मंगलवार, 30 जून 2015

परिकल्पना - कैकेयी




कैकेयी का प्रेम राम के प्रति अपार था ... पर कुछ देर कथा से परे एक माँ को देखिये . सभी राममय थे - और राम , लक्ष्मण , भरत , शत्रुघ्न ..... चारों में कोई उम्र अंतराल नहीं था . तो हर वक़्त राम राम के मध्य माँ की सहज आशंका कहीं होगी . सारी समझदारी के बाद भी एक आम भाव सौतन का कहीं न कहीं होगा . प्रेम को बांटना हद से अधिक किसी के लिए संभव नहीं - मानव रूप में तो हरगिज नहीं . हम तो भगवान् के बीच भी एक ईर्ष्या देख लेते हैं - कथाएं उदाहरण हैं , तो सतयुग तो मानवी अध्याय था . 
कैकेयी के प्रति न्याय तभी होगा , जब हम खुद कैकेयी हो जाएँ - भरत की माँ ! मंथरा कारण का मात्र एक विम्ब है - सत्य  माँ की सोच है . जब अपने बच्चे की बात आती है तो कौन बेईमान नहीं होता . कैकेयी ने तो पश्चाताप भी किया , आम लोग तो यह भी नहीं करते !


रश्मि प्रभा 

मैथिलि शरण ‘गुप्त’ की रचना से कैकेयी की छवि बदलती है -



"हाँ, जानकर भी मैंने न भरत को जाना,
सब सुनलें तुमने स्वयम अभी यह माना|
यह सच है तो घर लौट चलो तुम भैय्या,
अपराधिन मैं हूँ तात्, तुम्हारी मैय्या |"

"यदि मैं उकसाई गयी भरत से होऊं,
तो पति समान ही स्वयं पुत्र मैं खोऊँ!
ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो,
पाओ यदि उसमे सार, उसे सब चुन लो|"

अनुपमा पाठक.jpgकैकेयी अविरल प्रेरणा है..
अनुपमा पाठक 

नियति ने सब तय कर रखा होता है... लीलाधर की लीला है सब परमेश्वर की माया है...
निमित्त मात्र बना कर लक्ष्य वो साधता है ईश्वर स्वयं पर कभी कोई इलज़ाम नहीं लेता है यूँ रचे जाते हैं घटनाक्रम बड़े उद्देश्य की पूर्ती हेतु जिसे आयाम देने को बनता है कोई जीव ही सेतु
कैकेयी भी केवल निमित्त थी... माँ थी वो... वो सहज सौम्य चित्त थी...
ये समय की मांग थी जिसे कैकेयी ने स्वीकारा था... राम के वन गमन की पृष्ठभूमि तैयार करनी थी न सो कैकेयी ने यूँ अपना ममत्व वारा था...
सारा कलंक अपने ऊपर ले कर माँ ने अद्भुत त्याग किया... राम राम हो सकें इस हेतु कैकेयी ने वर में पुत्र को वनवास दिया...
कौन समझेगा इस ममता को... ? ऐसे अद्भुत त्याग को... वीरांगना थी कैकेयी... दुर्लभ है समझना उस आग को...!!!
***
इसलिए तो अपने आस पास हम सुमित्रा और कौसल्या तो सुन लेते हैं पर कैकेयी किसी का नाम नहीं होता!
क्यूंकि... कैकेयी होना किसी के वश की बात नहीं... अपनी कीर्ति अपकीर्ति की परवाह किये बिना जो समर्पित हो ऐसी भक्ति दुर्लभ है... अब ऐसी दिवा रात नहीं...
उच्च उदेश्य की खातिर मिट जाना जीवन का एकमात्र उद्देश्य यही... है यही शाश्वत एक तराना
कैकेयी का पात्र ऐसी ही अविरल प्रेरणा है... राम जानते थे अपनी माता की विशालता को... उसे समझने की खातिर... जग को अभी बहुत कुछ बुझना देखना है... ...!!!






