हिंदी साहित्य का वर्तमान दिग्गजों से भरा है - बस नज़र घुमाने की देर है और अपनी हिंदी के साथ सुदूर यात्रा करने की ललक ...... लायी हूँ दूसरे महारथी को, जिनके शब्द,जिनकी वाणी,जिनकी ख़ामोशी संस्कारों की लकीरों को अर्थ देती है . ये है बिहार के गौरव सलिल वर्मा - जो 'चला बिहारी ब्लॉगर बनने' से जाने जाते हैं . मैं इनके पूरे व्यक्तित्व की गरिमा से प्रभावित हूँ तो स्वाभाविक है कि गहन व्यक्तित्व का गहन अध्ययन अति प्रभावशाली होगा . समीक्षा की दूसरी कड़ी का आनंद लीजिये और पुस्तक पढने की इच्छा को बलवती कीजिये -
“स्मृतियों में रूस” भले ही शिखा वार्ष्णेय की स्मृतियों का दस्तावेज़ हो, लेकिन पिछली पीढ़ी के हर भारतीय की स्मृतियों में बसता है. पूर्व विदेश मंत्री श्री वी. के. कृष्णमेनन जब रूस गए थे तो वहाँ से इंदिरा के लिए रूसी गुड़िया लेकर आए थे. रूसी सर्कस के लचीले कलाकार आज भी अपने प्लास्टिक और रबर सरीखे शरीर के लिए याद किये जाते हैं. रूस में राज कपूर और नरगिस की यादें भी इतनी प्रगाढ़ थीं कि जब प्रसिद्द अंतरिक्ष यात्री यूरी गैगारीन पहली बार राज कपूर से मिला, तो हाथ मिलाते हुए बोला, “आवारा हूँ!”
जब संबंधों की ऐसी गहराई हो, तो एक १६-१७ वर्ष की युवती के लिए विद्यालायोपरांत स्नातकोत्तर स्तर तक की पढाई का समय विस्मृत करना संभव नहीं. पाँच वर्ष की एक लंबी अवधि, एक नवयुवा मन से, एक व्यस्क नागरिक बनने तक के रूपांतरण का काल है. एक ऐसा काल, जिसमें भविष्य आकार ग्रहण करता है, जीवन के प्रति धारणाएं स्पष्ट होती जाती हैं, स्वावलंबन सुदृढ़ होता है और एक व्यक्तित्व का निर्माण होता है. ऐसे संक्रमण काल में, जब सम्पूर्ण जीवन शारीरिक, मानसिक और सामाजिक तौर पर बदल रहा हो, वे घटनाएँ जो इस निर्माण में सहायक होती हैं, पत्थर पर लकीर की तरह होती हैं. ऐसी ही छवि को नाम दिया है शिखा वार्ष्णेय ने “स्मृतियों में रूस”.
शिखा वार्ष्णेय से हमारा परिचय एक संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त लेखिका के रूप में है. वे कवितायें भी लिखती हैं, लेकिन उसे मात्र उनकी अभिव्यक्ति का हिस्सा माना जा सकता है. पत्रकारिता की विद्यार्थी होने के कारण, उनके आलेखों पर इसकी छाप आसानी से देखी जा सकती है. हाँ, इस पुस्तक की भाषा और अभिव्यक्ति में यह प्रभाव बहुत कम दिखाई देता है. मेरे विचार में इसके दो कारण हो सकते हैं. पहला, इस पुस्तक के अंकुर उनके मस्तिष्क के पत्रकार की मिट्टी में अंकुरित नहीं हुए हैं और दूसरा, यह संस्मरण एक पत्रकार के हैं ही नहीं.
