बुधवार, 31 अक्तूबर 2007

....न उसने कुछ कहा, न मैंने पहल की !

किसी शायर ने ठीक ही कहा है- " क्यों जिन्दगी में अपने जीने के अंदाज़ छोड़ दें, क्या है हमारे पास इस अंदाज़ के सिवा।" दरअसल जिन्दगी में इतने रंग , इतने अंदाज़ , इतने एहसास हैं और वह भी इतने जुदा - जुदा कि कोई क्या कुछ कहे . हर रंग , हर अंदाज़ की अपनी छटा है , हर एक का उस पर हक है , क्योंकि वह उसकी सृष्टि , उसका स्वप्न है और हर पल वह उसे पाने के लिए ललकता है .
लगभग पांच वर्ष पहले प्रशांत की एक महिला मित्र हुआ करती थी, नाम था कामिनी . बडे सुन्दर विचार थे उसके , बड़ी प्यारी- प्यारी बातें किया करती थी . उसकी बातें प्रशांत को बरबस खींचती थी अपनी तरफ. उसके विचार प्रशांत को चर्च के घंटे की तर्ज़ पर गढे गए संगीत सा महसूस होता था , कभी मंदिरों की आरती तो कभी मस्जिदों के अजान सा . बहुत पवित्र रिश्ता था उसका उसके साथ . कामिनी के उम्दा ख्यालों का कायल था वह . जब कभी दोनों मिलते थे तो जी भर कर बातें करते , घंटों तक खोये रहते विचारों की मटरगश्ती में . प्रशांत मन ही मन चाहता था उसे पर शायद उसके उम्दा विचारों के आगे खुद को बौना महसूस करता , इसलिए अपने प्यार का इजहार नही कर सका और न प्रस्ताव ही रख सका शादी का .
समय का पहिया चलता रहा , दोनों को दरकार थी नौकरी की , दोनों को चिंता थी भविष्य संवारने की . दोनों जुदा हो गए जीवन और जीविका के बीच संतुलन बैठाने के चक्कर में और सालों बाद मिले भी तो कुछ इस तरह -
प्रशांत एक व्यवसायिक प्रतिष्ठान में जन सम्पर्क अधिकारी हो गया , बॉस से अच्छे संवंध थे , एक दिन बॉस ने कहा कि - " प्रशांत , आज मेरे एक मित्र की एन्वार्सरी पार्टी है होटल अवध क्लार्क में और मैं नहीं जा पाऊंगा व्यस्तता के कारण , आप चले जाओ !" प्रशांत को ऐसी हाई प्रोफाईल पार्टियों में जाना अछा नही लगता , मगर नौकरी की मजबूरी थी सो उसे न चाहते हुए भी उस पार्टी में जाना पडा .
लखनऊ के उस बडे होटल में चल रही शानदार पार्टी में मित्तल साहब के आते ही जैसे तूफ़ान आ गया . मित्तल साहब की बात अलग थी , नाबावी ठाट और मुँह में पान की लाली . उम्र वेशक सत्तर को पार कर चुकी थी , पर दिल अभी सत्रह का ही था .

लेकिन पार्टी में उठा तूफ़ान मित्तल साहब की वजह से नही , वल्कि उस कमसीन युवती की वज़ह से था , जो मित्तल साहब के कांपते बूढे हांथों में अपनी गोरी बाँहें डाल बड़ी शान से चली आ रही थी . शायद अपने हाव - भाव से कहना चाह रही हो कि मैं भी एक करोड़पति की बीबी हूँ , दूसरी हुई तो क्या हुआ .
सालों बाद देखा था कामिनी को वह आज , बाहर से चहचहाती किन्तु भीतर ही भीतर धुँआती हुई . भौंचक रह गया प्रशांत उसे देख कर और मन ही मन सोचने लगा कहाँ गए कामिनी के वह आदर्श ? क्या यही ख्वाहिश थी कामिनी की वर्षों पहले ?
उस भीड़ में इधर - उधर घूमती हुई कामिनी की आँखें अचानक प्रशांत की आंखों से टकडाई और झुक गयी शर्म से अनायास ही . कुछ कहने के लिए आगे बढ़ी फिर ठिठक गयी यह सोचकर कि शायद मित्तल साहब को बुरा लगे किसी नवजवान से मिलते हुए .

होटल के कोने में बैठा प्रशांत यही सोचता रहा था कि " पैसों और एशोआराम की खोखली चकाचौंध के चक्कर में यह कैसा संतुलन ? कल जब मित्तल साहब के पाँव कब्र में भीतर तक धंस जायेंगे तो बेचारी कामिनी अपने करोड़पति शौहर की दूसरी बीवियों की तरह किसी फ्लैट में पडी रहेगी किश्तों में खुदकुशी करती हुई . भगवान् करे ऐसा न हो.....बेचारी ! "
जब प्रशांत सोच के समंदर से बाहर निकला तो कामिनी जा चुकी थी और पार्टी बेजान सी हो चली थी . वह बिना कुछ खाए - पिए , बिना किसी से बात किये होटल से बाहर आ गया और अपनी कार की पिछली सीट पर धम्म से गिरा, मन ही मन बुदबुदाते हुए कि - " न उसने कुछ कहा , मैंने पहल की ....! "
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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2007

बीडी जलाइले जिगर से , जिगर मा बड़ी आग है !

