बेचैन आत्मा सत्यार्थी होती है .... सत्य का तेज आत्मा के बेचैन गर्भ से निकलता है . विद्युत् गति से या सर के पार हो जाता है,क्यूँ ?- क्योंकि सत्य से सब घबराते हैं . देवेन्द्र पाण्डेय - एक सत्यार्थी की तरह अपनी रचनाओं को पौधे से वृक्ष में परिणित करते हैं .दूर दूर तक फैली इस वृक्ष की कुछ शाखाओं तक मैं ले चलती हूँ इनके उज्जवल रथ की सारथी बनकर =
बेचैन आत्मा: फाइलें
फाइलें
टेबुल पर
बैठी नहीं रहतीं
आधिकारियों के घर भी
आया जाया करती हैं।
अलमारियों में जब ये बंद रहती हैं
अक्सर आपस में
बतियाया करती हैं।
एक पतली फाइल ने मोटी से कहा-
"यह क्या हाल बना रक्खा है, कुछ लेती क्यों नहीं !
धीरे-धीरे रंग-रूप खोती जा रही हो
देखती नहीं,
रोज मोटी होती जा रही हो।
मोटी फाइल ने एक लम्बी सांस ली और कहा-
"ठीक कहती हो बहन
मैं जिसकी फाइल हूँ
वह बी०पी०एल० कार्डधारी
एक गरीब किसान है
आर्थिक रूप से भरे विकलांग हो
किंतु विचारों से
आजादी से पहले वाला
वही सच्चा हिन्दुस्तान है।
धीरे-धीरे
कागजों से पट गई हूँ मैं
देखती नहीं कितनी
फट गई हूँ मै।
तुम बताओ
तुम कैसे इतनी फिट रहती हो ?
सर्दी-गर्मी सभी सह लेती हो
हर मौसम में
क्लीनचिट रहती हो!
पतली फाइल बोली-
मैं जिसकी फाइल हूँ
वह बुध्दी से वणिक
कर्म से गुंडा
भेष से नेता
ह्रदय का शैतान
है
उसकी मुट्ठी में देश का वर्तमान है
वह आजादी से पहले वाला हिन्दुस्तान नहीं
आज का भारत महान है।
मैं भींषण गर्मी में 'सावन की हरियाली' हूँ
घने बरसात में 'फील-गुड' की छतरी हूँ
कड़ाकी ठंड में 'जाड़े की धूप' हूँ।
मैं भूखे कौए की काँव-काँव नहीं
तृप्त कोयल की मीठी तान हूँ
मैं टेबुल पर बैठी नहीं रहती
क्योंकि मैं ही तो सबकी
आन-बान-शान हूँ।
बेचैन आत्मा: विश्वास
यह एक सच्ची घटना पर आधारित है। इसे आप संस्मरण कह सकते हैं।
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मैं
एक अदद पत्नी और तीन बच्चों के साथ
झांसी 'प्लेटफॉर्म' पर खड़ा था
भीड़ अधिक थी
खतरा बड़ा था
मेरे पास कुछ ज्यादा ही सामान था
जो कुली मिला वह भी एक बूढ़ा मुसलमान था !
पचास रूपये में ट्रेन में चढ़ाने का सौदा तय था
मगर मन में एक अनजाना सा भय था
रेल के आते ही आ गया रेला
भागम-भाग, ठेलम-ठेला
कुली ने फुर्ती से
पहले पत्नी-बच्चों को
फिर मुझे
यूँ सामान सहित ट्रेन में धकेला
मानों मै भी हूँ
कोई सामान जैसा
फिर जोर की आवाज लगाई
साहब पैसा !!
मैं चीखा-
बच्चे कहाँ हैं ?
वह बोला-
ट्रेन के अंदर !
बच्चों की अम्मा कहाँ है ?
ट्रेन के अंदर !!
मेरा सामान कहाँ है ?
कुली झल्लाया-
आपका सामान आपके पास है
और आप भी हैं ट्रेन के अंदर !!!
मेरा पैसा दीजिए
फुर्सत में
सबको ढूँढ लीजिए।
तभी बीबी-बच्चों की आवाज कान में आई
मेरी भी जान में जान आई
जेब टटोला
बस् सौ का नोट था
बोला-
सौ का नोट है
पचास रूपये दो
वह भीड़ में चीखा-
नोट दीजिए आपके पैसे लौटा दुँगा
मैने कहा-ये लो।
उसने सौ का नोट लिया
और गायब हो गया
मैं मन मसोस कर
अपना सामान और जहान समेटने लगा
सोंचा
मेरी ही गलती थी
पचास का छुट्टा रखता
तो धोखा नहीं खाता
आज के ज़माने में
किस पर यकीन किया जाय !