कुल पचहत्तर पृष्ठ की यह पुस्तक, छोटे-छोटे अध्यायों में विभाजित है, जिनमें आलेखों के बीच वहाँ के श्वेत-श्याम छाया-चित्र भी संकलित हैं. उनके ब्लॉग “स्पंदन” पर इसके अंश प्रकाशित होते रहे हैं, संभवतः इसी कारण कई अध्याय मात्र एक या दो पृष्ठ के भी हैं. शिखा जी ने जिस प्रकार घटनाओं का वर्णन किया है, वह इतना जीवंत है कि पाठक स्वयं को उन घटनाओं का पात्र या उस समाज का हिस्सा मान लेता है. विदेश का आकर्षण किस प्रकार वास्तविकता के कठोर आघात से टूटता है या एक नया आकार ग्रहण करता है, इसका वर्णन बहुत ही ईमानदारी से किया गया है. लेखिका ने यह समझाने का भरसक प्रयत्न किया है कि दूर के ढोल हमेशा सुहावने लगते हैं, जबकि सचाई उसके सर्वथा विपरीत होती है. किन्तु इसके पीछे उनका उद्देश्य किसी को हतोत्साहित करना नहीं, अपितु यह बताना है कि सफल वही होता है जो इन विपरीत परिस्थितियों में आनंद के पल खोज लेता है और हिम्मत नहीं हारता. भाषा, भोजन, सामाजिक मान्यताएं, बदलते आर्थिक वातावरण, जनता का चरित्र, सरकार का रवैया, शिक्षकों की मानसिकता, सहपाठियों का व्यवहार, न्यूनतम सुविधाएँ आदि ऐसे विन्दु हैं जिनपर उन्होंने खुलकर अपने अनुभव बांटे हैं और ये अनुभव कटु भी हैं और मधुर भी.
पुस्तक के नाम से यह ध्यान में आना स्वाभाविक है कि यह पुस्तक आपको रूस के दर्शनीय स्थलों की सैर कराएगी. लकिन यह पुस्तक कहीं से भी एक सैलानी के दृष्टिकोण से नहीं लिखी गयी है, अतः एक पर्यटक के लिए सहायक नहीं हो सकती. इस पुस्तक में रूस के कुछ मुख्य पर्यटन स्थलों का वर्णन भी है, लेकिन मात्र उतना ही जितना शिखा जी के तात्कालिक संपर्क में आया हो. उन्होंने स्वयं इस बात की स्वीकारोक्ति भी की है कि जिस जगह हम रहते हैं वहाँ के दर्शनीय स्थलों के प्रति उदासीन रहते हैं. इतने पर भी उन्होंने हमें वेरोनिष्, मॉस्को, कीव, गोर्की, पुश्किन आदि के गाँव की सैर कराई है. महान लेनिन के साथ वहाँ के लोगों के भावनात्मक जुड़ाव का वर्णन सुनकर, भारत में बैठे हमारा ह्रदय भी भाव-विह्वल हो उठता है.
भाषा पर शिखा जी के अधिकार के बावजूद कुछ मुहावरों अथवा शब्दों के प्रयोग त्रुटिपूर्ण लगते हैं. जैसे स्वयं सारे काम करने के परिश्रम के लिए “सांप छुछुन्दर की स्थिति” का प्रयोग, आपका दाना पानी जहां जब-तक बंधा है तब तक आप पार नहीं पा सकते और ‘हालात’ की जगह ‘हालातों’ शब्द का प्रयोग. लेकिन दूसरी ओर जहां एक केले में पूरे परिवार को खिलाती एक औरत का विवरण आता है, फ़ौज में भर्ती होते युवकों की व्यथा और उनकी प्रतीक्षारत प्रेयसियों का वर्णन आता है, प्यार भरे सम्बोधन से द्रवित होती वृद्धाओं का या किसी स्थल का चित्रमय वर्णन आता हो, वहाँ उनकी लेखनी आपके समक्ष चित्र खींच देती है और आप उसका हिस्सा बन जाते हैं.
कुल मिलाकर शिखा वार्ष्णेय ने यह प्रमाणित किया है कि वे एक सिद्धहस्त संस्मरण एवं यात्रा-वृत्तान्त लेखिका हैं. यह पुस्तक न केवल उनके इस पहलू को प्रमाणित करती है, अपितु उनके एक संवेदनशील और भावनात्मक चरित्र को भी उजागर करती है. क्योंकि बिना भावनात्मक जुड़ाव के संस्मरणात्मक लेखन संभव नहीं.
