मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है,
जिसकी प्रेमिका मेज़ पर पड़ा ग्लोब घुमाती है

तो वो भूकंप के डर से
बाहर खुले मैदान नहीं है...
बाहर लालची जेबें हैं लोगों की
जेब में ज़बान है और मुंह में पिस्तौलें...
गाड़ियों का बहुत सारा शोर है
जैसे पूरा शहर कोई मौत का कुंआ है...
मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है
जो शहर में अपनी पहचान बताने से डरता है
और गांव में अब कोई पहचानता नहीं है....
सिर्फ इसीलिए बचा हुआ है वह आदमी
कि नहीं हुए धमाके समय पर इस साल...
कि कुछ दिन और मिले प्यार करने को...
कुछ दिन और भूख सताएगी अभी...
उसने हाथ से ही उखाड़ लिया है
दाईं ओर का आखिरी दुखता दांत
सही समय पर दफ्तर पहुंचना मजबूरी है
और दानव डाक्टर की फीस से बचना भी ज़रूरी है....
दुखे तो दुखे थोड़ी देर आत्मा...
बहे तो बहे थोड़ी देर खून....
अपरिचित नहीं है ख़ून का रंग
अभी कल ही तो कूदा था एक स्टंटमैन
पंद्रह हज़ार करोड़ में बने एक मॉल से...
और उसकी लाश ही वापस आई थी ज़मीन पर...
पंद्रह हज़ार के गद्दे बिछे होते ज़मीन पर
तो एक स्टंटमैन बचाया जा सकता था...
मगर छोड़िए, इस बेतुकी बहस को
शिल्प बिगड़ने का ख़तरा है...
तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में

लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
जिसका अर्थ किसी हिंदू हिटलर की मूंछ है....
और उसके दांतों से वही महफूज़ है...
और पीछे एक वफादार पूंछ है...
डरा हुआ आदमी सड़क पर देखता सब है
कह पाता कुछ भी नहीं शोर में
भीतर बैठे कुत्ते ने काट खाया हाथ
ख़ूब समझते हैं एलिट कुत्ते
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोश में
गांव सिर्फ इसीलिए सुरक्षित है
कि वहां अब भी लाल बत्ती नहीं है
दरअसल उस डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
ख़ाली हो रहे हैं दिन-हफ्ते
और भरे जाने का फरेब है...
एक डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
उस आदिवासी औरत के पेट में
पल रहे बच्चे का पहला रुदन है...
जो गांव की सब ज़मीन बेचकर
उबड़-खाबड़ रास्तों से लाया गया
शहर के इमरजेंसी वार्ड में
जिसने एक बोझिल जन्म लेकर आंखे खोलीं
उस डरे हुए आदमी के दरवाज़े पर
हर घड़ी दस्तक देता बुरा समय है
जो दरवाज़ा खुलते ही पूछेगा
उसी भाषा, गांव और जाति का नाम
फिर छीन लेगा पोटली में बंधा चूरा-सत्तू
और गोलियों से छलनी कर देगा...
इस बुरे समय की सबसे अच्छी बात ये है कि
सुंदर कविता लिखना चाहता है...

गहरा रही है उदासी
अब बस सो जाना चाहती हूँ...
और फूटें गुलाबी कोंपलें इन ठूँठों पर....
और बुझा लूँ मैं प्यास,मोती खोजते खोजते....
जिस रोज आसमां कुछ नीचा हो जाय
और चूम सकूँ मैं चाँद का चेहरा....
गर मैं छू सकूँ तारे, बस हाथ बढ़ा कर
और तोड़ कर सारे बिखरा दूँ आँगन में अपने..
जाने क्यूँ इन दिनों हरसिंगार भी झरता नहीं.....
कई बार .... नहीं नहीं अधिकतर - कविता सवाल लिए सामने शून्य में लिखी होती है और हम उसे कलम की निब पर पकड़ लेते हैं ...
तथाकथित बौद्धिकों को भी...
भावों के परिचय के बाद मध्यांतर लेने से पहले चलते हैं वटवृक्ष की ओर जहां हिनांशु पाण्डेय उपस्थित हैं अपनी एक कविता लेकर ...यहाँ किलिक करें