केकैयी .... एक प्रश्नचिन्ह ?
वंदना गुप्ता 


लिख रही है दुनिया
मन के भावों को
उन अनजानी राहों को
जिन पर चलना मुमकिन ना था
उस दर्द को कह रही है
जो संभव है हुआ ही ना था
कभी किसी ने ना जाना
इतिहास और धर्म ग्रंथों 
को नहीं खंगाला
गर खंगाला होता तो
सच जान गए होते
फिर ना ऐसे कटाक्ष होते
हाँ , मैं हूँ केकैयी 
जिसने राम को वनवास दिया
और अपने भरत को राज दिया 
मगर कोई नहीं जानता 
प्रीत की रीतों को
नहीं जानता कोई कैसे
प्रेम परीक्षा दी जाती है
स्व की आहुति दे 
हवनाग्नि प्रज्ज्वलित  की जाती है 
मेरी प्रीत को तुम क्या जानो
राम की रीत को तुम ना जानो
जब राम को जानोगे 
तब ही मुझे भी पहचानोगे
मेरा जीवन धन राम था
मेरा हर कर्म राम था
मेरा तो सर्वस्व  राम था
जो भी किया उसी के लिए किया
जो उसके मन को भाया है
उसी में मैंने जीवन बिताया है
हाँ कलंकनी कहायी हूँ
मगर राम के मन को भायी हूँ
अब और कुछ नहीं चाह थी मेरी
राम ही पूँजी थी मेरी
जानना चाहते हो तो
आज बताती हूँ
तुम्हें राम और मेरी 
कथा सुनाती हूँ
जब राम छोटे थे
मुझे मैया कहते थे
मेरे प्राणधन थे
भरत से भी ज्यादा प्रिय थे
बताओ कौन ऐसा जग में होगा
जिसे ना राम प्रिय होगा
हर चीज़ से बढ़कर किसे ना 
राम की चाह होगी 
बेटे , पति , घर परिवार
कभी किसी को ना 
राम से बढ़कर चाहा
मुझमे तो सिर्फ 
राम ही राम था समाया
इक दिन राम ने 
प्रेम परीक्षा ली मेरी
मुझसे प्रश्न करने लगे
बताओ मैया 
कितना मुझे तुम चाहती हो
मेरे लिए क्या कर सकती हो
इतना सुन मैंने कहा
राम तू कहे तो अभी जान दे दूँ
तेरे लिए इक पल ना गंवाऊँगी 
जो तू कहे वो ही कर जाऊँगी
राम ने कहा जान तो कोई भी
किसी के लिए दे सकता है
मज़ा तो तब है जब जीते जी 
कांटों की शैया पर सोना होगा
ये ना प्रेम की परिभाषा हुई 
इससे बढ़कर तुम क्या कर सकती हो
क्या मेरे लिए अपने पति, बेटे
घर परिवार को छोड़ सकती हो
क्या दुनिया भर का कलंक
अपने सिर ले सकती हो 
उसकी बातें सुन मैं सहम गयी
लगा आज राम ने ये कैसी बातें कहीं
फिर दृढ निश्चय कर लिया
मेरा राम मेरा अहित नहीं करेगा
और यदि उसकी इच्छा ऐसी है 
तो उसके लिए भी तैयार हुई
कहा राम तेरी हर बात मैं मानूंगी
कहो क्या करना होगा 
तब राम यों कहने लगे
मैया सोच लेना
कुछ छोटी बात नहीं माँग रहा हूँ
तुमसे तुम्हारा जीवन माँग रहा हूँ
तुम्हें वैधव्य भी देखना होगा 
मेरे लिए क्या ये भी सह पाओगी
अपने पुत्र की नफ़रत सह जाओगी
ज़िन्दगी भर माँ तुम्हे नही कहेगा
क्या ये दुख सह पाओगी
आज मेरे प्रेम की परीक्षा थी
उसमे उत्तीर्ण होने की ठानी थी
कह दिया अगर राम तुम खुश हो उसमे
तो मैं हर दुःख सह जाउंगी
पर तुमसे विलग ना रह पाऊँगी
तुम्हारे प्रेम की प्यासी हूँ
तुम्हारे किसी काम आ सकूँगी
तभी जीवन लाभ पा सकूँगी
कहो क्या करना होगा
तब राम ये कहने लगे
मैया जब मुझे राजतिलक होने लगे
तब तुम्हें भरत को राज दिलाना होगा
और मुझे बनवास भिजवाना होगा
ये सुन मैं सहम गयी
राम वियोग कैसे सह पाऊँगी 
राम से विमुख कैसे रह पाऊँगी
तब राम कहने लगे
मैया मैं पृथ्वी का भार हरण करने आया हूँ
इसमें तुम्हारी सहायता की दरकार है
तुम बिन कोई नहीं मेरा 
जो इतना त्याग कर सके 
तुम पर है भरोसा मैया
इसलिए ये बात कह पाया हूँ
क्या कर सकोगी मेरा इतना काम
ले सकोगी ज़माने भर की
नफ़रत का अपने सिर पर भार
कोई तुम्हारे नाम पर 
अपने बच्चों का नाम ना रखेगा
क्या सह पाओगी ये सब व्यंग्य बाण
इतना कह राम चुप हो गए
मैंने राम को वचन दिया
जीवन उनके चरणों मे हार दिया 
अपने प्रेम का प्रमाण दिया
तो क्या गलत किया
प्रेम में पाना नहीं सीखा है
प्रेम तो देने का नाम है
और मैंने प्रेम में 
स्व को मिटाकर राम को पाया है
मेरा मातृत्व मेरा स्नेह
सब राम में बसता था
तो कहो जगवालों 
तुम्हें कहाँ मुझमे 
भरत के लिए दर्द दिखता था
मैंने तो वो ही किया
जो मेरे राम को भाया था
मैंने तो यही जीवन धन कमाया था
मेरी राम की ये बात सिर्फ 
जानकार ही जानते हैं
जो प्रेम परीक्षा को पहचानते हैं 
ए जगवालों 
तुम न कोई मलाल करना
ज़रा पुरानों में वर्णित
मेरा इतिहास पढ़ लेना
जिसे राम भा जाता है
जो राम का हो जाता है
उसे न जग का कोई रिश्ता सुहाता है
वो हर रिश्ते से ऊपर उठ जाता है
फिर उसे हर शय में राम दिख जाता है
इस तत्वज्ञान को जान लेना
अब तुम न कोई मलाल करना    


कैकेयी -मातॄत्व का एक रूप ये भी .....................
निवेदिता श्रीवास्तव 

अकसर सोचती हूँ कि सब हमेशा कैकेयी को गलत क्यों बताते हैं ! क्या सच में वो ऐसी दुष्टमना थी ?क्या वाकई उसने राम से किसी पूर्व जन्म का वैर निभाया ? क्या वो इतनी निकृष्ट थी कि उसके अपने बेटे ने भी उसको त्याग दिया ? शायद ये हमारी एकांगी सोच का भी नतीजा हो !जिस मां का मानसिक संतुलन एकदम ही असंतुलित हो गया हो और जो किसी को भी न पहचान पा रही हो ,वो भी अपने बच्चे के लिए एकदम से सजग हो जाती है |इसलिए कैकेयी को एकदम अस्वीकार कर देना शायद उचित नहीं है,आज जरूरत है तो सिर्फ देखने का नजरिया बदलने की |एक प्रयास हम भी कर लेते हैं ....
  ममता के भी कई रूप होते हैं |कभी वो सिर्फ वात्सल्य ,जिसमें बच्चा कभी गलत नहीं दिखता है ,होती है तो कभी संस्कार देती हुई सामाजिकता सिखलाती है और कभी अनुशासन का महत्व समझाती बेहद कठोर हो जाती है |इन तीनों ही रूपों में किसी भी रूप को हम गलत नहीं समझते हैं |राम की तीनों माताएं इन तीनों भावों की एकदम अलग-अलग प्रतिकृति दिखती हैं |कौशल्या का चरित्र जब भी  सामने आता है सिर्फ वात्सल्य से भरी माँ ही नज़र आती है और इस वजह से ही वो थोड़ी कमज़ोर पड़ जाती है जो हर परिस्थिति में किसी भी कटुता से अपने बच्चों को बचाना  चाहती है |सुमित्रा एक सजग और सन्नद्ध माँ का रूप लगी मुझे ,जो अपने पारिवारिक मूल्यों को अपने बच्चों तक पहुंचाने में तत्पर रहती है |बड़े भाई के वन-गमन पर लक्ष्मण को उसका अनुसरण करने को कहती है |बच्चे की सामर्थ्य और रूचि को समझ कर ही लक्ष्मण को भेजा शत्रुघ्न को नहीं |इसी तरह कैकेयी ने अनुशासन की कठोरता दिखाई और दूसरों के कष्ट को समझने की दृष्टि विकसित की |अगर कैकेयी ने राम को वन जाने के लिए मजबूर न किया होता तो राम जन-मन में नहीं बस पाते |वन में ही राम ने सामान्य वर्ग का कष्ट महसूस किया और उसके निराकरण का प्रयास भी किया |उस अवधि में ही राम ने अयोध्या के  परिवेश को शत्रुरहित भी किया |रावण जैसे शक्तिशाली और दुष्टप्रवृत्ति का विनाश करना भी संभव तभी हो पाया जब राम वन की बीहण उलझनों में गए |अगर राम को कैकेयी ने वन न भेजा होता ,तब भी  राम एक आदर्श पुत्र होते ,एक आदर्श शासक होते ऐसे कितने भी विशेषण उन के नाम के साथ जुड़ जाते ,परन्तु राम ऐसे जन-नायक नहीं होते जिस पर रामायण ऐसा ग्रन्थ लिखा जाता जो आज भी पूजित होता है |बेशक उन पर इतिहासकार पुस्तकें लिखते पर वो इतनी कालजयी और पावन न होतीं |अगर कैकेयी ने राम को वन जाने के लिए मजबूर न किया होता तो राम का "मर्यादा पुरुषोत्तम"रूप कहीं भूले से भी देखने को न मिल पाता|वैसे कमियां तो सभी में होती हैं परन्तु अगर इस  परिप्रेक्ष्य में  कैकेयी का आकलन करें तो शायद कुछ संतुलित हो सकेंगे ...................


