आलेख: डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
हिंदी
साहित्येतिहास में कवि महेंद्रभटनागर की पहचान प्रगतिशील काव्य-धारा और गीति-रचना
के अन्तर्गत स्पष्ट बन चुकी है। वे एक स्थापित कवि हैं —
स्वातंत्र्योत्तर
हिंदी कविता के यशस्वी हस्ताक्षर। उन्हें प्रगतिवादी काव्य-धारा के द्वितीय उत्थान
का केन्द्रीय कवि माना जाता है। सन् 1946
के आसपास उन्होंने ‘हंस’
में
लिखना प्रारम्भ किया। ‘हंस’
से
उन्हें प्रगतिशील कविता की पहचान मिली। ‘हंस’
एवं
अन्य तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में वे प्रमुखता से प्रकाशित हुए। यथा —‘जनवाणी’,
‘रक्ताभ’,
‘नया साहित्य’,
‘नया पथ’,
‘जनयुग’ आदि
तमाम पत्र-पत्रिकाओं में। महेंद्रभटनागर की प्रांजल काव्य-सृष्टि ने तत्कालीन
लब्ध-प्रतिष्ठ कवियों और समालोचकों का ध्यान आकृष्ट किया। उनकी काव्य-सृष्टि के
विविध पक्षों पर पर्याप्त विमर्श हुआ है; जो
अनेक सम्पादित आलोचना-कृतियों में उपलब्ध है। हिंदी के कवि और आलोचकों ने
महेंद्रभटनागर की कविता पर जो विचार व मन्तव्य प्रकट किये वे विचारोत्तेजक हैं।
इनसे उनकी लोकप्रियता का बोध ही नहीं होता;
वे
गहन व विस्तृत परीक्षण के लिए भी अन्वेषकों और प्रबुद्ध पाठकों को उकसाते हैं।
कतिपय कवियों-आलोचकों की धारणाओं को यहाँ उद्धृत करना आवश्यक है।
महेंद्रभटनागर
की प्रथम काव्य-कृति ‘टूटती
शृंखलाएँ’ सन्
1949 में
प्रकाशित हुई। इस कृति पर यशस्वी कवि डा. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
का
कथन महत्त्व रखता है। ‘सुमन’
जी
ने लिखा:
‘‘युग
की अस्त-व्यस्त मानसिक दशा तथा अप्रतिहत संघर्ष की जागरूक वाणी के उन्मेषशील स्वर
इसकी झंकार में समाहित हैं। महेंद्रभटनागर की आतुर निर्भीक व्यंजना तथा कलात्मक
गढ़न, प्रगतिशील काव्य
के स्वर्णिम भविष्य की ओर संकेत करती है। कवि में जन-संस्कृति के नव-निर्माण की जो
अदम्य आस्था है, वह
उसके स्वर को और सबल तथा साधनापरक बनाती है। हिंदी के वर्तमान कवियों में उसने सहज
ही गौरवपूर्ण स्थान बना लिया है। युग की वाणी उसके कंठ में ढलकर जन-जीवन के
अश्रु-हास की सजीव गाथा बन गयी है। ‘टूटती
शृंखलाएँ’ संक्रमण-युग
के युगान्तरकारी काव्य की भूमिका बनकर आयी है और निःसंदेह भावी समाज के अधिकांश
भावात्मक उपकरण उसमें अंकुर रूप में देखे जा सकते हैं।’’
‘टूटती
शृंखलाएँ’ पर
लिखित श्री. गजानन माधव मुक्तिबोध की समीक्षा भी अपने में विशिष्ट है;
जिसमें
उनके कविता-कर्म को सप्तक-कवियों के समकक्ष रखने की ध्वनि निहित है:
‘‘तरुण
कवि वर्तमान युग के कष्ट, अंधकार,
बाधाएँ,
संघर्ष,
प्रेरणा
और विश्वास लेकर जन्मा है। उसके अनुरूप उसकी काव्य-शैली भी आधुनिक है। इस तरह वह ‘तार-सप्तक’
के
कवियों की परम्परा में आता है; जिन्होंने