बीच वहस में.....
परसों इतवार का दिन था, सोचा कि कोई मित्र मिल जाये तो सिनेमा देखने चलें, पर शाम तक कोई मित्र ऐसा नही मिला जिसके साथ जाया जा सके. थक-हार कर शाम विताने के उद्देश्य से चला गया अपने एक करीबी मित्र प्रदुमन तिवारी के यहाँ, यह सोचकर कि कुछ मित्र एक साथ बैठकर जब विचारों का आदान- प्रदान करेंगे तो शाम खुश्ग्बार गुजर जायेगी . मैं प्रदुमन के घर के बाहर लॉबी में कुछ मित्रों के साथ बैठा गप्पे मार रहा था कि अचानक एक ऐसी घटना घटी कि मैं सोचने पर मजबूर हो गया. आप भी सुनेंगे तो नि: संदेह मजबूर हो जायेंगे सोचने पर. हुआ यह कि उसके यहाँ एक कामवाली आयी थी जो एक कोने में बैठकर बीडी पी रही थी और प्रदुमन का सबसे छोटा बेटा जो महज सात साल का है , उससे गपिया रहा था , उसे हिदायतें दे रहा था कि- " ये चाची! अपनी बीडी को जिगर से क्यों नहीं जलाती हो, माचिस के पैसे बचेंगे ?"यह सुनकर वह कामवाली पहले तो शरमाई फिर अपने कथई दातों को निपोरती हुई बोली- " धत्त , कइसन बात करत हौ बबुआ! जिगर से कहीं बीडी जलिहें ?" वह बालक इसप्रकार बातें कर रहा था जैसे आत्म विश्वास से लबरेज हो. उसने मासूमियत भरी निगाह डालते हुए कहा कि- " जलेगी न चाची , कोशिश तो करो !" वहाँ बैठे सभी लोग यह दृश्य देख अपनी हंसी को रोक नही पाए और खिलखिलाकर हंसने लगे, ठहाका लगाने लगे. वह बालक शायद यह सोचकर वहाँ से भागा कि लोग उसका मजाक उडाने लगेंगे. हमारी हंसी की गूँज से वह कामवाली भी शर्मा गयी. लोगों ने उस मासूम की बातें भले ही उस समय गंभीरता से न लिए हों लेकिन यह सच है कि दृश्य - मीडिया जो किसी भी समाज की सु संस्कारिता का आईना होता है, वही जब द्वि अर्थी संवादों के माध्यम से समाज को गंदा करने की कोशिश करे तो अन्य से क्या अपेक्षा की जा सकती है . आज यह हमारे समाज के लिए वेहद विचारणीय विषय है. ऐसे समय में जब फैला हो हमारे इर्द- गिर्द वीभत्स प्रभाव सिनेमा का , हम कैसे एक सुन्दर और खुशहाल सह- अस्तित्व के साथ- साथ सांस्कारिक समाज की परिकल्पना कर पायेंगे?
सारी बातें बहुत देर तक जेहन में उमड़ती रही और अचानक दस्तक देने लगी मन - मस्तिष्क में एक ऐसी कविता जो मैंने उस समय लिखी थी जब मेरा बेटा गोलू अबोध था . खलनायक फिल्म के उस गाने की बड़ी धूम थी उन दिनों " चोली के पीछे क्या है ? " उसी प्रकार जैसे आज धूम है "बीडी जलैले " कीप्रस्तुत है " चोली के पीछे का सच "" चोली के पीछे क्या है माँ ?"बोल पड़ा गोलू अचानक लौटते- लौटते पाठशाला सेझेंप गयी माँ एकवारगी / देखती रही देर तकटकटकी लगाए, अपने अबोध बेटे का चेहरा और सोचती रही कि क्या कक्षा में हुए सिनेमाई वार्तालाप का असर है यह कटु प्रश्न?बोली" पगले नही जानते इतना भी कि-चोली के पीछे है दूध की वह धार, जिसमें डूब-डूबकर नहाए हो तुम,पले-बढ़े हो/ हुआ है तुम्हारे मस्तिस्क का विकासमिली है शक्ति तुम्हे और मुझे वात्सल्य सुखतुम्हे नहलाकार, यक़ीनन......!"कहते हैं सब कि चोली के पीछे दिल है, यह दिल क्या है माँ ?"बिल्कुल सहज हुई वह ,और देने लगी बारी- बारी से बेटे के प्रश्नों के उत्तर-" बेटा! दिल होता है प्रत्येक प्राणी के भीतर ,जो धड़कता है क्षण- प्रतिक्षण / जीवित रहने तक.....!"संतुष्ट न होते हुए उसने पुन: उछाल दिया एक प्रश्न कि -" माँ ! आख़िर क्या है सच, जो कहते हैं वो या -जो कहती हो तुम ?"जानती है माँ, कि -नही समझा पाएगी अपने अबोध गोलू को वहऐसे समय में जब फैला हो वीभत्स प्रभावसिनेमा का हमारे इर्द - गिर्द !कैसे बताए खुलकर कि चोली के पीछे हैममतामयी आँखों का रक्तिंम संसारऔर एक ऐसा कवच, जो छूपा लेता उसे -किसी अदृश्य की आहट पाकर यकायक !निहारते हुए एकटक , देख रही थी बेटे की चपलता और सोच रही थी , कि कैसे सुलझाए वहइन निरर्थक प्रश्नों की गुत्थीकि कैसे बताए चोली के पीछे का सच ?अचानक कुछ गुनती हुईभींच ! आलिंगन में , अपने अबोध बेटे को -" बेटा ! यही है , चोली के पीछे का सच........!"मन ही मन कहा उसने !उपरोक्त कविता प्रशंगवश यहाँ उधरित की गयी है, उल्लेखनीए है कि उपरोक्त कविता कथ्य रूप प्रकाशन इलाहवाद द्वाराप्रकाशित मेरी काव्य पुस्तिका से ली गयी है, ताकि इस वहस को मूर्तरूप दिया जा सके !

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2007

एक कतरा जिन्दगी जो रह गयी है, घोल दे सब गंदगी जो रह गयी है ।


गज़ल-


एक कतरा जिन्दगी जो रह गयी है ,
घोल दे सब गंदगी जो रह गयी है।

भीख देगा कौन तुझको, ये बताना-
तुझमें ये आवारगी जो रह गयी है ?