कैकेयी की वेदना
अभय आज़ाद 
मेरा फोटो

रामायण हिन्दू धर्म का एक पवित्र ग्रन्थ है । जिसमे राम का चरित्र सर्वोत्तम है , जो करुणा ,त्याग , सहिष्णुता , प्रेम , धर्म , भात्रुप्रेम आदि की मूर्ति है । राम के चरित्र को निखारने में जितनी राम की व्यक्तिगत विशेषता का योगदान है उतना ही कैकेयी का योगदान है ।
कैकेयी अयोध्या नरेश राजा दशरथ की तीन रानियों में सबसे छोटी थी जो उन्हें अत्यंत प्रिय थी । देवासुर संग्राम में राजा दशरथ के प्राणों की रक्षा कर उनके द्वारा दिए गए दो वरदानो की कृपापात्र बनी । जिसका सदुपयोग उन्होंने अपने प्रिय पुत्र श्री राम को चौदह वर्ष तक वनवासी जीवन व्यतित कर लंका नरेश रावण का वध कर इस धरा को उसके पापाचार से मुक्त कराकर सही मायने में राम राज्य की स्थापना करना । इस पुनीत कार्य के लिए इतिहास उन्हें आज भी घृणा की नजर से देखता है , उनके द्वारा किये गए उपकार के बदले में लोग आज भी उनकी निंदा करते है । अबला नारी की श्रेणी में सीता , उर्मिला , यशोधरा , अहिल्या आदि का वर्णन होता है ,लेकिन कैकेयी के त्याग ,बलिदान को देख सही मायने में ये पंक्ति सार्थक लगती है -''अबला तेरी यही कहानी ,आंचल में है दूध आँखों में है पानी '' ।
: किसी भी सधवा नारी के लिए उसका सौभाग्य उसका पति होता है और कैकेयी को पता था कि यदि राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास और अपने पुत्र के लिए राजगद्दी मांगकर वह अपने पति के प्राणों को संकट में डाल स्वयं अपने आप को विधवा बना रही है क्योंकि राम उन्हें अपने प्राणों से भी प्रिय है और वह राम के बगैर जी न सकेंगे । यह जानते हुए भी कैकेयी ने जनकल्याण हेतु विधवा होना स्वीकार किया । जिसके लिए पति के द्वारा शापित भी हुई ।
: कैकेयी को अपने चारो पुत्रो में सबसे अधिक स्नेह राम पर था यहाँ तक कि राम के बगैर वह जीवन कि कल्पना भी नहीं कर सकती थी फिर भी प्रजा कार्य हेतु उन्होंने राम को वन में भेज राम का असह्य वियोग सहा ।
: कैकेयी अपने सगे पुत्र साधू भरत को अच्छी तरह से जानती थी कि वह अपने बड़े भाई की जगह कभी भी राजा पद का स्वीकार नहीं करेगा , और इस कार्य के लिए उसे कभी माफ़ भी नहीं करेगा । अपने कलेजे पर पत्थर रख कर कैकेयी ने वरदान माँगा जिसके परिणाम स्वरूप भरत ने कभी भी कैकेये को माँ नहीं कहा । इससे बड़ी दुख की बात किसी माँ के लिए क्या हो सकती है ।
: समाज में निन्दित हुई लोगो के तिरस्कार का भोग भी बनी 
फिर भी उनके इन त्याग और बलिदान को देख कर मेरा मस्तक श्रध्दासे झुक जाता है ।



सोमवार, 29 जून 2015

परिकल्पना - चाहने का अर्थ जानो




चाह लो 
और वही आसानी से मिल जाये 
तो सीखोगे क्या ?
प्रयास क्या करोगे ?
अनुभव क्या संजोवोगे ?
चाह लेना बड़ी आसान बात है 
पाना - लक्ष्य साधना 
प्रयास दर प्रयास 
गर्मी से बुरा हाल न हो 
तो गर्म पानी में शीतलता नहीं मिलेगी 
हाथ पैर जमे नहीं 
तो आग ढूँढोगे नहीं 
… 
बंधू,
चाहो - खूब चाहो 
फिर उस दिशा में बढ़ो 
गिरो, अटको,रोवो 
पाँव के छाले देखो 
फिर चाहने का अर्थ जानो 
देखो, समझो 
- जो चाह हुई 
उसके मायने भी थे या नहीं 
और अगर थे 
तो तुम्हारी थकान में 
जो मुस्कुराहट की धूप खिलेगी 
उसका सौंदर्य अद्भुत होगा  … 

रश्मि प्रभा 

।। एकलव्य से संवाद ।।
अनुज लुगुन 
(भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार से सम्मानित)
अनुज लुगुन




एकलव्य की कथा सुनकर मैं हमेशा इस उधेड़बुन में रहा हूँ कि द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद उसकी तीरंदाजी कहाँ गई ? क्या वह उसी तरह का तीरंदाज बना रहा या उसने तीरंदाजी ही छोड़ दी ? उसकी परंपरा का विकास आगे कहीं होता है या नहीं ? इसके आगे की कथा का जिक्र मैंने कहीं नहीं सुना। लेकिन अब जब कुछ-कुछ समझने लगा हूँ तो महसूस करता हूँ कि रगों में संचरित कला किसी दुर्घटना के बाद एकबारगी समाप्त नहीं हो जाती। हो सकता है एकलव्य ने अपना अँगूठा दान करने के बाद तर्जनी और मध्यमिका अँगुलियों के सहारे तीरंदाजी का अभ्यास किया हो। क्योंकि मुझे ऐसा ही प्रमाण उड़ीसा के सीमावर्ती झारखंड के सिमडेगा जिले के मुंडा आदिवासियों में दिखाई देता है। इस संबंध में मैं स्वयं प्रमाण हूँ। (हो सकता है ऐसा हुनर अन्य क्षेत्र के आदिवासियों के पास भी हो) यहाँ के मुंडा आदिवासी अँगूठे का प्रयोग किए बिना तर्जनी और मध्यमिका अँगुली के बीच तीर को कमान में फँसाकर तीरंदाजी करते हैं। रही बात इनके निशाने की तो इस पर सवाल उठाना मूर्खता होगी। तीर से जंगली जानवरों के शिकार की कथा आम है। मेरे परदादा , पिताजी , भैया यहाँ तक कि मैंने भी इसी तरीके से तीरंदाजी की है। मेरे लिए यह एकलव्य की खोज है और यह कविता इस तरह एकलव्य से एक संवाद।

1.

