आशीर्वचनों से बढ़कर कुछ नहीं .... इनको सहेजना ही जीवन को कल्पवृक्ष बनाते हैं ... और परिकल्पना को देते हैं पंख,
ॐ
हे प्रभावती ' रश्मिप्रभा '
' परिकल्पना ' ने मुझे कल्पना के पंख लगा कर
एक ऐसे दीव्याकाश में ला खड़ा कर दिया है कि
मैं आश्चर्य चकित सी अपना नाम इन तमाम रचनाकारों के संग देख
हतप्रभ हूँ ..
ख़ास तौर से आदरणीया सुभद्रा कुमारी चौहान
एवं पूज्य भगवती चरण वर्मा चाचाजी के बीच
मेरी छवि देखकर असमंजस में हूँ ...अब और क्या लिखूं ?
यह आपका स्नेह पूर्ण अपनापन जीवन के अंतिम क्षण तक याद रहेगा
और अपनी स्वयं की कविता न देकर
शिष्ट सौम्यता का जो अनोखा रंग अछूता रखा है
उस पर बलिहारी जाऊं :-)
अभी इतना ही बहुत सारा स्नेह
व् आशिष सहित
- लावण्या दी
दी, क्या कहूँ...मेरी रचनाओं की भूमिका में आ० महादेवी वर्मा की कविता...आँखें छलक गईं आपका स्नेह पाकर...थैंक्स कह देने से काम चले तो थैंक्स और क्या बोलूँ|
देर से जवाब देने के लिए खेद है...आज स्कूल से आते वक्त हाथों में बहुत जोर से चोट लग गई थी , काफी दर्द था इसलिए सो गई थी...अभी नेट पर आई तो देखा...यह मेरे लिए किसी सरप्राइज़ से कम नहीं था|
अभिभूत हूँ मैं ..
आप के द्वारा रचना को साझा किये जाने के बाद कई और दोस्त मिले हैं मुझे
यह स्नेह बना रहे ,,बस
आभार
आप के द्वारा रचना को साझा किये जाने के बाद कई और दोस्त मिले हैं मुझे
यह स्नेह बना रहे ,,बस
आभार
वंदना ग्रोवर
परिकल्पना नए वर्ष की अर्थभरी हवाओं का पैगाम देता है और लेता है ...
आज इस चरण पर मैं चर्चा करुँगी कवि सुधीर गुप्ता और उनकी रचनाओं का ... सुधीर गुप्ता (कवि सुधीर गुप्ता “चक्र”) की रचनाओं से गुजरते हुए मैंने जाना कि पारंपरिक संस्कारों की आंच,उस आंच के मद्धम होने की वेदना उनकी रचनाओं से झलकती है . तथाकथित बुद्धिजीवी गौर करें या ना करें,पर संस्कारों से परिमार्जित वर्ग हर रचना को सराहेगा .... गौर करें =
लंबा मौन | कवि सुधीर गुप्ता “चक्र”
लंबे समय तक
मौन
निश्चित विनाश का संकेत है
कभी भी
चढ सकता है
आंतकियों के मस्तिष्क में
कट्टरपंथी
सेंक सकते हैं रोटियाँ
तुम्हारे-हमारे बीच
शांत इलाकों में
कभी भी
लग सकता है कर्फ्यू
अनगिनत लाशों के
ठेकेदार हो सकते हैं
उन लाशों के
खुदा के बंदों को
बनाकर मोहरा
चलते हैं शकुनि चालें
और
हँसते हैं कुटिल हँसी
जेम्स वाट ने
रेल का इंजन बनाया
और
एडीसन ने
असफलता से
सफलता पाकर
बल्ब का आविष्कार किया
कट्टरपंथी मजहबी लोग भी तो
आविष्कार ही करते हैं
एक बम से
अधिक से अधिक
कितने लोग मर सकते हैं|
अंधेरा
बंद सांकल को घूरता है
और
करता है प्रतीक्षा
आगंतुक की
द्वार भी
सहमे हुए से
चुपचाप
सुनसान अंधेरे में
ध्वनि
तालाब में फेंकी
कंकडी के घेरे सा
विस्तार ले गई
अनंत को ताकता
शून्य
चेहरे की सलवटें
कम करने की कोशिश में व्यस्त है
अंधेरे में पडते
पदचाप
स्पष्ट गिने जा सकते हैं
सांकल का स्पर्श
और
बंद दरवाजों को धक्का देकर
आगे बढ़ते पदचाप
अंधेरे सूनेपन को
खत्म करने का
प्रयास कर चुके हैं
आधी रात को
इतने अंधेरे में
न जाने
कौन आया होगा
जानता होगा अंधेरा
प्रतीक्षा तो
उसने ही की है
अंधेरा
चालाक है
तिलिस्मी है
नहीं है कोई आकृति उसकी
फिर भी
टटोल-टटोलकर
बढ़ता है आगे
उस छोर की ओर
जिसका
कोई पता नहीं
क्योंकि
इसके विस्तार का क्या पता
और
वैसे भी
तय किए गए फासले से
दूरी का पता नहीं चलता
क्योंकि
अंधेरे को
स्पर्श ही नाप सकता है
शोषण करता हुआ अंधेरा
पराक्रमी होने का ढिंढोरा पीटता है
..... ? ? ? ?
अरे!
क्या हुआ?