उनकी लेखन यात्रा में नए कीर्तिमान स्थापित हों, यही मेरी शुभकामना है!!
श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ का परिचय उनकी कवितायें, लघुकथायें, संस्मरण, उपन्यास और कहानियाँ हैं. उनकी रचनायें चाहे जिस भी विधा में हों, अपनी एक अलग ही पहचान रखती हैं. उनकी समस्त रचनाओं में सामाजिक सरोकार को इतनी कोमलता से दर्शाया गया है कि वे कहीं से भी चीखती-चिल्लाती हुई ध्यानाकर्षण की मांग नहीं करतीं. बल्कि पाठक के हृदय को आन्दोलित करती हैं. उनकी रचनाओं में सम्वेदनाओं का पुट इतना संतुलित होता है कि बस आपके मन को छूता है, सहलाता है और धीरे से आपके मस्तिष्क को चिंतन के लिये व्यथित करता है, विवश नहीं.
इनसे भी परे गिरिजा जी का एक और साहित्य-संसार है. जहाँ वे कहानियों, कविताओं और चित्र-कथाओं का सृजन करती हैं एक वर्ग-विशेष के लिये; वह पाठक वर्ग है बच्चे और शिक्षा से दूर प्रौढ. प्रौढ शिक्षा के क्षेत्र में इनकी लिखी कहानियाँ कार्यशालाओं में पठन-सामग्री के रूप में उपयोग में लाई जाती रही हैं. बच्चों के लिये इनका साहित्यिक योगदान अद्भुत है. बच्चों और बड़ों के लिये समान रूप से जो काम इन्होंने किया है वह गुलज़ार साहब के काम में देखने में आता है, जहाँ एक ओर वो बच्चों के लिये बच्चे बनकर कवितायें लिखते हैं, वहीं बड़ों के लिये बड़े होकर नज़्में. यह विस्तार ही किसी भी साहित्यकार की रचनाओं को विस्तार प्रदान करता है. गिरिजा जी की रचनाओं में यह विस्तार सहज ही देखने को मिलता है.
“ध्रुव-गाथा” बालक ध्रुव की कहानी है, जो अपनी माता के साथ पिता द्वारा निर्वासन का दुःख भोग रहा था, एक अन्य स्त्री के कारण. राजमहल के सुख से वंचित ध्रुव, एक दिवस अपने पिता के महल में पहुँचकर पिता की गोद में बैठ अद्भुत आनन्द की अनुभूति पाता है. किंतु तभी विमाता द्वारा अपमानित कर उसे महल से निकाल दिया जाता है. बालक ध्रुव अपनी माता से इस व्यथा का वर्णन करते हैं. माता उन्हें फुसलाने के लिये कहती हैं कि तुम्हारा तो भगवान हरि की गोद में स्थान है जो सम्पूर्ण जगत के पिता हैं. और ऐसे में बालक ध्रुव एक रात्रि हरि मिलन के लिये निकल पड़ते हैं तथा अनेक कष्टों का सामना करते हुये प्रभु से मिलते हैं. प्रभु के आशीर्वाद से उन्हें ब्रह्माण्ड में एक अटल स्थान प्राप्त होता है और उन्हें दृढता का प्रतीक माना जाता है.
जैसा कि परिचय से ही स्पष्ट है, ध्रुव-गाथा एक खंड काव्य है और इसकी रचना उन्होंने बाल-पाठकों को ध्यान में रखकर की है अतः इसे उन्होंने बाल खंड-काव्य की संज्ञा दी है. इस काव्य का रचना काल 1982-86 के मध्य का है और यदि गिरिजा जी के शब्दों में कहें तो उन्हें यह रचना भारतेन्दु-काल की लगी, अत: उनके मन में स्वयम एक सकुचाहट थी कि यह काव्य प्राचीन शैली में लिखा गया है, आज के पाठक वर्ग को पसंद आएगा या नहीं. और यह रचना संदूक में दबी रही. २००१ में इसे किसी “पाठक” को सुनाया गया और प्रकाशन के बाद, यह २०१२ में हमारे सामने है. सृजन की इतनी लंबी यात्रा और कवयित्री द्वारा स्वयं अपनी रचना का आकलन (पिताश्री की शाबाशी से भी संतुष्ट न हो पाना), इस बात का प्रमाण है कि इनकी रचनाधर्मिता में कितनी ईमानदारी है.