घुमंतू जीवन जीते
उनका जत्था आ पहुँचा था
घने जंगलों के बीच
तेज बहती अनाम
पहाड़ी नदी के पास
और उस पार की कौतुहूलता में
कुछ लोग नदी पार कर गए थे
और कुछ इधर ही रह गए थे
तेज प्रवाह के समक्ष अक्षम,
तब तीर छोड़े गए थे
उस पार से इस पार
आखिरी विदाई के
सरकंडों में आग लगाकर
और एक समुदाय बँट गया था
नदी के दोनों ओर

चट्टानों से थपेड़े खाती
उस अनाम नदी की लहरों के साथ
बहता चला गया उनका जीवन
जो कभी लहरों के स्पर्श से झूमती
जंगली शाखों की तरह झूम उठता था
तो कभी बाढ़ में पस्त वृक्षों की तरह सुस्त होता था
पर पानी के उतर जाने के बाद
मजबूती से फिर खड़ा हो जाता था

उनके जीवन में संगीत था
अनाम नदी के साथ
सुर मिलाते पपीहे की तरह
जीवन पल रहा था

एक पहाड़ के बाद
दूसरे पहाड़ को लाँघते
और घने जंगल में सूखे पत्तों पर हुई
अचानक चर्राहट से
उनके हाथों में धनुष
ऐसे ही तन उठती थी।


2 .

हवा के हल्के झोकों से
हिले पत्तों की दरार से
तुमने देख लिया था मदरा मुंडा
झुरमुटों में छिपे बाघ को
और हवा के गुजर जाने के बाद
पत्तों की पुनः स्थिति से पहले ही
उस दरार से गुजरे

तुम्हारे सधे तीर ने
बाघ का शिकार किया था
और तुम हुर्रा उठे थे -
'जोवार सिकारी बोंगा जोवार!'
तुम्हारे शिकार को देख
एदेल और उनकी सहेलियाँ
हँड़िया का रस तैयार करते हुए
आज भी गाती हैं तुम्हारे स्वागत में गीत
"सेंदेरा कोड़ा को कपि जिलिब-जिलिबा।"

तब भी तुम्हारे हाथों धनुष
ऐसे ही तनी थी।


3 .

घुप्प अमावस के सागर में
ओस से घुलते मचान के नीचे
रक्सा, डायन और चुड़ैलों के किस्सों के साथ
खेत की रखवाली करते कांडे हड़म
तुमने जंगल की नीरवता को झंकरित करते नुगुरों के
संगीत की अचानक उलाहना को
पहचान लिया था और
चर्र-चर्र-चर्र की समूह ध्वनि की
दिशा में कान लगाकर
अँधेरे को चीरता
अनुमान का सटीक तीर छोड़ा था
और सागर में अति लघु भूखंड की तरह
सनई की रोशनी में
तुमने ढूँढ़ निकाला था
अपने ही तीर को
जो बरहे की छाती में जा धँसा था।

तब भी तुम्हारे हाथों छुटा तीर
ऐसे ही तना था।

ऐसा ही हुनर था
जब डुंबारी बुरू से
सैकड़ों तीरों ने आग उगली थी
और हाड़-माँस का छरहरा बदन बिरसा
अपने अद्भुत हुनर से
भगवान कहलाया।

ऐसा ही हुनर था
जब मुंडाओं ने
बुरू इरगी के पहाड़ पर
अपने स्वशासन का झंडा लहराया था।


4.

हाँ, एकलव्य !
ऐसा ही हुनर था।

ऐसा ही हुनर था
जैसे तुम तीर चलाते रहे होगे
द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद
दो अँगुलियों
तर्जनी और मध्यमिका के बीच
कमान में तीर फँसाकर।

एकलव्य मैं तुम्हें नहीं जानता
तुम कौन हो
न मैं जानता हूँ तुम्हारा कुर्सीनामा
और न ही तुम्हारा नाम अंकित है
मेरे गाँव की पत्थल गड़ी पर
जिससे होकर मैं
अपने परदादा तक पहुँच जाता हूँ।

लेकिन एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है।

मैंने तुम्हें देखा है
अपने परदादा और दादा की तीरंदाजी में
भाई और पिता की तीरंदाजी में
अपनी माँ और बहनों की तीरंदाजी में
हाँ एकलव्य ! मैंने तुम्हें देखा है
वहाँ से आगे
जहाँ महाभारत में तुम्हारी कथा समाप्त होती है।


5.

एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
तुम्हारे हुनर के साथ।

एकलव्य मुझे आगे की कथा मालूम नहीं
क्या तुम आए थे
केवल अपनी तीरंदाजी के प्रदर्शन के लिए
गुरू द्रोण और अर्जुन के बीच
या फिर तुम्हारे पदचिह्न भी खो गए
मेरे पुरखों की तरह ही
जो जल जंगल जमीन के लिए
अनवरत लिखते रहे
जहर-बुझे तीर से रक्त-रंजित
शब्दहीन इतिहास।

एकलव्य, काश ! तुम आए होते
महाभारत के युद्ध में अपने हुनर के साथ
तब मैं विश्वास के साथ कह सकता था
दादाजी ने तुमसे ही सीखा था तीरंदाजी का हुनर
दो अँगुलियों के बीच
कमान में तीर फँसाकर।

एकलव्य
अब जब भी तुम आना
तीर-धनुष के साथ ही आना
हाँ, किसी द्रोण को अपना गुरु न मानना
वह छल करता है
हमारे गुरु तो हैं
जंगल में बिचरते शेर, बाघ
हिरण, बरहा और वृक्षों के छाल
जिनसे सीखते-बतियाते
हमारी सधी हुई कमान
किसी भी कुत्ते के मुँह में
सौ तीर भरकर
उसकी जुबान बंद कर सकती है।

शनिवार, 27 जून 2015

परिकल्पना - सुदामा कभी अकेला नहीं होता




ढूँढो - तो कृष्ण मिलेंगे 
सुदामा कभी अकेला नहीं होता  

…। रश्मि प्रभा 


नमस्ते जी


नमस्ते जी सुनते ही सोहन रुक गया। मुड़ कर देखा तो एक लड़का, जिसकी उम्र लगभग अठारह उन्नीस वर्ष की होगी, के होठों पर हलकी सी मुस्कान थी, उसने सोहन से नमस्ते की थी। नमस्ते का जवाब सोहन ने नमस्ते से किया। सोहन रुक गया और उस लड़के को ध्यान से देखने लगा परन्तु उसको पहचान पाने में असमर्थ रहा।

"मैंने आपको पहचाना नहीं।" सोहन ने उस लड़के से कहा।

"जी, मेरी यह स्टेशनरी की दुकान है। आज ही खोली है, पहला दिन है। आपको सीढ़ियों से ऊपर जाता देख समझा कि ऊपर की दुकान आपकी है।"

"यह भी क्या संयोग है कि अपने दुकान खोली और पहला दिन है। आपकी दुकान के ऊपर जो कमरा है, उस में मैंने ऑफिस बनाया है और मेरे ऑफिस का भी पहला दिन है। मैं पंडित का इंतज़ार कर रहा हूं। पूजा करने के बाद ऑफिस का कामकाज शुरू करूंगा। तुम भी कह रहे थे कि तुम्हारी दुकान का पहला दिन है, तुमने पूजा करवाई।" सोहन ने उस लड़के से पूछा।