सर्वप्रथम हिन्दी-काव्य की छायावादी प्रणाली को त्याग कर नवीन भावधारा के साथ-साथ
नवीन अभिव्यक्ति शैली को स्वीकृत किया है। इस शैली की यह विशेषता है कि नवीन
विषयों को लेने के साथ-साथ नवीन उपकरणों को और नवीन उपमाओं को भी लिया जाता है तथा
काव्य को हमारे यथार्थ जीवन से संबंधित कर दिया जाता है। इसे हम वस्तुवादी
मनोवैज्ञानिक काव्य कह सकते हैं। इस अत्याधुनिक के समीप और उसका भाग बनकर रहते हुए
भी कवि की अभिव्यक्ति शैली में दुरूहता नहीं आ पायी। भाषा में रवानी,
मुक्त
छंदों का गीतात्मक वेग और अभिव्यक्ति की सरलता,
काव्य-शास्त्रीय
शब्दावली में कहा जाय तो माधुर्य और प्रसाद गुण महेन्द्रभटनागर की उत्तरकालीन
कविताओं की विशेषता है। किन्तु सबसे बड़ी बात यह है,
जो
उन्हें पिटे-पिटाये रोमाण्टिक काव्य-पथ से अलग करती है और ‘तार-सप्तक’
के
कवियों से जा मिलाती है वह यह है कि अत्याधुनिक भावधारा के साथ टेकनीक और
अभिव्यक्ति की दृष्टि से उनका उत्तरकालीन काव्य Modernistic
या अत्याधुनिकतावादी हो जाता है। उसका प्रभाव हृदय पर स्थायी रूप से पड़ जाता है।
श्री महेन्द्र भटनागर वर्तमान युग-चेतना की उपज हैं।’’
सन्
1953 में
महेंद्रभटनागर की अन्य काव्य-कृति ‘बदलता
युग’ प्रकाश में आयी;
जिसकी
भूमिका प्रोफ़ेसर प्रकाशचंद्र गुप्त ने लिखी। इस कृति को लक्ष्य करते हुए डा. रामविलास
शर्मा ने अपना अति महत्त्वपूर्ण अभिमत अंकित किया:
कवि
महेन्द्रभटनागर की सरल, सीधी
ईमानदारी और सचाई पाठक को बरबस अपनी तरफ़ खींच लेती है। प्रयोग के लिए प्रयोग न
करके, अपने
को धोखा न देकर और संसार से उदासीन होकर संसार को ठगने की कोशिश न करके इस तरुण कवि
ने अपनी समूची पीढ़ी को ललकारा है कि जनता के साथ खड़े होकर नयी ज़िन्दगी के लिए अपनी
आवाज़ बुलन्द करे।
महेन्द्रभटनागर
की रचनाओं में तरुण और उत्साही युवकों का आशावाद है,
उनमें
नौजवानों का असमंजस और परिस्थितियों से कुचले हुए हृदय का अवसाद भी है। इसी लिए
कविताओं की सचाई इतनी आकर्षक है। यह कवि एक समूची पीढ़ी का प्रतिनिधि है जो बाधाओं
और विपत्तियों से लड़कर भविष्य की ओर जाने वाले राजमार्ग का निर्माण कर रहा है।
महेन्द्रभटनागर
की कविता सामयिकता में डूबी हुई है। वह एक ऐसी जागरूक सहृदयता का परिचय देते हैं
जो अशिव और असुन्दर के दर्शन से सिहर उठती है तो जीवन की नयी कोंपलें फूटते देख कर
उल्लसित भी हो उठती है।
कवि
के पास अपने भावों के लिये शब्द हैं, छंद
हैं, अलंकार हैं। उसके
विकास की दिशा यथार्थ जीवन का चितेरा बनने की ओर है। साम्प्रदायिक द्वेष,
शासक
वर्ग के दमन, जनता
के शोक और क्षोभ के बीच सुन पड़ने वाली कवि की इस वाणी का स्वागत —
‘जो
गिरती दीवारों पर नूतन जग का सृजन करे
वह जनवाणी
है !