आंख से आँसू छलक जाते अभीतक,
इश्क में संजीदगी जो रह गयी है
चाँदनी में घूमता है रात-भर वह,
चाँद में दोशीजगी जो रह गयी है
बेवसी की बात करना छोड़ दे अब,
ख़ुदगर्ज सी ये बंदगी जो रह गयी है !
सर कलम कर मेरा, खंजर फैंक दे ,
आंख में शर्मिन्दगी जो रह गयी है
फासला 'प्रभात' से है इसलिए बस,
आपकी नाराजगी जो रह गयी है ।

() रवीन्द्र प्रभात
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बुधवार, 24 अक्तूबर 2007

बैल नही हो सकता आदमी कभी भी

एक और कविता गाँव को समर्पित --
आदमी कुत्ता हो सकता है
घोडा भी, गदहा भी
और बैल भी
लेकिन बैल-
नही हो सकता आदमी
कभी भी।
इतिहासकारों ने लिखा इतिहास
कवियों ने कविता
और आलोचकों ने की
आलोचनाएं खुलकर
विभिन्न मुद्दों पर
किन्तु-
किसी ने नही उठाई उंगली
कुत्ते की बफादारी पर
आदमी की सोचों
और घोडे की बहादुरी पर
कभी भी।
सबने कहा एक स्वर में
कि चिरंतन सत्य है यह
मृत्यु की तरह
कोई अतिश्योक्ति नहीं
और न-
शक की गुंजाइश ही ।
मगर छूट गया
एक किरदार
जिसकी नही की जा सकी चर्चा
इतिहास में/दर्शन में
कभी भी।
महरूम रखा गया
लोकोक्तियों / मुहावरों
और समालोचनाओं से आज तक
क्योंकि, ठेठ गंवई वह -
नही बैठ सका वातानुकूलित कक्ष में
कुत्ते की तरह
नही बंध सका जमींदारों/ राजाओं
महराजाओं के द्वार पर
घोडे की तरह
नही हिला सका दुम
व्यापारियों के आगे-पीछे गदहों की तरह
और आदमी की तरह
नही बन सका
आधा ग्रामीण/ आधा शहरी
कभी भी
जबकि मौजूद आज भी
उसके भीतर
कुत्ते की वफादारी / घोडे और गदहे की मजबूती
और आदमी का आत्मविश्वास
एक साथ ।
बैल-
एक दोस्त की मानिंद
देता साथ
उस किसान का
रहता हर-पल चौकस
जिसके साथ
हल चलाने/ पिराई करने
तथा पकी फसल को
मंडी पहुंचाने तक ।
समय आने पर कुत्ता-
काट सकता अपने मालिक को
गिरा सकता अपनी पीठ से घोडा भी
मुकर सकता बोझ देखकर गदहा भी
और आदमी मोड़ सकता मुँह
भार ढोने के भय से अचानक
लेकिन बैल-
न काट सकता/ न गिरा सकता /न मुकर सकता
और न भाग सकता
भार ढोने के भय से
कभी भी ।
बैल साम्प्रदायिक भी नही होता
आदमी की तरह
अपने स्वार्थ के लिए
गिराने का साहस भी नही जुटा पाता
मंदिर या मस्जिद को
नेतागीरी की मानसिकता से
कोसों दूर रहने वाला वह
विद्यमान है आज भी
गाँव के खेतों में/ दालानों में
परिश्रम करते हुए निरंतर ।
बैल नही हो सकता
कुत्ता/ घोडा /गदहा
या आदमी कभी भी
क्योंकि आलोचक
गाँव में नही
शहर में निवास करता है।
() रवीन्द्र प्रभात
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रविवार, 21 अक्तूबर 2007

वरदायनी नव देवियों का साकार रुप होती हैं ये कन्याएं , गुप्ता जी ने महसूस किया पहली वार


