नैनं छिदंति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः 
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषियती मारुतः .... और जब हर आज की ताबीर इमरोज़ हो तो अमृता दिल्ली,पंजाब .... कहाँ नहीं ! एक कलम की इबारत सी अमृता कई कलमों की इबादत बन गई ... इस इबादत की नज़्म सी अंजू अनन्या आज हमारे बीच हैं -

नदी बन कर
बहती रही...
My Photoअपने ही किनारों
को लिया खोर,
इस बहाव में... 
और
बन गई
अथाह समन्दर...
जहॉ, 
ना किनारे हैं 
ना नदी, 
है तो,बस 
विस्तृत 
फैला अस्तित्व.. 
गहराई में जिसकी 
छिपे हैं खज़ाने, 
तुम्हारे 
अनमोल 
अस्तित्व के.....
जब भी चाहा
तुम्हे पढ़ना ,
पढ़ पाई
दो ही वर्क ..
तीसरा पन्ना 
पलटते ही ...
अक्सर , आ जाती तुम 
और बतियाने लगती मुझसे ...
मैं उतर जाती
तुम्हारी बातों में इतना ...
कि , लुप्त हो जाता
फासला ....
समंदर और किनारे का
और मैं ,
बह जाती उन नीली
निश्छल जलतरंगों में .....
अब
जब चली गयी हो तुम
तब खुला है ये भेद
मुझ पर ...कि
क्यूँ नही पलट पाती थी
मैं , वो तीसरा पन्ना .....
क्यूंकि , तुम
चाहती थी
उसे खुद पढना ...
तभी तो
एक ही सांस में
उतर गई हो तुम
मेरे भीतर ....
और मैं ....
सुन रही हूँ ..
तुम्हें
तुम्हारे भीतर से ........!! 
तुम क्या थी
क्या हो मेरे लिए
आज जाना ,
जब बह रहा है
आँखों से
एक दरिया
आंसूओं का
और तुम
हो गई हो इतनी
व्यापक .....
कि
हर आँसू
तेरे होने का एहसास है
हर सांस
तेरी ख़ामोशी की आवाज़ है ...
और "तू " मेरी
जन्म जन्म की प्यास है .....
शायद ,यही तो
कृष्ण ,मीरा के
प्रेम का आधार है .......

ये रचना ,(31/10 /2005)को सुबह 8 बजे बरबस ही कागज़ पर उतर गई ,जैसे ही मैंने रेडियो पर खबर सुनी ......मैं  समझ ही नही पाई कि ये क्या हो गया ....उन दिनों मै चंडीगढ़ A.I.R. में प्रोग्राम दे रही थी ....सोच रही थी अमृता जी से बात करने ,उसे ऑन एयर प्रसारित करने की.....पर ऐसा नही हुआ ...... रूह तक झकझोर दिया इस खबर ने ....और ये मातम तब तक बना रहा ......जब तक इमरोज़ जी से मिलना नही हुआ .....ये क्या था ...?क्यूँ हुआ ....?और आज भी उसके प्रति मन इतना विचलित क्यूँ है ,नही जानती ......पर मानती हूँ कुछ तो होगा .....रूह का खिंचाव यूँ ही तो नही होता .......कोई कर्मों का ,जन्मों का हिसाब  जरूर होगा ....ये तो वही जानता है......बस जो लिखा ,समर्पित कर दिया उसे......इमरोज़ जी को ......आज आप सब के लिए रख रही हूँ .....बिना किसी लाग लपेट के .....
भाव है ......निस्वार्थ नदी से .....बहते है बिना किसी अपेक्षा के ......बन्धनों से परे.....जब उमड़ते हैं ....तो रुकते कहाँ हैं .....!!!!!!!!!!!!! 

अंजू अनन्या की इन रचनाओं के बाद आइये आज के कार्यक्रम को संपन्न करने हेतु चलते हैं वटवृक्ष की ओर, जहां प्रवीण पाण्डेय उपस्थित हैं अपनी एक प्रेम कविता लेकर : कोई हो

6 comments:

  1. दी ! क्या कहूँ .......आभार कहना भी कम है यहाँ .....कोर गीले हैं ...उसकी कमी का एहसास इतना नम है की कोई हवा कोई धूप उसे नही सुखा पाई ...और ये नमी जड़ों को और गहरा ले जाती है हर बार ....उसके ज़िक्र भर से ......

    इस इबादत को आपने महसूस किया ..ये आपकी अनमोल शक्ति है ...जिसे सादर प्रणाम ...

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  2. हालाँकि मैं अमृता-इमरोज के सम्बन्ध में ज्यादा तो नहीं जानता लेकिन इतना सुना है इनके बारे में कि जानने की इच्छा जरूर होती है |
    अमृता का बखूबी इजहार करती कवितायें |

    सादर

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  3. रूह का खिंचाव यूँ ही तो नही होता .......कोई कर्मों का ,जन्मों का हिसाब जरूर होगा ....ये तो वही जानता है......

    सभी रचना दिल को छूती हुई .... !!

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  4. बहुत सुंदर !
    सच है! रूह का रूह से बंधन कुछ ऐसा ही होता है...
    ~सादर !!!

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