"जी, सुबह आठ बजे ही पूजा हो गई। पंडित जी ने सुबह आठ बजे का शुभ मुहूर्त निकाला था।"

"हमारे पंडित तो बहुत व्यस्त रहते हैं। बारह बजे का पूजा का समय दिया है, आते ही होंगे। वैसे हम बाते कर रहे हैं परन्तु एक दूसरे से अपना अपना परिचय तो कराया नहीं। मेरा नाम सोहन है। ऊपर कमरे में ऑफिस खोल रहा हूं।" सोहन ने अपना परिचय दिया।

"मेरा नाम प्रीत अरोड़ा है। मैंने स्टेशनरी की दुकान खोली है। आपको स्टेशनरी की ज़रुरत हो तो सेवा का अवसर दीजिये।" उस लड़के ने अपना परिचय दिया।

इतने में सोहन के पंडित जी आ गए और सोहन ऑफिस की पूजा में व्यस्त हो गया। पूजा के बाद सोहन नीचे उतरे और अपने ऑफिस के लिए कुछ स्टेशनरी खरीदी।

"सर जी, आप मेरी दुकान पर पहले ग्राहक है। आपका ऑफिस भी दुकान के ऊपर है। आपका मेरे जीवन में विशेष स्थान रहेगा।" प्रीत ने कहा।

"क्या उम्र है, छोटे नज़र आ रहे हो।"

"जी, अठारह साल।"

"पढ़ाई भी करो।"

"बारहवीं में नंबर कम आये। पढ़ने में दिल नहीं लगता, किसी भी कॉलेज में दाखिला मिलेगा नहीं, इसलिए दुकान खोल दी है। पापा की दुकान सदर बाजार में है। स्टेशनरी का काम करते है। यहां मेरे लिए दुकान खोली है।"

सोहन बातचीत के बाद ऑफिस में आ कर काम करने लगा। शाम के समय फुरसत के पल में सोचने लगा कि प्रीत के परिवार ने उचित कदम उठाया है। पढ़ाई में दिल नहीं लगता तो दुकान खोल दी। उसने पढ़ाई करके कौन से तीर चला दिए हैं। पढ़ाई की फिर दस साल विभिन्न कंपनियों में नौकरी की। सरकारी नौकरी मिली नहीं, निजी कंपनियों में चाहे छोटी हो या बड़ी, हर जगह एक जैसे हाल हैं। वेतन वृद्धि की बात करो तो कोई करता नहीं, काम खूब करवाते हैं। सुबह समय से आओ परन्तु शाम को छुट्टी का कोई समय नहीं। देर रात तक काम किया। थक हार कर हर दूसरे साल अधिक वेतन के लिए नौकरी बदली। जब दूसरी जगह नौकरी मिलने पर इस्तीफा दिया तब कहते थे कि वेतन बड़ा देते हैं। यही काम करो। लानत है मालिकों की ऐसी छोटी सोच पर। शराफत से वेतन बढ़ाते नहीं, फिर रुकने का क्या फायदा। नई जगह नया अनुभव और अधिक वेतन। दस वर्षों में पांच नौकरियां बदली। अब दस साल बाद अपना खुद का व्यापार शुरू किया, कि अपना हाथ जगन्नाथ। खुद के लिए काम करेंगे। किसी की गुलामी नहीं। उसके साथी व्यापार करते हुए उससे कहीं आगे निकल गए परन्तु उसके पास न तो पूंजी थी और न हिम्मत कि अपना कोई व्यापार कर सके। हिम्मत करके दस वर्ष नौकरी करने के पश्चात जब तरक्की नहीं मिली खुद का छोटा सा व्यवसाय शुरू किया। किराये के छोटे से कमरे में ठेकेदारी का काम चालू किया। उसे प्रीत का निर्णय उचित लगा, जब पढ़ने में दिल नहीं लगता और नंबर भी नहीं आये, इधर उधर बेकार मटर गस्ती करने से अच्छा है कि दुकान ही चलाई जाए। दस वर्ष बाद बहुत आगे जायेगा प्रीत।

सोहन और प्रीत हर रोज़ मिलते। ठेकेदारी में उसे कई बार बाहर जाना पड़ता। सोहन सारे काम खुद करता। कोई सहायक नहीं था। जब ऑफिस से बाहर जाना होता तो ऑफिस बंद करके चाबी प्रीत को दे देता। इस बहाने कई बार मिलना होता। प्रीत मिलनसार और हंसमुख नवयुवक था। हर बार मिलने पर नमस्ते कहता। सोहन को उसका नमस्ते का अंदाज़ अच्छा लगता। प्रीत सोहन से ही नहीं, सभी ग्राहकों से नमस्ते करता। दिन बीतते गए। प्रीत की दुकान चल निकली और सोहन का धंधा। प्रीत स्टेशनरी के साथ स्कूल, कॉलेज की पुस्तकें भी रखने लगा। ठेकेदारी में जो सामान सोहन को ज़रुरत पड़ती, प्रीत के पिता सदर बाज़ार से ला देते। दो तीन वर्ष बाद प्रीत का छोटा भाई गगन भी दुकान पर प्रीत का हाथ बटाने लगा। सोहन ने भी चार सहायक रख लिए। सोहन प्रीत को महीने में ख़रीदे सामान का भुगतान एक मुस्त चेक से करता। प्रीत ने कभी अग्रिम भुगतान के लिए नहीं कहा। हर महीने की आखिरी तारीख में बिल बना कर सोहन को दे देता। सोहन बिल चेक करके तीन चार दिन बाद बिल का भुगतान कर देता। सोहन का व्यापार उन्नति की चोटियों पर चढ़ता गया। सोहन ने बड़ा ऑफिस ले लिया परन्तु प्रीत की दुकान के ऊपर वाले ऑफिस को नहीं छोड़ा। सोहन उस ऑफिस को भाग्यशाली मानता था, जहां से उसने व्यापार छोटी सी पूंजी से ठेकेदारी का काम शुरू किया था आज दस साल बाद एक बहुत बड़े ऑफिस में कंस्ट्रक्शन कंपनी का मालिक बन गया था। उधर प्रीत की दुकान भी ठीकठाक चल रही थी। जब भी प्रीत सोहन के ऑफिस चेक लेने आता तो नमस्ते से दोनों की बात शुरू होती और कम से कम एक घंटे तक चलती। आज दोनों दोस्त बन गए थे, हालांकि सोहन और प्रीत की उम्र में पंद्रह वर्षों का अंतर था। समय पंख लगा कर उड़ जाता है। सोहन व्यापार में अधिक व्यस्त रहने लगा, कई बार प्रीत चेक लेने ऑफिस आता तो आपस में मुलाकात नहीं हो पाती।