वह युगवाणी है !
‘नयी
चेतना’ (प्रकाशन
सन् 1956) और
‘जिजीविषा’
(प्रकाशन सन् 1960)
महेंद्रभटनागर
की प्रमुख प्रगतिवादी काव्य-रचनाएँ हैं। प्रगतिशील कविता का अध्ययन इन कृतियों के
विवेचन बिना अपूर्ण है।
आधुनिक
साहित्य के विशिष्ट अध्येता विद्वान प्रो. सुरेंद्र चौधरी ने महेंद्रभटनागर की
कविता के प्रति जिस तुलनात्मक दृष्टि को उजागर किया;
वह
विशेष रूप से द्रष्टव्य है:
‘‘वर्त्तवाल
और महेंद्रभटनागर एक ही दशक के दो महत्त्वपूर्ण कवि हुए। इसी समय उर्दू में
प्रसिद्ध प्रोग्रेसिव शायर साहिर भी उभरे। इनका मिला-जुला अध्ययन काफ़ी रोचक रहेगा।
यह लोक-व्यापी आन्दोलन, अपने
समय का सबसे गतिशील अभिव्यक्ति था।’’
खेद
है, सुरेंद्र चौधरी जी
के निधन के कारण, महेंद्रभटनागर
की कविता पर जो वे लिखना चाहते थे;
वह
पूर्ण नहीं कर सके। उनके विचार प्रकाश में नहीं आ सके। लेकिन वे महेंद्रभटनागर की
कविता के अध्ययन व मूल्यांकन के प्रति एक विशेष दृष्टि ज़रूर दे गये;
जिस
पर समुचित अन्वेषण अपेक्षित है।
महेंद्रभटनागर
ने अंगरेज़ी में जो काव्य-रचना की है (उनकी पर्याप्त कविताएँ अंगरेज़ी में अनूदित भी
हैं।); उस
पर भी बहुत-कुछ लिखा गया है; जो
कई ज़िल्दों में प्रकाशित है। डा. विद्यानिवास मिश्र ने उनकी कृति ‘Forty
Poems’ (प्रकाशन
सन् 1968) की
भूमिका में जो लिखा वह यहाँ अविकल रूप में उद्धृत है:
"The thing which strikes foremost is the
note of blazing optimism coming out of these poems, be they songs of love,
songs of future of man or songs of the advent of a new era ushered in by the
common man all over the world. Though unfortunately I cannot share this
optimism, I am deeply moved by the vigour with which it has been projected by
the poet. Mahendra Bhatnagar is Browning, Shelley and Maykovsky welded into
one, he is a visionary, he is a comrade-in-arms and he is an architect. His ‘Man
fired with faith divine moves on’ because he is firm in his conviction that
‘one day the heart-rose shall bloom in the midst of impediments galore.’ He
seeks strength from ‘the firmament’ which ‘has changed its colour’ and from the
wind’ which is always ‘humming a tune’, from the ‘gracious mother earth’ which
is blessing man with a life - ‘long and happy’.
He sings of youth in a new vein, youth for him is not a
passing phase, it is something ‘which endures’. To him woman no more bears
‘frailty’ as her other name, she is no longer ‘a source of pleasure and
pastime’. In this emancipated woman he has found a companion. He is ‘never
alone’, ‘the resurgent age is with him’, the future is driving him on. These
are a few pieces which reflect the inner struggle between this optimism and
disillusionment, but they are subdued by the dominating voice of hope. Such a sincere
optimism is a rare quality and deserves full applause; more so, when we have
the perspective of a sad and sick man of today.
The poet has a very sensitive ear for cadences
and knows how to use them. His diction is chaste though racy, transparent and
yet colourful, his imagery drawn partly from common-place of life and partly from
poetic conventions, is simple and effective, it is not pretentious, as the so
called modern imagery is and is the most suited instrument for the content.