गुप्ता जी और उनकी धर्मपत्नी पूरे नौ दिनों तक उपवास रखकर माता दूर्गा की याचना करते और हवं के पश्चात् कन्या कुमारियों को जिमाकर हीं अन्न ग्रहण करते । गुप्ता जी स्वयं बारी-बारी से नौ कन्याओं के चरण धोते , कलावा बांधते , तिलक करते , भोग लगाकर नए से नए उपहार देते । फिर कन्जिकाओं से आशीर्वाद मांगते-देवी! हमारा कल्याण करो। वैसे गुप्ता जी के नए उपहारों की प्रतीक्षा हमारे मोहल्ले की कन्याएं पूरे छ: मास तक करती यानी चैत्र नवरात्र के बाद अश्विन नवरात्र तक फिर अश्विन नवरात्र से लेकर चैत्र नवरात्र तक। यह सिलसिला चलता रहता, मगर गुप्ता जी कल्याण होता ही नहीं । हालांकि कोई नही जन पाया अज तक कि माता दूर्गा से आख़िर मांगते क्या हैं हमारे गुप्ता जी और यह भी समझ में नही आता किसी को कि आखिर इतनी याचानाओं के बाद भी मातारानी उनपर प्रसन्न क्यों नही होती? भाई, उनकी मुरादें आख़िर क्या है ये या तो गुप्ता जी जानते हैं या फिर माँ भगवती स्वयं । लोग कहते हैं कि गुप्ता जी ने काली कमाई खूब की , भाई पेशा ही ऐसा था । एक्साईज डिपार्टमेंट में बडे बाबू । कहते हैं गुप्ता जी कि क्या करें भाई लोग जबरदस्ती थमा देते हैं , ससुरी पैसा भी ऐसी चीज है कि ना कहने का मन नही करता।
मैं नया -नया आया था विंध्याचल से स्थानांतरित होकर , ठीक से जान- पहचान भी नही हुई थी गुप्ता जी से, मगर मेरी विटिया उरवशी तबतक आस- पड़ोस की चहेती बन चुकी थी । उसकी शरारतों का किस्सा ऍम हो चला था । किसके घर में क्या पक रह है , कौन कैसा है और कहाँ-कहाँ किसके कैसे संबंध है , सबकुछ उसकी जुबानी थी । उसकी हाजीरजबाबी के कायल हो चुके थे मोहल्ले वाले ।
महानवमी को कार्यालय में अवकाश था, घर के वरामदे में बैठा चाय की चुस्कियों के साथ अखवार के फीचर में डूबा था कि अचानक किसी व्यक्ति के आने की आहात महसूस हुई । सामने देखा तो दोनों कर जोड़े दांत निपोड़े एक मायावी व्यक्ति मेरे सामने खड़ा था । मैंने कहा- '' जी आप ?" उसने कहा- '' नाचीज को महेन्द्र गुप्ता कहते हैं , आपका पड़ोसी हूँ ... । '' '' आईये-आईये - बैठिये ! बताईये कैसे अना हुआ?'' मैंने पूछा। '' बिटिया को ठीक दस वजे भेज दीजियेगा, आज कन्या पूजा है न इसलिए !'' उन्होने बड़ी मासूमियत के साथ कहा । '' अच्छा किधर रहते हैं आप?'' मैंने इतना पूछा ही था कि उर्वशी घर से बाहर निकली । मैंने कहा- '' बेटा, थोडी देर बाद चले जाना गुप्ता जी के यहाँ , जीमने बुलाबा लेकर आयें हैं..... ।'' '' इससे क्या होता है पापा?'' उसने मासूमियत भरी निगाह डालते हुए कहा । मैंने कहा-''कन्या जिमाने से माँ प्रसन्न होती है । '' इतना कहना ही था कि बिना सोचे समझे बालपन में उसने तपाक से कहा कि-'' और कन्या को गली देने से भी माँ प्रसन्न होती है?'' मैं भौचक उसे देखता ही रह गया और झून्झलाते हुए कहा कि '' ऐसे सवाल क्यों कर रही हो बेटा?'' उसने हंसते-हंसते कहा कि '' गुप्ता अंकल बहुत गंदे हैं पापा,ये अंटी को भी बात -बात में गली देते हैं और अपनी बिटिया को भी । और पापा जानते हैं गुप्ता अंकल अंटी को मरते भी हैं , मैंने अपनी आँखों से देखा है। '' अब तो गुप्ता जी के लिए काटो तो खून नही वाली स्थिति उत्पन्न हो गयी, बेचारे बोले भी तो क्या बोले... । फिर मैंने ही कहा कि '' बेटा, अंटी तो अच्छी है , ओ तो अंकल को गाली नही देती , अंटी ने तुम्हे बुलाया है चले जाना ।''
'' नही पापा,अंटी भी अच्छी नही है,मार खाती रहतीं हैं और चिल्लाती भी नही , मैं अगर अंटी की जगह पर होती तो खूब जोर-जोरसे चिल्लाती ... । '' उसने मासूमियत भरे अंदाज़ में कहा। बिटिया की सच वयानी अन्दर तक चूभ गयी गुप्ता जी को , मगर गुप्ता जी ठहरे बेहया किस्म के आदमी , गोद में बिटिया को उठाते हुए कहा कि '' बेटा! शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि '' नारी धर्म केवल पति सेवा ... । '' यह सुनने के बाद उस अवोध बच्ची की तुतली जुवान से जो तुकबंदी हुई वह किसी को भी झकझोड़ने हेतु काफी थी। बिटिया ने तपाक से कहा कि '' अंकल! क्या पुरुष धर्म केवल नारी को गली देना ?''
फिर क्या था गुप्ता जी इसकदर निरूत्तर हुए कि उनके पास कोई जवाब शेष नही था , मुँह लटकाए जाने लगे तभी बिटिया ने कहा कि ''एक शर्त पर मैं आउंगी जिमने । '' गुप्ता जी के चहरे पर एक हल्की सी लालिमा दौड़ गयी , उन्होने पूछा -'' क्या शर्त है बेटा?''
''आप अब कभी अंटी को गली नही देंगे और मारेंगे नही , यह वादा कीजिए तब ... । '' गुप्ता जी नत मस्तक हो गए बिटिया की जीद के आगे । उन्होने वादा किया और निभाया भी । आज वे मेरे सबसे अच्छे मित्रों में से हैं । अज भी गुप्ता जी यह महसूस करने से नही हिचकिचाते कि वर्दायानी नव देवियों का साकार रुप होती हैं ये कन्यायें। कहते हैं गुप्ता जी कि '' उर्वशी के द्वारा बालपन में की गयी टिप्पणियों से मुझे पहली बार आभास हुआ और वर्षों से की जा रही हमारी पूजा का प्रतिफल मिल गया उस दिन..... । ''

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2007

सचमुच कितना महत्वपूर्ण है शब्द ?

बच्चों के लिए ककहरा
नौजवानों के लिए भूख और रोटी के
बीच का संघर्ष , बूढों- बुजुर्गों के लिए -
पिछले अनुभवों का सार
और, नपुन्सकों के लिए
शक्ति का पर्याय है शब्द ।


शब्द ब्रह्म है
दार्शनिकों के लिए
राग- मल्हार संगीतज्ञों के लिए
और, कवि के लिए
क्रांति का प्रस्तावक ।


शब्द केवल शब्द नहीं
नेताओं के लिए
भाषणों एवं आश्वासनों के बीच
लटका त्रिशंकु है शब्द।

शब्द-
पत्थर तोड़ती मज़दूरनी भी है
और भार ढोता बलचनवा भी
वाराणसी की सडकों पर
अपनी त्रासदी वयां करता
मोचीराम की निगाह में
'' हर आदमी एक जोड़ी जूता ''
और शमशेर के लिए-
'' संसार के चक्के पर दो हाथ ''
शब्द ही तो है ।


शब्द प्रेमचंद की धनिया भी है
शेखर एक जीवनी भी
शब्द दिनकर भी है
और वेनीपुरी भी
शब्द जयशंकर की कामायनी भी है
और रवीन्द्र की गीतांजलि भी
शब्द ग़ालिब की ग़ज़ल है
महाश्वेता देवी का सृजन संसार
शब्द करुना भी है
शब्द है प्यार ...... ।


कितना सुखद है , और -
दुखद एक साथ
शब्दों का यह संसार
कि, एक ढहे हुए मकान के नीचे
दबे हुए मुक्तिबोध के लिए
चीख निकलना भी मुश्किल है ,
असंभव .....
हिलना भी ।


शब्द सृजन है
शब्द अगस्त्य
शब्द सिंधु- अथाह
शब्द समाजवाद है
जनवाद और प्रगतिवाद भी
वास्तव में-
कितना महत्वपूर्ण है शब्द
भाषा की रचना के लिए
तैयार होती जिससे
एक सुन्दर संस्कृति / समाज / गाँव / शहर
और एक पूरा प्रदेश........ ।


ठीक इसीप्रकार एक शब्द है
'' शुभकामना ''
जो आज दुर्गापूजा और विजय दशमी पर
मैं अपने सभी मित्रों और
शुभचिंतकों को पूरी आत्मीयता के साथ दे
रहा हूँ .... ।



बुधवार, 17 अक्तूबर 2007

आस्तिनों में संभलकर सांप पाला कीजिये !