एक दिन सोहन दोपहर के डेढ़ बजे ऑफिस से निकल रहा था, उस समय प्रीत ऑफिस के गेट पर सोहन से मिला, आपस में नमस्ते हुई।

"नमस्ते जी।"

"नमस्ते जी, प्रीत, मैं जरा जल्दी में हूं। चेक एकाउंट्स से ले लेना।"

"आपसे कुछ बात करनी है। चेक तो अभी बना नहीं होगा। टाइम नहीं हुआ है।"

"मैं अकाउंटेंट को फ़ोन पर कह दूंगा, शाम को आ कर चेक साइन कर दूंगा। शाम को आना।" सोहन कह कर फटाफट चला गया। प्रीत का कोई चेक नहीं बनना था, वह भी वापिस लौट गया। सोहन ने कार में बैठते ही अकाउंटेंट को प्रीत का चेक बनाने को कह दिया।

शाम को सोहन ऑफिस में देर से आया, प्रीत इंतज़ार कर रहा था। प्रीत को देख कर सोहन ने अकाउंटेंट से प्रीत का चेक बना कर लाने के लिए कहा। अकाउंटेंट खाली हाथ सोहन के केबिन में आया। 

"चेक लाओ, प्रीत के चेक में देरी क्यों की।"

"सर जी, इस बार बिल ही नहीं दिया, प्रीत जी ने।"

"अच्छा तुम जाओ।" अकाउंटेंट को जाने के लिए कहा। फिर प्रीत से "बिल में देरी मत करो, कल सुबह बिल दे दो, मैं सारा दिन ऑफिस में रहूंगा, उसी समय साइन कर दूंगा।"

"जी, आपसे निजी बात करनी है, बिल बनाने का समय नहीं हुआ है। बिल तो महीने की आखिरी तारीख में बनाता हूं। आप से कुछ मदद चाहता हूं।"

"कहो दोस्त, मेरे पास अब समय है। सुबह एक मीटिंग में जाना था। अब बात करते हैं। यहां से घर ही जाना है। तुम्हारी भाभी मायके गई है।"

प्रीत चुप रहा। प्रीत की चुप्पी पर सोहन ने कहा। "चुप क्यों हो, कहो। दोस्तों से कोई पर्दा नहीं करते।"

प्रीत चुप रहा। कहना चाहता था, पर गला सूखता जा रहा था। सोहन ने प्रीत को पानी का गिलास दिया। पानी पी कर प्रीत ने धीरे से कहा "कुछ मदद चाहिए।"

"कहो क्या बात है।"

"जी, पिताजी को कैंसर हो गया है। ऑपरेशन और कैंसर के इलाज़ के लिए पैसों का इंतज़ाम पूरा नहीं हो रहा है। कुछ रकम आप एडवांस में दे दें, तो आपका आभारी रहूंगा। हर महीने के बिल में एडजस्ट करवा लूंगा।" 

"तुमने मुझसे बात क्यों छुपाई। दोस्तों में पर्दा अच्छा नहीं होता।"

"पिताजी की तबियत तीन महीनों से अच्छी नहीं चल रही थी। अचानक से पिछले सप्ताह बहुत बिगड़ गई, हॉस्पिटल में दाखिल कराया, कल ही मालूम हुआ कि कैंसर की थर्ड स्टेज है। तुरंत ऑपरेशन के लिए डॉक्टर ने कहा है। पिताजी के इलाज़ में काफी रकम खर्च हो चुकी है। तुरंत रकम इकठ्ठा करने में दिक्कत आ रही है। ऑपरेशन के बाद कीमोथेरपी और रेडिएशन एक साल तक इलाज़ चलेगे। कुछ एडवांस मिल जाये। मैं बिलों में एडजस्ट करवा दूंगा। 

प्रीत की बात सुन कर सोहन ने कुछ पल सोचा और प्रीत से कहा "प्रीत कैंसर के इलाज़ में कोई कसर नहीं छोड़ना। इलाज़ बढ़िया और अच्छा करवाना। तुम रुपये पैसों की चिंता मत करना। मुझे मालूम है कि कैंसर का इलाज़ बहुत महंगा होता है। तुम मेरे दोस्त हो, तुम्हारी मदद करना मेरा फ़र्ज़ है।" कह कर सोहन से अलमारी से दो लाख रुपये निकाल कर प्रीत को दिए। अभी इतना रख लो और ऑपरेशन तुरंत करवा लो। और रकम की ज़रुरत हो, बिना झिझक कर फ़ोन कर देना। मैं खुद देने आऊंगा। हां वापिस देने की मत सोचना। जब तक इलाज़ पूरा सफल नहीं हो जाता, मैं वापिस नहीं लूंगा।"

प्रीत की आंखों में आंसू थे। कांपते हाथों से दो लाख रुपये पकडे। सोहन दो लाख रुपये दे कर भूल गया कि कभी उसने प्रीत को दिए थे और उससे वापिस भी लेने हैं। प्रीत सोहन के ऑफिस सामान देता रहा और बिल के भुगतान में दो लाख रुपये एडजस्ट करवाने के लिए चेक लेने सोहन के ऑफिस नहीं गया परंतु सोहन ने ऑफिस में आदेश दिया हुआ था कि प्रीत के बिल का भुगतान समय पर कर दिया जाये। जब प्रीत चेक लेने नहीं आया तो अकाउंटेंट खुद उसकी दुकान पर जा कर चेक देता कि सेठ जी का आदेश है। सोहन प्रीत से उसके पिता के इलाज़ और स्वस्थ्य के विषय में बात करता रहता।

एक साल बीत गया। सोहन के पिता का कैंसर का इलाज़ पूर्ण हो गया। इलाज़ के बाद एक दिन प्रीत अपने पिता के साथ सोहन से मिलने ऑफिस आया।

"नमस्ते जी, पिताजी भी मिलने आए हैं।" आज प्रीत की आवाज़ में आत्मसम्मान था। एक वर्ष पहले प्रीत सोहन से कहने के लिए झिझक रहा था, पर आज फिर पुरानी उत्तेजना और स्फूर्ति के साथ चेहरे में मुस्कान लिए प्रीत सोहन के साथ बैठा था।

"पिताजी कहां हैं?" सोहन ने प्रीत से पूछा। 

"जी बाहर बैठे हैं।"

"बाहर क्यों बिठा रखा है। अंदर लाओ। अच्छा रुको, मैं उनको लाने चलता हूं।" सोहन बाहर जा कर प्रीत के पिताजी को केबिन में अपने साथ ले कर आये हैं। "नमस्ते बाबूजी आप का अपना केबिन है, मुझे अच्छा नहीं लगा कि आप बाहर बैठ गए।"

"नमस्ते बेटा, यह तो तुम्हारा बड़प्पन है जो मुसीबत में देवता बन कर आए।" प्रीत के पिताजी ने कुर्सी पर बैठते हुए हाथ जोड़ कर विन्रमता से कहा।

"कैसी बात करते हो बाबूजी, मेरे और प्रीत में कोई अंतर नहीं है। दोस्त भाईओ से बड़ कर होते है।"