I envy the impetuosity of Mahendra
Bhatnagar and at the same time I admire his patience (‘the wall won’t
collapse’) and his courage. If at times he is carried away by his creed, it
only shows his zeal and not his weakness. If at times, he looks utterly lost in
'the masses idea', it only shows his devotion to the cause and not his lack
of personality. If at times he turns a
romantic visionary, it is an indicator of his fiery youth and not of his
blindness to reality."
कहना
न होगा, महेंद्रभटनागर
की कविता ने काव्य-मर्मज्ञों का ध्यान निरन्तर आकर्षित किया है।
लब्ध-प्रतिष्ठ
जनवादी आलोचक डा. शिवकुमार मिश्र ने अपना मत इन शब्दों में अंकित किया:
‘‘महेंद्रभटनागर
की कविता की, शुरूआती
दौर से ही, यह
विशेषता रही है कि कविताओं में भोगे और अर्जित किये हुए अनुभव-संवेदनों को ही
उन्होंने तरज़ीह दी है। किताबी, आयातित
या उधार लिया हुआ, उसमें
लगभग कुछ भी नहीं है, न
रहा है। इसी नाते उनकी अभिव्यक्ति विश्वसनीय भी है और सहज तथा प्रकृत भी।
प्रगतिशील आन्दोलन के शुरूआती दौर में जो उफ़ान और आवेग,
जो
Loudness
कविता
में थी, उनकी
कविता में उसकी अनुगूँजें नहीं आयीं। न तो वे
पहले Loud
थे और न ही आज हैं। रचनाधर्मी प्रयोग भी
उसमें नहीं हैं। वह सीधी और सहज कविता है,
फिर
भी सपाट और सतही नहीं। चूँकि वह अनुभव-प्रसूत है अतएव उसमें शिल्प के बजाय बात
बोली है — सारगर्भित
बात, जिसे किसी भंगिमा
की दरकार नहीं, जो
अपने कथ्य और उससे जुड़ी संवेदना के बल पर पढ़ने वाले के दिल-दिमाग़ में उतर जाती है।
उसकी विशेषता उसकी प्रशांति तथा प्रांजलता है। कुल मिलाकर,
महेंद्रभटनागर
की कविता धरती और जीवन के प्रति अकुंठ राग की कविता है। वह मानव-जिजीविषा की कविता
है, जो मरना नहीं
जानती।’’
जब
कि डा. रवि रंजन (केन्द्रीय विश्वविद्यालय,
हैदराबाद)
ने रेखांकित किया:
महेंद्रभटनागर
लगभग बीसवीं सदी के मध्य से ही हिंदी काव्य-परिदृश्य पर अपनी रचनात्मक शक्ति एवं
सीमा के साथ कमोबेश चर्चा में रहे हैं। ... अन्तर्वस्तु की दृष्टि से महेंद्रभटनागर
की कविताएँ वैविध्य पूर्ण हैं। उनमें यथास्थिति के विरुद्ध गहरा आक्रोश मौजूद है।
तटस्थता की ऐयाशी के बजाय वहाँ एक ख़ास क़िस्म की रचनात्मक बेचैनी मिलती है,
जिसके
तहत कवि अपने समय और सामाजिक जीवन की वास्तविकताओं को —
उसके
दिनानुदिन तीव्रतर होते जा रहे अन्तर्विरोधों एवं संघर्ष को वाणी देता रहा है। इस
दरमयान हर कविता का अपने परिवेश के तमाम अन्तर्विरोधों एवं संघर्षों से पूर्ण
सामंजस्य स्थापित हो गया हो, यह
ज़रूरी नहीं है, पर
महेंद्रभटनागर के रचना-संसार पर मुकम्मल तौर से नज़र दौड़ाने पर उनके अन्तःकरण के व्यापक
आयतन का पता चलता है, जिसे