खंड काव्य चूँकि एक पात्र के चारों ओर बुना जाता है अतः यहाँ केन्द्रीय चरित्र बालक ध्रुव हैं. घटनाक्रम, जिसे फिल्म की भाषा में पटकथा कहते हैं, इतना चुस्त कि अगली कड़ी की जिज्ञासा हमेशा बनी रहती है और वहाँ पहुंचकर आगे की. घटनाओं के वर्णन में सभी सह-चरित्रों के साथ न्याय किया गया है और उन्हें उनके स्वाभाविक रूप में दर्शाया गया है. प्रत्येक घटना के साथ बालक ध्रुव के मन में उठते विचारों और मनोभावों का चित्रण इतना सहज है मानो बाल-मनोविज्ञान की गहन समझ रखने वाला कोई व्यक्ति उनका वर्णन कर रहा है. माता, पिता, विमाता, मित्रों और प्रभु के संवाद इतने स्वतः अभिव्यक्त हैं कि लगता है एक एक शब्द अपनी पूरी प्रतिष्ठा के साथ उनकी जिह्वा पर सुशोभित हो रहा है. एक बानगी-
ध्रुव को अपने समक्ष पाकर महाराज:
कैसी हैं महारानी, वह धरती की अरुणा,
पीड़ित के प्रति न्यौछावर है जिसकी करुणा.
अंधियारे में भटके को ज्यों दीपशिखा है!
ध्रुव अपने पिता से:
गोद आपकी कितनी अच्छी-कितनी प्यारी,
लेकिन माँ की बात निराली प्यारी-प्यारी,
आप यहाँ हैं लीन सुखों में, वहाँ विपिन में,
वनवासी ऋषि मुनियों के शुचि-आराधन में.
विमाता ध्रुव से:
राजकुंवर तो सिर्फ एक, जो मेरा सुत है,
दुस्साहस मत कर बालक यह मेरा मत है,
जहाँ जमा है तू, उसका उत्तम अधिकारी,
राजपुत्र जिसका सुत, केवल मैं वह नारी!
इसी प्रकार, जहाँ भी कवयित्री ने स्वयं को सूत्रधार के रूप में प्रस्तुत किया है, वहाँ भी उनका शब्द-कौशल अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है. शब्द-कौशल को आप शब्द-साधन भी कह सकते हैं.
नयनों में था अहंकार, पद की गरिमा थी,
सुन्दर भी थी, पर जैसे प्रस्तर प्रतिमा थी.
एक खंड काव्य में चूँकि एक चरित्र विशेष के जीवन क्रम को चित्रित किया जाता है, अतः पाठक का आकर्षण बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि शब्दों का चयन घटनाक्रम के अनुरूप हों, क्योंकि काव्य की लयात्मकता लगभग सुनिश्चित होती है. अतः घटनाक्रम के उतार चढ़ाव, चरित्रों के कथोपकथन और पृष्ठभूमि के सृजन में उचित शब्द-समूह का चुनाव, काव्य में उनको बुना जाना और नाटकीयता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण सिद्ध होता है. इस कसौटी पर देखें तो गिरिजा जी कहीं भी पिछडती नहीं प्रतीत होती हैं.