क्यों सिकुड़ने लगे
जानता हूँ
नहीं स्वीकारोगे तुम अपनी हार
भोर जो होने वाली है।
नदी दुःखी है
सागर में समाने के बाद
बुरी तरह
फंस चुकी है
समुद्र के जाल में
खो चुकी है
स्वयं का अस्तित्व
उसके किनारे
और
हलचल
समुद्र की हिलोरों में
कर चुकी है वह समर्पण
नदी को चलना ही होगा
समुद्र के प्रवाह के साथ
क्योंकि
एक पूरी नदी
खाली हो चुकी है समुद्र में
और
पूरी तरह
समुद्र थोप चुका है
नदी पर अपनी इच्छाएं
और अब
नदी को भी हो चुका है
समुद्र में समाने की
अपनी गलती का अहसास
नदी का
समुद्र में समाना तो
एक सदियों पुरानी परंपरा है
नदी को
स्त्री के रूप में
समुद्र के आगे
झुकना ही होगा
तो भी ठीक था
लेकिन
शर्त कोई नहीं
बस
कट्टरपंथी समुद्र के आगे
केवल और केवल
समझौता ही करना है
समझ नहीं आता
नदी का समुद्र में समाना
एक हादसा था
या
नदी की आत्महत्या
फिर भी
मुझे लगता है
समुद्र में समाने के बाद
नदी को महसूस नहीं किया जा सकता
न ही
सुनी जा सकती हैं उसकी सिसकियाँ
इसलिए
यह आत्महत्या ही है।
परिकल्पना उत्सव मुझे प्रतिभाओं के करीब लाता है और मैं स्वप्न में भी इनके साथ उत्सवी रचनाओं का संवाद करती हूँ ..... अब मैं आपको ले चलती हैं परिकल्पना ब्लोगोत्सव पर जहां वरिष्ठ ब्लॉगर और हिन्दी के समर्पित साहित्यकार महेंद्र भटनागर उपस्थित हैं और उनसे बातचीत कर रहे हैं डॉ आदित्य प्रचंडिया ......यहाँ किलिक करें
बहुत सूक्ष्म अवलोकन चल रहा है।
जवाब देंहटाएंउम्दा लिंक्स ..
जवाब देंहटाएंनदी को महसूस नहीं किया जा सकता
जवाब देंहटाएंन ही
सुनी जा सकती हैं उसकी सिसकियाँ
इसलिए
यह आत्महत्या ही है।
आत्महत्या ही तो है।
रश्मि जी !आपके चुने हुए नगीने कोहिनूर हैं !!
आप सिर्फ सरप्राइजेज़ ही देते रहोगे दीः)
जवाब देंहटाएंसमुद्र में समाने के बाद
नदी को महसूस नहीं किया जा सकता
न ही
सुनी जा सकती हैं उसकी सिसकियाँ
इसलिए
यह आत्महत्या ही है।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!
बहुत उत्कृष्ट रचनाओं को पढ़ने का अवसर...आभार
जवाब देंहटाएंसमुद्र में समाने के बाद
जवाब देंहटाएंनदी को महसूस नहीं किया जा सकता
न ही
सुनी जा सकती हैं उसकी सिसकियाँ
इसलिए
यह आत्महत्या ही है।
वाह .....और सिर्फ .... वाह !!!
सुधीर जी की रचनाएं वाकई बहुत सुन्दर हैं और उतने ही सुन्दर हैं ऊपर दिए हुए धन्यवाद ज्ञापन |
जवाब देंहटाएंसादर
मुझे लगता है
जवाब देंहटाएंसमुद्र में समाने के बाद
नदी को महसूस नहीं किया जा सकता
न ही
सुनी जा सकती हैं उसकी सिसकियाँ
इसलिए
यह आत्महत्या ही है।
इन पंक्तियों की गहनता एवं अभिव्यक्ति का चयन दोनो ही सराहनीय हैं ...
"कवि सम्मेलन "
जवाब देंहटाएं---------------------
आज मंच ले चढ़ी होली
कवि कविता सुनाने आये
होली का हुड़दंग चारो ओर
कवि - कवियित्री गाने धाये
एक मात्र कवियित्री देख के
उसे देख बौराते ही जाएँ
नशे में बुत्त था कवि एक
मुँह काला करवाकर आये
रस श्रृंगार भरा कवि ने
कवियित्री जुल्फ, झूम मचाये
गोर गाल गोल लोल देख
अपनी रचना वह भूल गया
हास्य का दूजा कवि आया
खूब हंसाना वह चाहा
हंसी -फँसी का चक्क्रर देख
जाल फ़ेंक फसाना चाहा
तीसरा रस व्यंग के कवि भी
तिरछी नजरों से देख रहा था
कारे कजरा की पलकों के
नजर नैन में उलझा था
घड़ियाली आंसू लेकर
करूण रस के कवि आये !
टूट रहा दिल मेरा अब
गोरी को खूब सुनाये
बार बार यही कह कह वे
नैनों से आंसू टपकाये |
वीर रस का कवि खड़ा देख
गोरी का गाल लाल हुआ !
लाल गाल की आभा देख
गला पहाड़ चिल्लाय लिया |
रौद्र रस का जब कवि आया
श्रोता सारे घबराय गये
सम्मलेन को छोड़ बीच में
आधे घर को भाग गये
देर बहुत हो चुकी थी पर
कवियित्री की बारी आयी
हाथ जोड़कर वह बोली
सम्मानित संयोजक कविभाई!
सुन सम्बोधन भाई की
कवियों में छाई ठंढाई
लहरात सागर संयोजक में
गुस्सा भरकर धाय गया
बिना लिफाफा के कवि सारे
होलियाना गीत सुनाय गया ||
- sukhmangal singh