ज़िंदगी के श्वेत पन्नों को न काला कीजिये
आस्तिनों में संभलकर सांप पाला कीजिये।

चंद शोहरत के लिए ईमान अपना बेचकर -
हादसों के साथ खुदको मत उछाला कीजिये।

रोशनी परछाईयों में क़ैद हो जाये अगर -
आत्मा के द्वार से कुछ तो उजाला कीजिये।

खोट दिल में हर किसी के पास है थोडी-बहुत
दूसरों के सर नही इलज़ाम डाला कीजिये ।

ताकती मासूम आँखें सर्द चूल्हों की तरफ ,
सो न जाये तब तलक पानी उबाला कीजिये।

जब तलक '' प्रभात'' तेरे घर की है मजबूरियाँ ,
शायरी की बात तब तक आप टाला कीजिये ।

() रवीन्द्र प्रभात
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सोमवार, 15 अक्तूबर 2007

पाचवें दिन की तमन्ना है मियाँ बेकार की ...... ।

सचमुच आतंक का कोई मजहब नही होता , न वह हिंदू होता है न मुसलमान , वह होता है तो बस इन्सान की शक्ल में हैवान । रमजान जैसे पाक माह में पवित्र दरगाह अजमेर शरीफ में विष्फोट करने वाला तथा कल ईद के मौक़े पर लुधिआना के एक सिनेमा घर में खूनी खेल खेलने वाला मेरे समझ से किसी कॉम का हो ही नही सकता । कल जब मैं दूरदर्शन के साथ-साथ सभी समाचार चैनलों पर लुधियाना के शृंगार सिनेमा हॉल में हुये विष्फोट के दारुन दृश्यों को बार-बार देख रहा था तो मेरा कवि मन बार-बार व्यथित हो रहा था , जिसकी उपज है ये चार पंक्तियां-

बेकशों की माँग है, ललकार है संसार की ,
दर्द को अगवा करो तुम रोशनी दो प्यार की।


क्या मिलेगा तुमको आख़िर मज़हवी उन्माद से ,
क्या यही बुनियाद है उस धर्म की दीवार की ?


लाख बिस्तर पर सजा लो फूल के टूकडे सही ,
अहमियत होती है फिर भी ज़िंदगी में खार की।


फंस गयी कश्ती भंवर में हो किनारा दूर जब ,
मत कहो मांझी ज़रूरत है नही पतवार की ।


चार दिन की ज़िंदगी यह चांदनी की हीं तरह
पांचवे दिन की तमन्ना है मियाँ बेकार की ।
() रवीन्द्र प्रभात









रविवार, 14 अक्तूबर 2007

काश हर हिंदू- मुसलमान हमारे रमजानी चाचा जैसा होता ...


आज ईद का त्यौहार है, जब कभी भी ईद आता है याद आ जाते हैं बरबस हमारे रमजानी चाचा जो इस दुनिया में नहीं रहे। बरसों पहले उनका इंतकाल हो गया । वैसे तो रमजानी चाचा पेशे से दर्जी थे , मगर थे हमारे पड़ोसी । टूटी-फूटी भाषा में शायरी करना उनकी फितरत में शामिल था, इंसानियत कूट-कूट कर भरी थी उनमें। कभी हमारे साथ बैठकर पूरा का पूरा हनुमान चालीसा बांच जाते तो कभी कुरान शरीफ की आयतों को बांचते हुये पाक इस्लाम की हकीकत से रूबरू करा जाते।
मैंने पहली वार अपने रमजानी चाचा से ही जाना था रमजान के पाक माह की हकीकत । कहते थे रमजानी चाचा कि रमजान के तीस दिन यानी इबादत के तीस दिन । तीन भावनाओं से मिलकर बनती है इबादत -पहला वफादारी यानी सम्पूर्ण निष्ठा , दूसरा इताअत यानी अल्लाह के द्वारा बनाए गए मार्ग पर चलना, तीसरा ताजीम यानी मालीक द्वारा बनाए गए इज़्ज़त - अदब, पेश करने के तरीकों पर अमल करना- सबकी सलामती के लिए दुआ करना। न छल न प्रपंच , न धोखा न फरेब, कुछ भी नही था उनमें । उर्दू भाषा की समझ, इस्लामी तह्ज़ीव से जुडी बातें, शायरी की इल्म और अलीफ, वे, ते, जिम , से, दाल, जाल...........का ककहारा सबकुछ उनकी गोद में लोटते हुये हीं मैंने सीखा था ।
वे अपना खाली समय मेरे घर में हीं बिताते , उनका मेरे घर में आना जाना मेरे पिताजी को अच्छा लगता था , मगर मेरी माँ को अच्छा नही लगता था । पुराने विचार हावी थे उनपर लेकिन रमजानी चाचा की अच्छी- अच्छी बातें उन्हें भी अच्छी लगती थी। मगर जब संस्कार उनपर हावी हो जाता तो चिढ़ती हुयी कहती कि मियाँ लोगों का ब्रह्मण परीवार में उठना- बैठना अच्छी बात नहीं , किसी दिन मेरे बेटे को बधिया करबा के मियाँ मत बना देना रमजानी ! यह सुनकर रमजानी चाचा खुलकर ठहाका लगाते और कहते कैसी बातें करती हो भाभी , क्या फर्क पङता है अगर हमारे दिल में अल्लाह और आपके दिल में भगवान् है? दोनों में हमेशा नोक-झोंक होते रहते मगर कभी तकरार नही होता क्योंकि माँ भी जानती थी कि हमारे रमजानी चाचा दिल के बुरे नही थे । बिना कुछ खिलाये अपने घर से नहीं जाने देती चाचा को मेरी माँ । ईद के पुर मुस्सरत मौक़े पर तो हमारे परीवार का बड़ी बेशब्री से इंतज़ार होता था रमजानी चाचा के यहाँ और होली में पूरे गाजे-बाजे के साथ शरीक होते थे जोगीरा गाते हुये रमजानी चाचा।
अनेक संस्मरण जूड़े है हमारे रमजानी चाचा के साथ, लेकिन आज यहाँ एक बात कहना उचित होगा कि हमारे रमजानी चाचा का इंतकाल ईद के हीं दिन बारह वर्ष पहले हुआ था , इसलिये आज के दिन मैं याद करताहूं अपने रमजानी चाचा को और सोचता हूँ कि काश! आज के साम्प्रदायिक युग में हर हिंदू- मुसलमान हमारे रमजानी चाचा के जैसा हो जाता तो दुनिया की तस्वीर ही बदल जाती ।
जब रमजानी चाचा हमेशा के लिए खामोश हुये तो मैंने उनकी स्मृति में एक कविता लिखी थी , दस- बारह साल गुज़र जाने के बाद भी यह कविता प्रासंगिक है या नही आप स्वयं निर्णय करें-