स्वयं महिला होने के नाते और ध्रुव की माता तथा विमाता जैसे दो सशक्त चरित्रों का निर्वाह करने में जहाँ भी उन्हें सुयोग प्राप्त हुआ है, उन्होंने नारी को व्याख्यायित करने का अवसर नहीं गंवाया है:
नारी को नर यूं ही अब तक छलता आया,
नेह मान के झूठे जालों में उलझाया,
स्वयं प्रकृति ने ही नारी का भाग्य रचाया,
प्रणय और वात्सल्य जाल में यों उलझाया.
इनमें पुलक किलक कर निज संसार बसाती
इन पर तन-मन –धन वह दोनों हाथ लुटाती.
काव्य की प्रांजलता सर्वाधिक प्रभावित करती है. पढते हुए लगता है जैसे आप इसे पढ़ नहीं रहे “पाठ कर रहे” हैं. लगभग यही अनुभव मुझे दिनकर जी की “रश्मिरथी” का पाठ करते हुए आता था. सम्पूर्ण खंड-काव्य को पढ़ने का एकमात्र तरीका इसका सस्वर पाठ करना ही है. प्रांजलता इतनी तरलता से अनुभूत है कि शब्दों के उतार चढ़ाव भावनाओं के साथ प्रवाहित होते प्रतीत होते हैं.
श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी के परिचय में मैंने कहा था कि उनके अंदर एक बच्चा आज भी बचा है, जो उनसे इन रचनाओं का सृजन करवाता है. इसका प्रमाण स्वयं उन्होंने इस पुस्तक के विमोचन समारोह में दिया. पुस्तक के अनावरण के लिए जब सारा इंतज़ाम हो गया तब इन्हें किसी ने बताया कि पुस्तक की सारी प्रतियां तो पहले से ही अनावृत रखी हैं. ऐसे में उन्होंने मासूमियत से कहा कि क्या ऐसा होता है और तब पुस्तकों को पैक किया गया.
पुस्तक हार्ड-बाउंड में है और मूल्य है मात्र १५०.०० रुपये. प्रकाशक का नाम मैं जानबूझकर नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि प्रकाशक ने पुस्तक के आवरण को अपना विज्ञापन-पट्ट बना रखा है. छपाई बहुत अच्छी नहीं है और बहुत सारी त्रुटियाँ हैं मुद्रण की. मुझे जो प्रति प्राप्त हुई उसमें हाथ से काटकर शब्दों को शुद्ध किया गया है. इस प्रकार की भूल पाठन में व्यवधान उत्पन्न करती है.
पुस्तक के परिचय में डॉ. अन्नपूर्णा भदौरिया, विभागाध्यक्ष (हिन्दी विभाग), जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर; डॉ. पूनम चंद तिवारी, पूर्व विभागाध्यक्ष (हिन्दी विभाग), जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर तथा कवि प्रकाश मिश्र ने अपनी बात कही है, जो इस खंड-काव्य को प्रामाणिकता की मुहर लगाता है.
अंत में यही कहना चाहूँगा कि यह पुस्तक, स्वयं कवयित्री को भारतेंदु काल की रचना लगती हो, और ऐसा लगता हो कि इसे पढने वाले विरले ही मिलते हैं, वास्तव में अपनी प्रासंगिकता के स्तर पर कभी भी पुरातन नहीं होने वाली. यह पुस्तक भले ही बाल मनोविज्ञान की आधारशिला पर रचित है, किन्तु इसमें नारी, पर्यावरण, सामाजिक विसंगतियों आदि का इतना सजीव चित्रण है कि पाठक मुग्ध हो जाता है.
यदि मुक्तछंद की कविताओं को पढते हुए एक सलिल प्रवाह से खंड काव्य को पढ़ने का शीतल अनुभव प्राप्त करना चाहें तो यह काव्य-पाठ एक सुखद अनुभूति है.