बातों के बीच में प्रीत के पिताजी ने अपना बैग खोला और एक लिफाफा सोहन के आगे किया। "यह बेटा, आपकी अमानत, अब मैं इसे और अधिक संभाल नहीं सकता।"

सोहन ने लिफाफा खोला, उसमे दो लाख रुपये थे। "यह क्या दे रहे हो, पिताजी।" 

"बेटा जी, प्रीत ने मेरे इलाज़ के लिए दो लाख रुपये आपसे एडवांस मांगा था, अपने बिलों में एडजस्ट भी नहीं किया। उस समय हमारे पास रकम नहीं थी। अकस्मात इलाज़ का खर्च उठाने में असमर्थ थे। आपके इन दो लाख रुपये ने मुझे नई ज़िन्दगी दी। यदि आप उस समय मदद न करते, तो मैं शायद आज यहां नहीं होता। कैंसर के इलाज़ में आठ लाख रुपये खर्च हुए। आज में स्वस्थ हूं, लेकिन कमज़ोरी की वजह से सदर बाजार हर रोज़ आना जाना मुश्किल है। वहां की दुकान बेच दी है। अब मैं प्रीत का हाथ उसकी दुकान में बटाऊंगा। तुम्हारा उपकार मैं कभी नहीं भूल सकता।"

"बाबूजी इसमें उपकार नहीं है। एक बेटे ने पिता के प्रति सिर्फ फ़र्ज़ निभाया है। मेरे और प्रीत में कोई अन्तर नहीं। प्रीत आपका बेटा, मैं भी आपका बेटा।"

"बेटा, तुम जीवन में बहुत तरक्की करो, मेरी ईश्वर से यही दुआ है। तुमने समय पर मदद की। मैं और मेरा परिवार आभारी है। फिर कभी यदि ज़रूरत पड़ेगी तब निसंकोच तुम्हारे पास आएंगे।" प्रीत के पिता ने मुस्कुराते हुए कहा

"अवश्य मेरा सौभाग्य रहेगा।" सोहन के हाथ में दो लाख रुपये का लिफाफा था।

"नमस्ते बेटा।" प्रीत के पिताजी ने कुर्सी से उठते हुए कहा। "अब चलते हैं। घर आना।"

"अवश्य पिताजी।" सोहन ने भी कुर्सी से उठते हुए कहा।

"नमस्ते भाई साहब।" प्रीत ने कहा।

सोहन नम आंखों के साथ प्रीत और उसके पिताजी को बाहर छोड़ने आया। प्रीत और पिताजी धीरे धीरे सीढ़ियां उतर रहे थे। सोहन की नम आंखों से आंसू छलक गए।



मनमोहन भाटिया

शुक्रवार, 26 जून 2015

परिकल्पना - धूप सेंकतीं औरतें



गुनगुनाती धूप 
और औरतें 
किरणों से बातें करती हैं 
गर्मी को आत्मसात करती हैं 
नहीं देखतीं अपनी दुनिया से परे 
व्यर्थ की बातों को 
अपनी सलाइयों पर 
वह घर बुनती है 
बुनती जाती है 
धूप सेंकते हुए  …। 

रश्मि प्रभा 


वंदना अवस्थी दुबे
धूप सेंकतीं औरतें


"सर्दियों की
गुनगुनी धूप सेंकतीं औरतें,
उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
किसी घोटाले से,
करोड़ों के घोटाले से,
या उससे भी ज़्यादा के.
गर्मियों की दोपहर में
गपियाती ,
फ़ुरसत से एड़ियां रगड़ती औरतें,
वे नहीं जानतीं
ओबामा और ओसामा के बीच का फ़र्क,
जानना भी नहीं चाहतीं.
उन्हें उत्तेजित नहीं करता
अन्ना का अनशन पर बैठना,
या लोगों का रैली निकालना.
किसी घोटाले के पर्दाफ़ाश होने
या किसी मिशन में
एक आतंकी के मारे जाने से
उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है?
या किसी को भी क्या फ़र्क पड़ता है?
ये कि अब आतंकी नहीं होंगे?
कि अब भ्रष्टाचार नहीं होगा?
कि अब घोटाले नहीं होंगे?
इसीलिये क्या फ़र्क पड़ता है,
यदि चंद औरतें
देश-दुनिया की खबरों में
दिलचस्पी न लें तो?
कम स कम इस मुग़ालते में तो हैं,
कि सब कुछ कितना अच्छा है!"


गुरुवार, 25 जून 2015

परिकल्पना - कुछ नए चेहरे नए सवाल




हर दिन कुछ नया होता है 
नए ख्याल 
नए विकल्प 
नए संकल्प 
नए चेहरे  .... 
सोचने को सोचते कई लोग हैं 
पर समय पर कह देना बड़ी बात होती है 
है न ?

रश्मि प्रभा 


अनुराधा 
http://no-dimension.blogspot.in/

आवाज उठाई आपने?


बड़ा आसान होता है दुसरो को सलाह देना।  दुसरो को सीख देके हममे से अधिकतर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। गरीब को बोलते हैं अमीरों के अत्याचारो के खिलाफ आवाज उठाओ। औरतो को बोलते हैं जुलम मत सहो, आवाज उठाओ। अल्पसंख्यको को बोलते हैं अपने हक के लिए लड़ो, आवाज उठाओ। योन हिंसा का शिकार हुई लड़की को बोलते हैं मत छुपाओ, आवाज उठाओ। घरेलु हिंसा का शिकार औरतो को बोलते हैं, हम तुम्हारे साथ हैं, बस तुम आवाज उठाओ।  और जाने कितनी आवाजों को उठाने का जज्बा देते हैं। बस तुम आवाज उठाओ हम तुम्हारे पीछे खड़े हो जाएँगे। 

बहुत बढ़िया बात है, साथ देना चाहिय, पीछे खड़े होना चाहिए। लेकिन कभी ये सोचा के आवाज उठाना कितना मुश्किल है? कितनी हिम्मत जुटानी पड़ती है? घर परिवार को ताक पे रख देना होता है। नौकरी, रोजी-रोटी को ताक पर रखना होता है। आराम चैन नींद सब को को ताक पे रखना होता है। समाज से लड़ना होता है, सिस्टम से लड़ना होता है, सब तीज त्यौहार भूल एक लड़ाई मैं जुट जाना होता है। और मजेदार बात ये के हक की लड़ाई जीतने की कोई गारंटी नहीं होती। और हमारे देश की नाय व्यवस्था को ना नजरंदाज करते हुए देखे तो कुछ लोगो की पूरी उम्र भी कम पड़ जाती है अपने हक कि लड़ाई लड़ते लड़ते।  