।। रमजानी चाचा।।

जहाँ शांति के उपदेशक
सत्य- अहिंसा में आस्था रखना छोड़ दिए हो
जहाँ की ज़म्हूरियत
खानदानी वसीयत का पर्चा बन गयी हो
जहाँ का सीपहसालार
कर गया हो सरकारी खज़ाना
सगे- संबंधियों के नाम
जहाँ संसद के केन्द्रीय कक्ष में
व्हीस्की के पैग के साथ
हो रही हो रामराज्य पर व्यापक चर्चा
जहाँ चंद सिक्कों पर
बसर करती हो हकीकत
और दाद के काबिल
नहीं समझी जाती हो कविता
वहां, देश- कल पर चर्चा करना
फ़िज़ूल है रमजानी चाचा !

जहाँ मसलों से पूरी तरह
ग्रस्त हो आम- आदमी
जहाँ चलने- फिरने - बोलने पर
लग चुका हो प्रतिबंध
जहाँ साहूकार का बेटा
नित नई मज़दूरनी के साथ
पगार बढ़ाने के एवज़ में
बुझा रहा हो अपनी हबस की आग
दो- जून की रोटी के लिए
बिक जाती हो प्रेमचंद की ''धनिया''
और कोई नही सुनाता हो ''होरी'' का चीत्कार
वहां कौन सुनेगा तुम्हारी बात
तुम्हारे समय की........ ।

बेहतर है-
चुप्पी ही साधे रहो रमजानी चाचा !
देखो न आने लगी आहट
अलगाववाद की
अपने भी गाँव में
बदल रहा यह गाँव बड़ी तेज़ी से
शहरी संस्कृति के नाम पर ।
कल तेरा ये-
प्यार से पुचकारना भी
फ़िज़ूल हो जाएगा रमजानी चाचा !


और हम-
मेरठ/ अलीगढ़/भागलपुर/सीतामढी
की तरह वंचित हो जायेंगे
ईद की सेबई से
और तुम होली के रंग से चाचा !

कल हमारा भी गाँव
शहर में तब्दील हो जाएगा
और तुम खामोश देखते चले जाओगे
बदलती हुई पीढी-दर-पीढी को ..... ।
() रवीन्द्र प्रभात

शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

असुरता और देवत्व के सम्मिश्रण से बना है मनुष्य

आजकल हर तरफ धूम है नवरात्रि की । अन्य हिंदू परिवारों की तरह मेरे भी परिवार में नवरात्रि में उपवास रखकर व्रत करने की परम्परा है। उपवास की इस परम्परा में ऊत्साहवश बच्चे भी शामिल हो जाते हैं, मगर मेरी सबसे छोटी बिटिया उर्वशी कभी भी शामिल नही होती । है तो मात्र दस वर्ष की मगर शरारत बडों जैसी । उसकी हमेशा से ये आदत रही है कि वह किसी न किसी वहाने अपने से बडों के या फिर अपनी सखी- सहेलियों के उपवास तुड़वा देती । शरारती, जिद्दी, नास्तिक कुछ भी कह लें उसे कोई फर्क नही पङता। कल देवी के नौ रूपों की अराधना का पहला दिन था, कलश स्थापना कराई जा रही थी । मैं किसी न किसी वहाने उसे अपने पास बुलाने का यत्न करता और वह भागने की कोशिश करती । कहती नौ दिनों तक आप लोग मेरा साथ देंगे नही और मुझे अपने लिए खुद खाना बनाना होगा , इसलिये किचेन में पूरी व्यवस्था रहनी चाहिए ....... । वैसे मैं भी सांस्कृतिक - मर्यादा की आड़ में अपने बच्चों को जबरदस्ती शामिल करने का पक्षधर नही रहा हूँ, किन्तु यह कोशिश अवश्य रहती है कि मेरे बच्चों में संस्कार जीवित रहे।
चुलबुली, शरारती और उत्पाती प्रवृति के बावजूद उसके भीतर एक सबसे अच्छा गुण है तो वह है हर छोटी से छोटी बातों को ग्रहण करने की क्षमता। इसलिये जब भी अवसर प्राप्त होता मैं उसे मन की पवीत्रता का एहसास कराता , ताकी ज़िंदा रह सके उसकी सात्विक भावनाएं। कल अचानक उसने मुझसे प्रश्न किया कि, पापा! यह बताईये कि नवरात्रि में उपवास रखकर व्रत क्यों किया जाता है?
मैं जानता था कि उसे समझाने के लिए तर्क संगत बातें करनी होगी, नही तो फिर साक्षात महामाया से सामना करना पड़ सकता है । मैंने कहा कि बेटा! असुरता और देवत्व के सम्मिश्रण से मनुष्य बना है , इसलिये मनुष्य में दोनों हीं प्रवृतियां विद्यमान रहती है। दोनों के बीच संघर्ष चलता रहता है। कभी असुरता उभरती है तो कभी देवत्व ऊपर उठाना चाहता है । दोनों में वर्चस्व स्थापित करने के लिए प्रतिद्वंदिता ठनी रहती है , इसी का नाम है देवासुर संग्राम। इस संग्राम में जो हारता है उसका जीवन निरर्थक चला जाता है और जो जीतता है उसे जीवन की सार्थकता का एहसास होता है। गर्व और गौरव का अनुभव होता है।
'' तो इसका मतलब हुआ पापा! कि दसहरा भी देवासुर संग्राम का ही एक रुप है? '' उसने पलटकर प्रश्न किया। मैंने बात बनते देख मुस्करा कर कहा- हाँ! फिर वह कुछ देर तक मौन रही और मेरे बगल में बैठते हुये धीरे से कहा '' पापा! सचमुच हमारे मन में संग्राम होता रहता है ?'' '' हाँ बेटा! असुर यानी बुराई और देवत्व यानी अच्छाई के बीच .... । '' मैंने धीरे से कहा। '' तो इसका मतलब है पापा, कि पूजा करने से देवत्व जीत जाता है ?'' उसने बड़ी मासूमियत से पूछा । मैंने कहा- हाँ!उसकी खुशी का ठीकाना नही था , वह खुश थी कि सारी बातें उसके जेहन में आ चुकी थी और मैं संतोष का अनुभव कररहा था तो इसलिये कि मेरी सारी बातें उसके समझ में आ गयी और देर से ही सही उसे बोध हो गया कि व्रत मन की पवित्रता को बनाए रखने के लिए ही रखा जाता है ।

