंगे कि यह उपलब्धि हासिल करने के बावजूद इस चिट्ठाकार की चर्चा हिंदी ब्लॉग विश्लेषण श्रंखला के अंतर्गत क्यों नहीं की जा सकी ?

दरअसल बात यह है ,कि यह चिट्ठा अगस्त के आखिरी सप्ताहांत में हिन्दी ब्लॉग जगत का हिस्सा बना और परिकल्पना के विश्लेषण में उन्ही चिट्ठों की चर्चा हो सकी जो मई-जून तक अस्तित्व में आ चूका था । जैसे-जैसे परिककल्पना का विश्लेषण आगे बढ़ रहा था हिंदी चिट्ठाकारी में नवीन संभावनाओं का यह नवीन प्रकाश उपलब्धियों के एक नए आयाम को गढ़ने की दिशा में अग्रसर था ।

परिकल्पना के विश्लेषण में सर्वाधिक सक्रीय क्षेत्र छत्तीसगढ़ के सक्रीय शहर रायपुर के खरोरा के रहने वाले नवीन प्रकाश २४ अगस्त को अपना नया चिटठा हिंदी टेक ब्लॉग लेकर आये और ब्लॉग जगत को समर्पित करते हुए कहा कि "बस एक कोशिश है -जो थोडी बहुत जानकारियां मुझे है मैं चाहता हूँ कि आप सभी के साथ बांटी जाए। "

आज जब हिंदी चिट्ठाकारी अत्यंत संवेदनात्मक दौर से गुजरते हुए व्यापकता की ओर अग्रसर है तकनीकी जानकारी बांटने वाले इस नए चिट्ठाकार के उद्देश्यपूर्ण विचार का स्वागत हम सभी को मिलकर करना चाहिए और उनकी जानकारियों से अपना ज्ञानवर्द्धन करते हुए हिंदी ब्लोगिंग में पूरी दृढ़ता के साथ अपना-अपना कदम बढ़ाना चाहिए ।
मेरी यही शुभकामना है कि यह चिट्ठा दीर्घायु हो और अपने महत्वपूर्ण विचारो /जानकारियों से हिन्दी चिट्ठाकारी को समृद्ध करे । साथ ही ऐसे चिट्ठाकार जो तकनीकी दृष्टि से काफी पीछे हैं उनका मार्गदर्शन करते रहे ।
हिन्दी चिट्ठाकारी के इस नवीन प्रकाश को उसके उपलब्धिपरक नवीन प्रयास के लिए कोटिश: बधाईयाँ !
 
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