लेकिन जो त्याग है, ये जो लड़ाई है, ये सिर्फ उसकी है जिसने आवाज उठाई, पीछे खड़े होने वाले जन्मदिन भी मनाएंगे, शादी मैं भी जायेंगे, छुट्टी भी मनाएंगे, सिर्फ जब मन किया तुम्हारे पीछे खड़े हो जाएंगे। जब बोर हो जायेंगे ऑफिस मैं तो तुम्हारे लिए स्टेटस अपडेट करेंगे। नहीं नहीं ये मत समझना के मैं पीछे खड़े होने वालो के खिलाफ हूँ, या उनको घटिया मानती हूँ, कतई नहीं। मैं भी पीछे खड़े होने वालो मैं से हूँ। पीछे खड़े होना बहुत जरुरी है, बल्कि साथ मैं खड़े होईये, लड़िये जब तक बन पड़े। 

लेकिन हममे से कितने लोगो ने अपने लिए आवाज उठाई है? आपके साथ ऑफिस मैं हो रहे  भेद भाव के खिलाफ आवाज उठाई है? अपने लाइन मारते, हर असाइनमेंट के बदले काफी को पूछते मेनेजर के खिलाफ आवाज उठाई है? हर प्रमोशन के बदले बिस्तर पे बुलावे (चाहे आपने ठुकरा दिया) पे आवाज उठाई है? अपने हिंसक बॉयफ्रेंड के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई है? क्या अपनी बहन के दहेज लोभी सुसुराल वालो के खिलाफ आवाज उठाई है? अपनी काम वाली के लाल-नीले निशानों के खिलाफ आवाज उठाई है? आपकी प्रॉपर्टी का हिस्सा मार जाने वाले भाई के खिलाफ आवाज उठाई है? आपके बचपन को डराने कुचलने वाले मामा/चाचा/अंकल/नौकर/पडोसी जिसका आज भी आपके परिवार में आना जाना है, आवाज उठाई है? और भी जाने कितनी आवाजे …. क्या कोई रिपोर्ट दर्ज कराई है?  


शुरुआत
                          

हाँ, मैं वीक-एन्ड प्रोटेस्टर हूँ,
पर मैं जागा हूँ, सोया था सदियों आज जगा हूँ,
हाँ मैं बस एक काला बिंदु हूँ,
पर मैं एक शुरुआत हूँ।

हाँ, मैं पांच दिन ऑफिस जाऊँगा,
और दो दिन इंडिया गेट पे बैठूँगा,
हाँ मैं कूल हूँ, हाँ मैं प्रोटेस्टर हूँ,
मैं शुरुआत हूँ नए कल की।

हाँ, मैं फेसबुक प्रोटेस्टर हूँ,
कुछ दिनों से मैं एक नया आदमी हूँ, 
मैं सोचता हूँ महिलाओं के बारे मैं,
उनकी आज़ादी और सुरक्षा के सवाल पर मैं विचार करता हूँ,
मैं शुरुआत हूँ नए भारत की।

एक नयी सोच का जन्म हुआ है,
हाँ मेरा दिमाग भन्ना गया है,
हाँ मैं स्पीच्लेस हूँ, मैं चुप हूँ,
पर सोया नहीं हूँ, सतर्क हूँ, जगा हूँ,
मैं शुरुआत हूँ एक नए समाज की।

हाँ मैं मुझे डर लगता है,
मुझे पुलिस से डर लगता है, डंडो से भी डर लगता है,
मैं सरकारी मुलाजिम हूँ, डरा तो हूँ   
पर मैं बेहोंश नहीं हूँ, मैं जगा हूँ,
मैं शुरुआत हूँ एक बराबर समाज की।

बुधवार, 24 जून 2015

परिकल्पना - अनुभवी भट्ठी




कुछ साँसें इकट्ठी करके 
अनुभवों की भट्ठी सुलगाई 
जो आज भी प्रज्ज्वलित है 
भावनाओं की चिंगारियों से अछूते रह पाना संभव नहीं !!!

रश्मि प्रभा 

एक अनुभवी भट्ठी मीना चोपड़ा की 



मीना चोपड़ा 

अवशेष

वक्त खण्डित था, युगों में !
टूटती रस्सियों में बंध चुका था 

अँधेरे इन रस्सियों को निगल रहे थे।
तब !
जीवन तरंग में अविरत मैं
तुम्हारे कदमों में झुकी हुई
तुम्हीं में प्रवाहित
तुम्हीं में मिट रही थी
तुम्हीं में बन रही थी|
तुम्हीं से अस्त और उदित मैं
तुम्हीं में जल रही थी
तुम्हीं में बुझ रही थी! 
कुछ खाँचे बच गए थे                                 
कई कहानियाँ तैर रही थीं जिनमें                       
उन्ही मे हमारी कहानी भी                             
अपना किनारा ढूँढती थी! 
एक अंत !                                          
 जिसका आरम्भ,                                     
दृष्टि और दृश्य से ओझल                             
भविष्य और भूत की धुन्ध में लिपटा                     
मद्धम सा दिखाई देता था।  
अविरल ! 
शायद एक स्वप्न लोक ! 
और तब आँख खुल गई
हम अपनी तकदीरों में जग गए।
टुकड़े - टुकड़े                                                                 
ज़मीं पर बिखर गए।          


आनन्द मठ

मीना द्वारा निर्मित पेस्टल ऑन पेपर 
हाथों की वो छुअन और गरमाहटें
बन्द है मुट्ठी में अबतक                          
          ज्योतिर्मय हो चली हैं
            हथेली में रक्खी रेखाएँ।
         लाखों जुगनू हवाओं में भर गए हैं
           तक़दीरें उड़ चली हैं आसमानों में
            सर्दियों की कोसी धूप
             छिटक रही है दहलीज़ तक,

         और तुम – कहीं दूर –
           मेरी रूह में अंकित
            आकाश-रेखा पर चलते हुए –
             एक बिंदु में ओझल होते चले गए।

       डूब चुके हो
        जहाँ नियति –
          सागर की बूँदों में तैरती है।
      
     मेरी मुट्ठी में बंधी रेखाएँ
      ज्योतिर्मय हो चुकी हैं।
       तुम्हारी धूप
        मुझमें आ रुकी है।



प्रज्ज्वलित कौन?

देह मेरी
कोरी मिट्टी!
धरा से उभरी,
तुम्हारे हाथों में
तुम्हारे हाथों तक
जीवन धारा से
सिंचित हुई यह मिट्टी।
अधरों और अँधेरों की
उँगलियों में गुँथती
एक दिये में ढलती मिट्टी,
जिसमें एक टिमटिमाती रौशनी को रक्खा मैंने
और आँखों से लगाकर
अर्श की ऊँचाइयों को पूजा
एक अदृश्य और उद्दीप्त अर्चना में।
कच्ची मिट्टी का दिया है
और कँपकँपाती हथेलियाँ
मेरा भय!
मेरी आराधना और तुम्हारी उदासीनता
के बीच की स्पर्धा में
दीपक का गिरना
चिटखना और टूट जाना,
रौशनी का थक के बुझना
बुझ के लौट जाना
मेरी इबादत का अन्त
क्या यूँ ही टूटना, बिखरना
और मिट जाना है?
तो फिर
प्रज्ज्वलित कौन?                                                  

 
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