रविवार, 7 अक्तूबर 2007

दिल है कि मानता नहीं .....!

हमारे एक मित्र हैं हरिश्चन्द्र शर्मा जी , कोई उन्हें गांधी, कवीर, विनोवा कहकर सम्मान देता है तो कोई नटवर लाल ,चार्ल्स शोभ राज की संज्ञा से नवाजता है । कभी उन्हें सम्मान स्वरूप फूलों के हार प्राप्त होते तो कभी जूतों के । वकौल शर्मा जी , ऐसा इसलिये होता कि वे सच बोलते हैं । यथा नाम तथो गुणः । अब बताईये जब सारी दुनिया इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर मशीनी ज़िंदगी जीने को मज़बूर है तो उन्हें सतयुग का हरिश्चन्द्र बने रहने की क्या ज़रूरत ? कौन समझाए उनको, वो तो बस एक ही बात कहेंगे - दिल है कि मानता नहीं !
कई बार उन्हें समझाने की कोशिश भी की , कि भाई शर्मा जी, ज़माना बदल गया है । हर चीज मशीनी हो गयी है , यहाँ तक कि भावनाएं भी । तपेदिक हो गया है सच को, कल्पनायें लूली-लंगडी हो गयी है , मर गयी है मानवीयता और दफन हो गयी है भावनाएं । भावनाओं की कब्र पर उग आये हैं घास छल- प्रपंच और बईमानी के , ऎसी स्थिति में सच से परहेज़ क्यों नहीं करते ? उनका बस एक हीं जबाब होता - दिल है कि मानता नहीं ।
भाई कैसा दिल है शर्मा जी के पास आज तक मैं नहीं समझ पाया । हालांकि शर्मा जी यह महसूस अवश्य करते हैंकि आजकल सबकुछ उलटा- पुल्टा हो गया है जसपाल भट्टी के व्यंग्य की मानिंद। आजकल अपाहिज खेलते हैं , गूंगे कॉमेंट्री करते हैं , अंधे तमाशावीन होते हैं और चयन समिति में होती है हिजडों की टोलियाँ ऐसे में हमारी- आपकी सच्चाई उसी प्रकार है जैसे चांदी की थाली में गोबर । मगर शर्मा जी का दिल है कि मानता नहीं । शर्मा जी यह भी महसूस करते हैं कि हादसों के पांव नही होते और न उसके आने की आहट हीं महसूस होती है , मगर आदमी को सतर्क ज़रूर रहना चाहिए । क्योंकि सतर्कता गयी दुर्घटना हुई । अफशोश तो यह है कि ऎसी सुन्दर- सुन्दर वातें करने वाले हमारे शर्मा जी हर दूसरे-तीसरे दिन सच बोलने के कारण किसी न किसी हादसे की चपेट में अवश्य आ जाते हैं । एक बार कॉलेज के कुछ मनचलों को राह चलते गांधी- दर्शन का पाठ पढाने के चक्कर में शर्मा जी ने अपने हाथ- पैर टूडवा लिए । जब अस्पताल में मैं इनसे मिलने गया और यह हिदायत दीं कि इसप्रकार राह चलते गांधी गिरी न किया करें । उन्होंने कराहते हुये कहा कि- यार दिल है कि मानता नहीं ।
न कोई दिखावा, न बनावटीपन फिर भी अक्सर हमारे शर्मा जी बन जाते पगले और बाजी हाथ लग जाती अगले को । पिछले दो अक्टूबर को ऐसा हीं हुआ शर्मा जी के साथ । उन्हें एक संस्था ने गांधी जयंती पर मुख्य अतिथि बनाया । जब शर्मा जी ने गाँधी बाबा की तारीफ़ में कशीदे काढ़ने शुरू किए कि तालिओं की गड़गड़ाहट से अचानक झूम उठा उनका मन । हौसला बढ़ता गया, बढ़ता ही चला गया और बढ़ते- बढ़ते पहूंच गया सातवें आसमान पर। शर्मा जी इतने उताबले हो गये कि उन्हे याद ही नही रहा कि गाँधी दर्शन पर व्याख्यान देने आएँ हैं या नाथु राम गॉदसे पर . बस क्या, जैसे ही चर्चा के क्रम में भारत - पाकिस्तान के बटवारे का ज़िक्र आया लगे ख़री- खोटी सुनाने गाँधीवादियों को. देने लगे ताने पर ताने . भाई साहब आप माने या ना माने मगर यह सच है कि अहिंसा के पक्षधर गाँधीवादियों ने उनकी ऐसी धुनाई की कि बत्तीसी बाहर हो गयी. बेचारे शर्मा जी सिविल अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में कराहते हुए दिन गुज़ारने लगे . मैने पूछा भाई शर्मा जी, यह बताओ आप गाँधीवादी हो, समाजवादी हो, कम्युनिष्ट हो या फिर भाजपाई क्या हो भाई ? शर्मा जी ने कहा यही तो रोना है कि मैं सत्यवादी हूँ और इस देश में सतयवादियों की कोई पार्टी नहीं . मैने चुटकी ली कि यार जब सत्यवादी बनने में इतना बड़ा रिश्क है तो कोई और वादी क्यों नही बन जाते? शर्मा जी शर्माते हुए बोले- दिल है कि मानता नहीं !
आज सुबह -सुबह यह जानकारी मिली कि बेचारे शर्मा जी की नौकरी चली गयी। मैं हतप्रभ रह गया यह सुनकर।भागा-भागा आया शर्मा जी के पास तो उन्हे परेशान- हाल देखकर मुझे समझते देर न लगी कि फिर कुछ गड़बड़ किया होगा शर्मा जी ने।शर्मा जी बेचारे ख़ामोश थे, मैने जब उनकी ख़ामोशी तोड़ी तो उन्होने बताया कि, हुआ यों कि हमारे शर्मा जी के कार्यालय में कुछ लोगों ने पदोन्नत्ति पाई, जिसके एवज़ में एक पार्टी रखी गयी थी, हमारे शर्मा जी को भी बुलाया गया था। सभी को बारी-बारी से अपनी बात कहनी थी और बधाई देनी थी सहयोगिओं को । जब शर्मा जी की बारी आई तो आदत से मजबूर सतयवादी शर्मा जीअपने सत्य वचन कुछ इसप्रकार रखे-
'' मैने अपने अनुभव के आधार पर जो महसूस किया है वह यह है कि अब पदोन्नति के लिएयोग्यता नही जूगाड़ की ज़रूरत होती है. जूगाड़ नही तो पदोन्नति नही . पदोन्नति प्राप्त करने वालों की पाँच श्रेणियाँ होती है. कभी-कभी तो एक ही व्यक्ति इन पाँचो श्रेणियों में शामिल होता है और दो-तीन-चार-पाँच पद पदोन्नत हो जाता है यानी अल्लाह मेहरवान तो गदहा पहलवान. ऐसे लोगों को मेरी बधाइयाँ ! लोगों की जिग्यासा बढ़ती गयी, सामने बैठे बॉस ने भी गुज़ारीश की किशर्मा जी जारी रखें अपना व्याख्यान .... फूल कर बरसाती मेंधक हो गये हमारे शर्मा जी और चुतौती दे डाली पदोन्नति देने वाले अधिकारियों की योग्यता को हीं. लोगों ने फूलाना शुरू किया और फूलते चले गये हमारे शर्मा जी , बरसाती मेंधक की मानींद तरटाराते हुए गिनाने लगे पदोन्नति के पाँच सूत्र---