इस कविता-संग्रह में कविताओं के क्रम न तो रचना-काल के अनुसार हैं, न ही रचनाकार की पसंद के क्रम में हैं. राजेश जी के अनुसार कविताओं की विषयवस्तु के आधार पर उन्हें क्रम प्रदान किया गया है, जो मूलतः तीन श्रेणी में हैं – प्रेम, सरोकार और व्यक्तिगत कवितायें. यहाँ मुझे एक और श्रेणी दिखी जिसके विषय में कवि ने कुछ नहीं कहा. वह श्रेणी है (और संग्रह में प्रथम श्रेणी वही है) कवि और कविता के संबंधों की. शायद स्वयं को कविता के दर्पण में देखने की चेष्टा. चुप्पी उनके स्वभाव का परिचायक है और “कवि भी एक कविता है” में यह कहना कि
इसलिए पढ़ो/कि कवि/ स्वयं भी एक कविता है/ बशर्ते कि तुम्हें पढ़ना आता है!
“कविता बिना कवि” बिना हथियार के डॉन की तरह है क्योंकि कवि आत्मा पर चोट करता है और डॉन शरीर पर. उनके अनुसार कविता यदि आत्मा पर चोट न करे तो कवि की रचना सार्थक नहीं.
प्रणय विषयक कविताओं की श्रेणी में जितनी भी कवितायें हैं उनका चरित्र वैसा ही है जैसा उन्होंने “प्रेम” शीर्षक कविता में कहा है कि प्रेम दरसल व्यक्त करने की नहीं महसूसने की चीज़ है. उनकी सभी प्रेम कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनमें प्रेम का पारंपरिक वर्णन कहीं नहीं मिलता है, किन्तु शब्द-शब्द प्रेम पगा है. “तुम अपने द्वार पर” की अंतिम पंक्ति में जब वे कहते हैं कि “मुझे भी अपने द्वार का एक पौधा मान लो” तब जाकर यह कविता एक प्रेम कविता बनती है. और ज़रा इन पंक्तियों को देखें:
क्या लिखती हो तुम,
मेज़ पर, शीशे पर,
कागज़ पर,
ज़मीं पर, रेत में,
हवाओं में, पानी में,
उँगलियों से, तिनकों से,
क्या लिखती हो
जानना चाहता हूँ!
“वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था” वाले अंदाज़ में आरम्भ से अंत तक सबको पता है कि वह क्या लिखती है, मगर कवि नहीं कहता अपने मुँह से, उलटा प्रश्न छोड़ देता है कि क्या लिखती हो, जानना चाहता हूँ! पराकाष्ठा है यह प्रेमाभिव्यक्ति की. हर कविता एक अलग ही अंदाज़ में और एक अलग ही अभिव्यक्ति के साथ. लेकिन कवि के रूप में राजेश जी कहीं भी कविता और पाठक के बीच नहीं आते!
अगली श्रृंखला में समाजी सरोकार से जुडी कुछ कवितायें हैं, जिसमें बिना शब्दजाल फैलाए जिस प्रकार उन्होंने छोकरा शीर्षक के अंतर्गत बूट पॉलिश करने वाले, ट्रेनों में झाडू लगाने वाले, गाकर पैसे माँगने वाले बच्चों की दुर्दशा का वर्णन किया है, वह संवेदना का हिमालय है. और यहाँ भी उनका काव्य-चातुर्य दिखाई देता है, जब हम पाते हैं कि उन बच्चों की व्यथा व्यक्त करने के लिए उन्होंने अनावश्यक मार्मिक शब्दों और अनर्गल वर्णन का सहारा बिलकुल नहीं लिया है. कवितायें मन को छूती हैं, क्योंकि सादा हैं, शब्दों की पेंटिंग नहीं, ज़िंदगी की तरह बदरंग! धोबी, चक्की पर, स्त्री, घोड़ेवाला, चिड़िया, गांधी आदि कवितायें झकझोरती हैं और सीधा जोड़ती हैं उस सरोकार से. एक आईने की तरह रख दी हैं वे कवितायें हमारे सामने जिसमें हमें हमारा बदसूरत चेहरा दिखता है.
