कागज़ की कश्ती
कागज़ की कश्तियाँ
वह अधूरे सपने
जो एक मज़ाक -
एक खेल की उपज होते है -
ज़रा सी धचक से बह जाते है -
बच्चों का वह खेल
जिससे अनायास ही -
बड़े जुड़ जाते हैं -
.....बस यूहीं ही...!!!!
मुग़ालते
अच्छा लगता है मुगालतों में जीना
उन एहसासों के लिए
जो आज भी धरोहर बन
महफूज़ हैं कहीं भीतर -
उन लम्हों के लिए
जो छूट गए थे गिरफ्त से ...
जिए जाने से महरूम ...
लेकिन आज भी
उतनी ही ख़ुशी देते हैं !
उन यादों के लिए
जो आज भी जीता रखे हैं
उन अंशों को
जो चेहरे पर उभर आयी मुस्कराहट
का सबब बन जाते हैं ...
हाँ ...मुग़ालते अच्छे होते हैं ...!!!!!
समंदर
देखे हैं कई समंदर
यादों के -
प्यार के -
दुखों के -
रेत के -
और सामने दहाड़ता-
यह लहरों का समंदर !
हर लहर दूसरे पर हावी
पहले के अस्तित्व को मिटाती हुई...
इन समन्दरों से डर लगता है मुझे .
जो अथाह है
वह डरावना क्यों हो जाता है ?
अथाह प्यार-
अथाह दुःख-
अथाह अपनापन-
अथाह शिकायतें.......
इनमें डूबते ..उतराते -
सांस लेने की कोशिश करते -
सतह पर हाथ पैर मारते
रह जाते हैं हम -
और यह सारे समंदर
जैसे लीलने को तैयार
हावी होते रहते हैं .
और हम बेबस, थके हुए लाचार से
छोड़ देते हैं हर कोशिश
उबरने की
और तै करने देते हैं
समन्दरों को ही
हमारा हश्र.....!!
() सरस दरबारी
बहुत उत्कृष्ट कवितायेँ .. जीवन स्वयं एक समंदर है .
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावमय रचना बधाई। मेरे ब्लॉग www.santam sukhaya.blogspot.com पर आपका स्वागत।
जवाब देंहटाएंwww.santam sukhaya blogspot.com
जवाब देंहटाएंभाव पूर्ण रचनाएं , सभी एक से एक बढ़ कर !
जवाब देंहटाएं