आजकल मैं इतने अधिक सरकारी चिकित्सा दौरों पर रहने लगा हूं कि सब मेरा जिक्र करने में फख्र महसूस करने लग गए हैं। वी आर एस लेने के बाद मेरी बढ़ी सक्रियता देखकर सब ओम हरिओम गुंजायमान करने को तत्पर हैं। स्वाहा की पूर्णाहति अब ओम ने हथिया ली है। मेरे सभी दौरे किसी एक विशेष अस्पताल की सीमा में बंधकर हेपिटाइटिस सी की सक्रियता की कहानी कह रहे हैं और कितने ही लोग इसमें कविता की विशेष विन्यास की उत्पत्ति माने बैठे चर्चाओं में मशगूल हैं। माना कि मानव जीवन का यह लीवर रोग प्राणघातक रोग बनकर कब्जा जमाए बैठा था पर एक के बाद एक चार बार लगाकर अपने लीवर से संघर्ष में विजयी मैं कितने ही साथियों की ईषर्या का कारण बन कर विराजमान हूं।
वह रोग ही क्या, जो अपने चरम पर स्थापित होने के लिए किसी का अवलंबन न ले पर मेरे शरीर पर और न लीवर पर किसी का काबू चल सका है और नतीजा आपके सामने है कि मैं पूरे जोशो खरोश के साथ फिर से अपने जयघोष पर निकल पड़ा हूं। जिसमें सारा सोशल मीडिया मेरा साथ दे रहा है। मुझे कुछ माह में हेपिटाइटिस सी घसीट कर कोमा में ले जाता है जिसके परिणामस्वरूप मैं न बाथरूम से बाहर निकल पाता हूं क्योंकि मैं भीतर से न तो दरवाजा खोल पाता हूं । कारण संज्ञाशून्य होकर मैं पानी के नलके पर से तो काबू खो देता हूं तो फिर बाथरूम के दरवाजे पर काबू कैसे भला कर पाऊं। जबकि अब तलक मैं तकनीक के हर वार का पुरजोर आवाज के साथ मुकाबला कर रहा था। अब मैं तकनीक के सामने खुद को लाचार पाता हूं और चाहता हूं कि लोटा लेकर दिशा भर्मण में संलग्न हो जाऊं। दिशा मैदान भी इसी को कहा जाता है पर क्या करूं कि मजबूर हूं जबकि मैं जानता हूं कि आज जंगल शहरों में कहां रह गए है और न उनमें भेडि़ए, भालू, चीते, शेर का आतंक है पर तकनीक का आतंक इन सबसे उपर है और मेरे तकनीक के महारथी के सिर पर चढ़कर भौंक रहा है।
हेपिटाइटिस सी का यह आतंक अभी कोमा तक ही सिमटा हुआ है और उससे आगे बढ़कर अर्द्धविराम या पूर्णविराम तक नहीं पहुच पाया है, तो इसलिए मैं आतंकित नहीं हूं। और आतंक से मैं घबराने वाला इसलिए नहीं हूं क्योंकि तकनीक का जादू जिस दिन मेरे सिर पर सवार हो जाएगा, उस दिन मैं अपने सगे संबंधियों, फेसबुक मित्रो, सोशल मीडिया एक्टिविस्ट साथियों के कंधे पर बैठकर अपनी अंतिम सफर की तैयारियों में जुटा हुआ होऊंगा। इसलिए भय मुझे लगता नहीं है और जिस पर मेरा वश नहीं है, उससे क्यों डरूं मैं। श्मशान घाट पर जीवन का अंतिम संस्कार होता है और यही वह स्टेशन है जहां पर मरने के बाद टिकट कटा है। जिसका टिकट कट चुका है वह भला गर्दन कटने से क्यों डरे। इससे आगे का रास्ता हरिद्वार के गंगाजल, इलाहाबाद या गया के जल में प्रवाहित होकर शरीर आत्मा के साथ मुक्ति को प्राप्त होता है। जहां पर चिरस्थायी शांति मौजूद है और मेरा मन और शरीर मुझे शोरगुल में साथ रखना अधिक पसंद करता है। मेरे पसंदीदा स्थान रेलमार्ग, वायुमार्ग, बस टर्मिनस, चौराहे हैं और मेरी किस्मत में अभी और बहुत से दुख प्रकाशित हो रखे हैं, उन सबका मैं सम्मान करता हूं। सिर्फ देखने भर से दुख कहां मोरा मन चैन पावै, उसे तो उन्हें उनके अन्यतम स्वरूप में सहना है। मेरे जीवन का यह गहना है।
दुख और गहना एक साथ सुनकर हैरान मत होइए, मेरा जीवट बहुत मजबूत है और उन्हीं पक्के इरादों के बूते मैं आप सबको सावधान कर रहा हूं। वैसे भी मैं मरने से तो रहा क्योंकि मेरे कई अग्रज, समकालीन, छोटे आयुवर्ग के इन रास्तों पर ढोल बजाते हुए चले जा रहे हैं और मैं इन सबका साक्षी रहे वर्तमान हूं। वैसे भी मैं मरने से डरता नहीं हूं। जीवन की अदम्य लालसा या जीवन की अभिलाषा मेरे भीतर अपनी पूरी शक्ति से धधक रही है। बस सिर्फ उसकी नीली लौ बाहर दिखाई नहीं पड़ती है जिसके कारण सब मुझे हिम्मती मान बैठे हैं। एक ऐसा हिम्मती जो मरने से कभी नहीं डरता है। मेरी एक कविता में मैंने लिखा है कि
डर डर कर नहीं मरूंगा मैं
मर मरकर नहीं मरूंगा मैं
उस जीवन पथ का अजेय सिपाही हूं मैं
मरना है सिर्फ एक बार
बार बार नहीं मरूंगा मैं।
है किसमें इतना दम कि मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे मुझसे ही छीनकर ले जा सके। इसलिए हर बार मैं मृत्यु से भिड़ने के लिए अपनी चौखट से बाहर निकल आता हूं। मानो अमरबेल हाथ में पकड़े मृत्यु की वैतरणी पार कर रहा हूं। जहां से एक बार डूबने पर तैर कर आना कठिन जरूर है पर असंभव नहीं। इसलिए हर बार बच जाता हूं मैं, भय मुझे नहीं लगता। डरती है स्वयं मौत मुझसे जो बैलों पर सवार होकर आई है। सबके साथ गतिशील हूं मैं।
- अविनाश वाचस्पति
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