अंत में उनके कवि ह्रदय का परिचय देती हुई कुछ व्यक्तिगत कवितायें संगृहीत हैं. कवि-ह्रदय से यहाँ तात्पर्य यह है कि उनकी सोच का माध्यम भी कविता है. यद्यपि उन्होंने गद्य भी लिखे हैं, तथापि उनकी मूल अभिव्यक्ति कविता में ही मुखर हुई है. इन सारी कविताओं के पात्र, वे स्वयं हैं और उनके परिजन. नितांत वैयक्तिक कवितायें हैं. “इतनी जल्दी नहीं मरूंगा मैं” के अंतर्गत मौत से सामना होने की कुछ घटनाएँ उन्होंने कविता के माध्यम से साझा की हैं. कविताओं का प्रवाह बांधकर रखता है. बाद की कविताओं में उन्होंने अपने परिवार की जिन घटनाओं का वर्णन किया है, वह एक बड़ा ही साहसिक कदम है. आम तौर पर जो घटनाएँ कोई भी व्यक्ति, किसी अनजान व्यक्ति के साथ शेयर नहीं करता, उसे उन्होंने पूरी ईमानदारी से सारी दुनिया के साथ बांटा है. इस क्रम में उनकी जीवनसंगिनी का शब्दचित्र सर्वोत्तम है. कविता “नीमा” में उन्होंने पत्नी के संघर्ष की कथा और स्वयं को उनका पति, संगी, साथी और साधक के रूप में प्रस्तुत किया है, जो समस्त स्त्री जाति के प्रति उनके सम्मान की भावना का द्योतक है. इसी विशेषता के कारण यह कविता उनका व्यक्तिगत अनुभव न होकर सम्पूर्ण नारी समाज के प्रति व्यक्त किया गया सम्मान है.
कविताओं की संरचना छोटे-छोटे मुक्त छंदों से की गई है, कोई भी कविता अनावश्यक लंबी नहीं है, जो कवितायें लंबी हैं, वह विषय-वस्तु की मांग पर आवश्यक है, भाषा इतनी सरल है कि मानो आम बोल-चाल की भाषा हो, भावनाओं को उभारने के लिए व्यर्थ का शब्दाडम्बर कहीं भी नहीं है और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कविता में कोई दर्शन नहीं छिपा है - जहाँ कवि कहना कुछ चाहता है और पाठक समझता कुछ और है या फिर कवि के स्पष्टीकरण की आवश्यकता अनुभव होती हो पाठक को, भाव इतनी सरलता और सहज रूप में अभिव्यक्त हुए हैं कि पाठक तक कवि की बात सीधी पहुँचती है!
कुछ दोष जो यहाँ वहाँ दिखे वो बस वैसे ही जैसे किशमिश के दाने में लगा तिनका. कुछ तथ्यात्मक दोष जो मुझे दिखे, जैसे- झील में पड़ी अपनी लाश के विषय में यह कहना कि “तबतक धंस चुका होउंगा मैं/झील में नीचे” जबकि तथ्य यह है कि लाश तैरती है, धंसती नहीं; “यहीं १९५९ के साल की पहली तारीख को/नीमा ने पहली किलकारी भरी”- यह निश्चित रूप से जन्म की तिथि है अतः किलकारी नहीं- पहला रूदन, किलकारी तो शायद कुछ महीनों बाद ही सुनाई देती है. कविता में मध्यप्रदेश को “मप्र” लिखना खलता है, क्योंकि एमपी तो प्रचलित है, मप्र नहीं! लेकिन यह दोष वास्तव में बिम्ब के रूप देखे जाएँ तो दोष नहीं लगते.
एक कविता है “वह औरत”. इसमें उन्होंने एक जवान मजदूरनी पर कुदृष्टि डालते ठेकेदार और स्वयं को साक्षी बनाकर उस औरत की मनोदशा और उसे भारत माता की दुर्दशा से जोड़ते हुए अभिव्यक्त किया है. किन्तु पढते हुए एक स्थान पर यह कविता समाप्त होती प्रतीत होती है अपने पूरे प्रभाव के साथ
अचकचाकर
मैं उसे देखता हूँ.
मुझे वह औरत
अपनी माँ नज़र आने लगती है!