कतई भुलाया या झुठलाया नहीं जा सकता। ... जहाँ तक उनकी काव्य-भाषा का ताल्लुक है,
हम
पाते हैं कि कवि ने संस्कृत और अंगरेज़ी के तमाम आरोपित प्रभावों से मुक्त करके
उसके सरल और देसी रूप को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। दूसरे शब्दों में
कहें तो बोलचाल का लहज़ा एवं व्यवहार ही वस्तुतः उनकी कविताओं की भाषिक संरचना का
एकमात्र आधार है। इसके चलते यदि उनकी काव्य-भाषा तत्सम से तद्भव की ओर उन्मुख हुई
है, तो यह स्वाभाविक
ही है। कारण यह है कि तद्भवीकरण हिंदी के मिज़ाज में है,
जो
इसके जनभाषा होने का सबूत भी है। सच तो यह है कि
उनकी कविता में रचना-विशेष की
नैसर्गिक आकांक्षा के अनुरूप विविध
भाषिक प्रयोगों के नमूने मिलते हैं और यह एक कवि की अनुभूति की व्यापकता एवं गहराई
का परिचायक है। ... समग्रतः यह कहा सकता है कि महेंद्रभटनागर की कविता बीसवीं
शताब्दी के उत्तरार्द्ध की तमाम प्रगतिशील सांस्कृतिक चिंतन सरणियों एवं कलात्मक
तकनीकों का वरण करने के बावज़ूद आदि से अंत तक कविता बनी रहती है,
कोरा
भावोच्छ्वास या नारा नहीं। ... उसकी कविता में एक संवेदनशील कवि की वैचारिकता
एवं विचारक की संवेदनशीलता के बीच उत्पन्न
सर्जनात्मक तनाव विद्यमान है। .. विष्णु नागर की एक काव्य-पंक्ति उधार लेकर कहें
तो कवि महेंद्रभटनागर की कविता ऐसी ‘अच्छी
कविता’ है,
जो
न केवल ‘सबसे
अच्छे दिनों में याद आएगी’, बल्कि
वह ‘सबसे बुरे दिनों
में भी पहचानी जाएगी।’
डा.
देवराज (मणिपुर विश्वविद्यालय) ने महेंद्रभटनागर की कविता के मर्म को समझा है और
उनकी विचार-धारा का सही विश्लेषण किया है:
‘‘प्रगतिवादी-जनवादी
कविता के यशस्वी हस्ताक्षर हैं — महेंद्रभटनागर।
उनका काव्य-रचना-कर्म सन् 1941
से प्रारम्भ हुआ; जो
अनवरत रूप से गतिमान है। महेंद्रभटनागर ने कम लिखा;
किन्तु
जितना लिखा विशिष्ट व उत्कृष्ट लिखा। परिमाण में उनकी कविताएँ लगभग एक-हज़ार होंगी;
जो
उनके बीस काव्य-संकलनों में समाविष्ट हैं।
महेंद्रभटनागर
की विचारधारा वाम है; किन्तु
वह आरोपित नहीं। वह जीवन-अनुभवों की उपज है। समाजार्थिक यथार्थ उनका प्रमुख सरोकार
है; किन्तु
व्यक्ति-यथार्थ की अभिव्यक्ति भी उन्होंने निःसंकोच की है;
जिसमें
उल्लास है तो दर्द भी। गहन वेदना के नीले तन्तु से उनके काव्य के आवेष्टित होने के
फलस्वरूप उन्हें ‘जीवन-त्रासदी
का कवि’
भी
घोषित किया गया है।
महेंद्रभटनागर
व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर हैं। नये इंसान की अवतारणा के लिए सतत
प्रयत्नरत। उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए प्रतिबद्ध। यही कारण है,
गौतम
बुद्ध, महात्मा
गांधी और विवेकानन्द के वैयक्तिक आचरण से वे अत्यधिक प्रभावित हैं। स्वतंत्र
चिन्तन उन्हें किसी ‘वाद’
