आज शहीद दिवस है, सबसे पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को नत मस्तक नमन करते हुए हम उस व्यक्ति का स्मरण करने जा रहे हैं जो न राजनेता था , न समाज सेवी, न धर्म का ठेकेदार और न देश के शीर्षस्थ पद पर आसीन कोई व्यक्ति . वह तो सीधा-सादा सच्चा हिन्दुस्तानी था अपने राष्ट्रपिता के विचारों को काव्य में प्रस्तुत करने वाला एक भारतीय . वह न तो हिन्दू था और न मुसलमान , वल्कि उसे फक्र था हिन्दुस्तानी होने पर . वह कहता था, कि- " हिन्दुओं को तो यकीं है कि मुसलमान है 'नजीर', कुछ मुसलमां हैं जिन्हें शक है कि हिन्दू तो नहीं !"
वह कोई और नहीं था वह था हिन्दुस्तान का नजीर , प्यार से उसे नजीर बनारसी कहकर पुकारते थे लोग .वह एक शायर था और उसकी शायरी में समाया हुआ था समूचा हिन्दुस्तान .
वे अक्सर कहते थे कि " अगर ईन्सान को हर ईन्सान से मुहब्बत हो जाए, यही दुनिया जो जहन्नुम है यह जन्नत हो जाए !" राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बलिदान की खबर सुनकर उनके होठों से निकले थे ये शब्द -"मेरे गांधी जमीं वालों ने तेरी क़द्र जब कम की , उठा कर ले गए तुझको जमीं से आसमां वाले !"
इस महान शायर से मेरी आख़िरी मुलाक़ात हुयी थी दिनांक १२ अप्रैल १९९४ को मदनपुरा वाराणसी स्थित उनके आवास पर , तब उन्होंने बिस्तर पर लेटे-लेटे मेरे हाथों को चुमते हुए कहा - बेटा प्रभात ! "कम उम्र है मेरी कम जिऊंगा , पर आख़िरी सांस तक हंसूंगा !"......उन्होंने आगे कहा कि -"घाटों पर मंदिरों के साए में , बैठकर दूर कर रहा हूँ थकान !" साथ ही वे यह अंदेशा भी व्यक्त करते दिखे, कि -" मेरे बाद ए बुताने-शहर- काशी, मुझ ऐसा अहले ईमां कौन होगा ! करे है सजदा-ऐ- हक़ बुतकदे में, 'नजीर' ऐसा मुसलमां कौन होगा ?"
दिनांक ०९ अप्रैल १९९४ को प्रयाग महिला विद्यापीठ ईलाहाबाद में हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग द्वारा समकालीन हिंदी साहित्य की दिशा और दशा पर आयोजित संगोष्ठी में अपना पक्ष रखने के बाद जैसे ही मैं अपने स्थान पर बैठा हिंदी और भोजपुरी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार पांडे आशुतोष जी ने मुझे बताया कि प्रभात, नजीर साहब की तबियत अचानक नाशाद हो गयी है , इतना सुनते ही मैं वहां से सीधे वाराणसी के लिए प्रस्थान हेतु तैयारी करने लगा . श्री पांडे आशुतोष जी और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री डा जगन्नाथ मिश्र की भतीजी और कवियित्री रेणुका मिश्रा भी मेरे साथ चलने के लिए तैयार हो गयी,फिर हम तीनों साथ-साथ वाराणसी के लिए प्रस्थान कर गये .कुछ दिनों के बाद पता चला कि गंगा-जमुनी संस्कृति की मिशाल कायम करने वाले शायर नजीर साहब का इंतकाल हो गया है और मेरी यह मुलाक़ात आख़िरी मुलाक़ात में तब्दील हो गयी . एक और गांधी के चले जाने से मन शोक में डूब गया . अब आगे क्या कहूं ?
वसंत का मौसम है,आइए उनकी एक वसंत कविता पर दृष्टि डालते हैं -
तमन्नाओं के गुल खिलाने के दिन हैं,
ये कलियों के घूँघट उठाने के दिन हैं!
निगाहों से पीने पिलाने के दिन हैं,
यहीं रंगने रंग जाने के दिन हैं !
ये केश और मुखड़े सजाने के दिन हैं,
ठिकाने की रातें ठिकाने के दिन हैं !
निगाहें - मुहब्बत उठाने के दिन हैं,
करीने से बिजली गिराने के दिन हैं !
यही अंचलों के सरकने का मौसम,
यही हुस्न के सर उठाने के दिन हैं !
मुबारक हो लहरा के चलने की यह रुत,
मुहब्बत की गंगा बहाने के दिन है !
जवानी कहाँ तक संभल कर चलेगी,
यही तो कदम डगमगाने के दिन हैं !
उठाओ न बोतल उठाने की जहमत,
कि यह बिन पिए झूम जाने के दिन हैं !
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जारी है वसंतोत्सव , मिलते हैं एक छोटे से विराम के बाद ...!