इसके बाद माँ को भारत माँ से जोड़ना वह प्रभाव नहीं उत्पन्न कर पाया. अगर इसे दूसरी कविता के रूप में अलग से प्रस्तुत किया गया होता तो पाठकों को एक दूसरे अनुभव से उद्वेलित कर सकती थी.
कुल मिलाकर तीन दशकों की रचनाओं का संकलन “वह, जो शेष है” राजेश उत्साही जी के शांत, सहृदय व्यक्तित्व, जूझारू चरित्र, ज़मीन से जुड़े स्वभाव और ईमानदार अभिव्यक्ति का खज़ाना है. ये शांत भाव से, साहित्य की सेवा करने वाले व्यक्ति हैं, तभी आज तक छिपे रहे. किन्तु कल तक छिपे थे आज छपे हैं. मुझ डाकू खडगसिंह के बाबा भारती!
चलिये इसके बाद मैं आपको ले चलती हूँ परिकल्पना ब्लोगोत्सव पर जहां आज की मुख्य अतिथि वहुचर्चित कथाकार उपन्यासकर मनीषा कुलश्रेष्ठ से बातचीत करने जा रही हैं गीता श्री .....यहाँ किलिक करें
चलिये इसके बाद मैं आपको ले चलती हूँ परिकल्पना ब्लोगोत्सव पर जहां आज की मुख्य अतिथि वहुचर्चित कथाकार उपन्यासकर मनीषा कुलश्रेष्ठ से बातचीत करने जा रही हैं गीता श्री .....यहाँ किलिक करें
सलिल दा की समीक्षाएँ....
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...
दी एक बार उन्होंने मेरी कहानी केतकी की भी समीक्षा की थी "आँच" पर...
तब से ही कायल हूँ उनकी लेखनी की...
सादर
अनु
बहुत रोचक और सार्थक समीक्षाएं....
जवाब देंहटाएंध्रुव गाथा की समीक्षा अभी हाल ही में उनके ब्लॉग पर पढ़ी है ,
जवाब देंहटाएंशिखा जी का ब्लॉग पढता हूँ , स्मृतियों में रूस की समीक्षा पढकर अच्छा लगा |
अंत में वह जो शेष है की समीक्षा , कविता के एक एक शब्द पर इतना ध्यान , बेहद ईमानदार समीक्षा |
सादर
वाह बहुत बढ़िया लगी यह समीक्षाएं ...बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया समीक्षाएं ...
जवाब देंहटाएंस्वयं प्रकृति ने ही नारी का भाग्य रचाया,
जवाब देंहटाएंप्रणय और वात्सल्य जाल में यों उलझाया.
इनमें पुलक किलक कर निज संसार बसाती
इन पर तन-मन–धन वह दोनों हाथ लुटाती.
bade bhaiya tussi great ho:)
जवाब देंहटाएंरोज़गार की समस्याओं ने इतना उलझा रखा है कि सब कुछ अव्यवस्थित सा हो गया है.. कितना कुछ रह गया है लिखने को.. बड़े भाई श्री सतीश सक्सेना के "मेरे गीत" और अनुज श्री मुकेश कुमार सिन्हा द्वारा सह्सम्पादित "कस्तूरी" की प्रतिक्रया भी बाकी है..
जवाब देंहटाएंमुझे यहाँ स्थान देकर तथा मेरी प्रतिक्रियाओं (समीक्षा एक साहित्यिक विधा है, जिससे मैं सर्वथा अनभिज्ञ हूँ, इसलिए प्रतिक्रया ही कहता हूँ) को यहाँ प्रस्तुत कर आपने मेरा मान बढ़ाया है! आभार स्वीकार करें!!
और हाँ! एक और पुस्तक रह गयी यहाँ स्थान पाने से जिसकी "समीक्षा"/प्रतिक्रया मैंने अपने दूसरे ब्लॉग "संवेदना के स्वर" पर लिखी थी. वह पुस्तक है ब्लॉग शिरोमणि श्री समीर लाल 'समीर' की "देख लूँ तो चलूँ".
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