में
बँधने नहीं देता।
महेंद्र
जी की काव्य-कला-सौष्ठव संबंधी विशेषताएँ हैं: प्रसन्न-प्रांजल अभिव्यक्ति,
सहज
भाषा-प्रवाह, अभिनव
मात्रिक छंदों व प्रचलित चिर-पहचानी तुकों (आन्तरिक भी) से सज्ज,
लय
व संगीति धर्मी प्रभावी गूँजों-अनुगूँजों से परिपूर्ण।’’
द्वि-भाषिक कवि (
हिन्दी और अंग्रेज़ी) महेंद्रभटनागर की काव्य-विशेषताएँ सूत्र रूप में प्रस्तुत
हैं:
‘‘सन्
1941 के लगभग
अंत से काव्य-रचना आरम्भ। तब कवि (पन्द्रह-वर्षीय ) ‘विक्टोरिया
कॉलेज, ग्वालियर’
में
इंटरमीडिएट (प्रथम वर्ष) का छात्र था। सम्भवतः प्रथम कविता ‘सुख-दुख’
है;
जो
वार्षिक पत्रिका ‘विक्टोरिया
कॉलेज मेगज़ीन’ के
किसी अंक में छपी थी। वस्तुतः प्रथम प्रकाशित कविता ‘हुंकार’
है;
जो
‘विशाल भारत’
(कलकत्ता) के मार्च 1944
के अंक में प्रकाशित हुई।
लगभग छह-वर्ष की काव्य-रचना का
परिप्रेक्ष्य स्वतंत्राता-पूर्व भारत; शेष
स्वातंत्रयोत्तर।
हिन्दी की तत्कालीन तीनों
काव्य-धाराओं से सम्पृक्त — राष्ट्रीय
काव्य-धारा, उत्तर
छायावादी गीति-काव्य, प्रगतिवादी
कविता।
समाजार्थिक-राजनीतिक-राष्ट्रीय
चेतना-सम्पन्न रचनाकार।
सन् 1946
से प्रगतिवादी काव्यान्दोलन से सक्रिय रूप से सम्बद्ध । ‘हंस’
(बनारस / इलाहाबाद) में कविताओं का प्रकाशन।
तदुपरांत अन्य जनवादी-वाम पत्रिकाओं में भी। प्रगतिशील हिन्दी कविता के द्वितीय
उत्थान के चर्चित हस्ताक्षर।
सन् 1949
से काव्य-कृतियों का क्रमशः प्रकाशन।
प्रगतिशील मानवतावादी कवि के रूप
में प्रतिष्ठित।
समाजार्थिक यथार्थ के अतिरिक्त अन्य
प्रमुख काव्य-विषय –— प्रेम,
प्रकृति,
जीवन-दर्शन।
दर्द की गहन अनुभूतियों के समान्तर
जीवन और जगत के प्रति आस्थावान कवि। अदम्य जिजीविषा एवं आशा-विश्वास के
अद्भुत-अकम्प स्वरों के सर्जक।
काव्य-शिल्प के प्रति विशेष रूप से
जागरूक।
छंदबद्ध और मुक्त-छंद दोनों में
काव्य-सृष्टि। छंद-मुक्त गद्यात्मक कविता अत्यल्प। मुक्त-छंद की रचनाएँ भी मात्रिक
छंदों से अनुशासित।
काव्य-भाषा में तत्सम शब्दों के
अतिरिक्त तद्भव व देशज शब्दों एवं अरबी-फ़ारसी (उर्दू),
अंग्रेज़ी
आदि के प्रचलित शब्दों का प्रचुर प्रयोग।
सर्वत्र प्रांजल अभिव्यक्ति।
लक्षणा-व्यंजना भी दुरूह नहीं। सहज काव्य के पुरस्कर्ता। सीमित प्रसंग-गर्भत्व।
विचारों-भावों को प्रधानता।
कविता की अन्तर्वस्तु के प्रति सजग।’’
महेंद्रभटनागर-विरचित समाजार्थिक यथार्थ की कविताओं से उनके
सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों को समझा जा सकता है। आशा है,
सुधी
समीक्षक महेंद्रभटनागर की कविता का मूल्यांकन
कवि-विकास और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर करेंगे।
रीडर : हिंदी-विभाग, डॉ. शकुन्तला मिश्रा पुनर्वास
विश्वविद्यालय,
लखनऊ (उ. प्र.)