() पहला सूत्र- बने रहो पगले, काम करे अगले
() दूसरा सूत्र- बने रहो फूल, सैलरी पाओ फूल
() तीसरा सूत्र- यदि काम का लोगे टेंसन तो फ़ैमीली पाएगी पेंसन
() चौथा सूत्र- काम करो या न करो, काम की फिकर ज़रूर
() पाँचवाँ सूत्र- काम की फिकर करो या न करो मगर बॉस से जिकर ज़रूर करो ...! इसप्रकार सफलता के इन पाँच सूत्रों कोआपनाओ, पदोन्नति पाओ और बॉस के साथ- साथ आगे बढ़ते चले जाओ । ''
शर्मा जी के वक्तव्य से जहाँ गाल फूल गये उनके सहयोगियों के वही खीज़ गये अपने चयन की चुनौती देने वाले शर्मा जी से उनके बॉस भी। सच्चाई को पचाने का किसी ने नही दिखाया साहस, न सहयोगियों ने और न बॉस ने, हमारे सत्यवादी हरीशचंद्र ने खोल कर रख दिए बड़े ढोल में बड़ी पॉल और बजा लिया अपना ही बाजा । अब कौन समझाए शर्मा जी को। मुझे मेरेमित्र पर ग़ूस्सा भी आ रहा था और तरस भी । मगर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत। मैने फिर हिम्मत करकेशर्मा जी से पूछा, अजी शर्मा जी ! ऐसा क्यों किया आपने? उन्होने अपनी पीड़ा छुपाते हुए भारी मन से कहा- दिल है मानता नही! सत्य बोलने का ख़ामियाज़ा भले ही शर्मा जी को बार-बार भुगतना पड़ा हो मगर शर्मा जी ठहरे जीवट वाले आदमी, कहतेहैं प्राण जाए पर सत्य वचन न जाए ! अब हम करुणानिधी थोड़े न हैं कि भगवान राम को पियक्कर कहें। मैने कहा चुप रहो शर्मा जी , कोई करुणानिधी का समर्थक सुनेगा तो फिर कोई मुसीबत खड़ी हो जाएगी। वैसे हमें गर्व है अपने शर्मा जी परजो आज के इस गंदे माहौल में भी सच्चाई का दामन नही छोड़ा।
कहते हैं शर्मा जी, कि आत्म ग़ौरव से बढ़कर कुछ भी नही होताक्योंकि जो आत्म ग़ौरव के साथ नही जीता , उसका जीवन जीवन नही होता !
शर्मा जी की पीड़ा महसूस कर मेरे होठों से फुट पड़े ये शब्द- दिल है कि मानता नही! कोई उगल देता है तो कोई निगल जाता है ।

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2007

कौन करता है यकीं इस गांधी के उपदेश में ?



विश्व अहिंसा दिवस पर विशेष -

मसलों से ग्रस्त है जब आदमी इस देश में ,
किस
बात की चर्चा करें आज के परिवेश में ?

कल तक जो पोषक थे, आज शोषक बन गए-
कौन करता है यकीं इस गांधी के उपदेश में ?

माहौल को अशांत कर शांति का उपदेश दे,
घूमते हैं चोर - डाकू साधुओं के वेश में ।

कोशिशें कर ऎसी जिससे शांति का उद्घोष हो ,
हर तरफ अमनों-अमां हो गांधी के इस देश में ।

है कोई वक्तव्य जो पैगाम दे सद्भावना का ,
बस यही है हठ छिपा '' प्रभात'' के संदेश में ।

() रवीन्द्र प्रभात

 
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