यह क्या कम है
कि मेरा सभी सामान सही-सलामत है !!
सीटी बजी
ट्रेन पटरी पर सरकने लगी
सह यात्रियों की हंसी
मुझे और भी चुभने लगी
हें ..हें...हें... आप भी कमाल करते हैं !
ऐसे लोगों पर भी विश्वास करते हैं !!
तभी खिड़की से
एक मुठ्ठी भीतर घुसी
कान में हाँफती आवाज आई
साहब
आपका पैसा
फुटकर मिलने में देर हो गई थी...
मैने जल्दी से नोट लपका
और खिड़की के बाहर झाँक कर देखने लगा.....
प्लेटफॉर्म पर
दूर पीछे छूटते ''ईमान'' के चेहरे पर
गज़ब की मुस्कान थी !
उसके दोनो हाथ
खुदा की शुक्रिया में उठे थे
मानों कह रहे हों
हे खुदा
तू बड़ा नेक है
तूने मुझे
बेइमान होने से बचा दिया
हम
बहुत देर तक
पचास रूपये के नोट को देखते रहे
मेरे क्षुद्र मन और सहयात्रियों के चेहरे की हालत
देखने लायक थी।
पचास रूपये का नोट तो कहीं खर्च हो गया
मगर आज भी
मैं अपनी मुठ्ठी में
विश्वास और भाईचारे की
उस गर्मी को महसूस करता हूँ
जो उस गरीब ने
नोट में लपेटकर मुझे लौटाया था
जिसे
जीवन की आपाधापी में
सहयात्री
गुम होना बताते हैं।
.........................
बेचैन आत्मा: धूप, हवा और पानी
तंग गलियों में
नालियों के किनारे बने
छोटे-छोटे कमरेनुमा घरों में
खटिये पर लेटे-लेटे
आदतन समेटते रहते हैं वे
कमरे की बंद खिड़कियों के झरोखों से आती
गली के नालियों की दुर्गन्ध
कमरे की सीलन, सड़ांध.....सबकुछ.
अलसुबह
दरवाजे पर सांकल खटखटाती है हवा
घरों से निकलकर झगड़ने लगतीं हैं
पीने के पानी के लिए
औरतें.
गली में
रेंगने लगते हैं
दीवारों के उखड़े प्लास्टरों में
भूत-प्रेत, देव-दानव को देखकर
गहरी नीद से चौंककर जगे
डरे-सहमें
बच्चे.
पसरने लगती है
दरवाजे पर
छण भर के लिए आकर
मरियल कुत्ते सी
जाड़े की धूप.
गली के मोड़ पर
सरकारी नल की टोंटी पकड़े
बूँद-बूँद टपकते दर्द से बेहाल
अपनी बारी की प्रतीक्षा में
देर से खड़ी धनियाँ
खुद को बाल्टी के साथ पटककर
धच्च से बैठ जाती है
चबूतरे पर
देखने लगती है
ललचाई आँखों से
ऊँचे घरों की छतों पर
मशीन से चढ़ता
पलटकर नालियों में गिरकर बहता पानी.
नाली में तैरते कागज की नाव को खोलकर
पढ़ने लगता है उसका बेटा
प्रकृती सभी को सामान रूप से बांटती है
धूप, हवा और पानी.
एक मध्यानन्तर लूँ इससे पहले आइये चलते हैं वटवृक्ष की ओर जहां कुलदीप सिंग उपस्थित हैं
अपनी एक सारगर्भित रचना लेकर ...यहाँ किलिक करें
सिर्फ इतना ही कहना चाहूँगा , शुक्रिया मुझे एक और लेखक देने के लिए जिनका मैं नियमित पाठक बनना चाहूँगा |
जवाब देंहटाएंआपके लेखन की स्पष्टवादिता का कोटि-कोटि वंदन|
सादर
नाली में तैरते कागज की नाव को खोलकर
जवाब देंहटाएंपढ़ने लगता है उसका बेटा
प्रकृती सभी को सामान रूप से बांटती है
धूप, हवा और पानी.
पतली फाइल बोली-
जवाब देंहटाएंमैं जिसकी फाइल हूँ
वह बुध्दी से वणिक
कर्म से गुंडा
भेष से नेता
ह्रदय का शैतान
है
उसकी मुट्ठी में देश का वर्तमान है
वह आजादी से पहले वाला हिन्दुस्तान नहीं
आज का भारत महान है।
सच्ची तस्वीर !!
प्रभावशाली लिंक संयोजन ..विशेष रूप से काविता 'फाइलें' का व्यंग्य बेहद हृदयस्पर्शी लगा.
जवाब देंहटाएंइस सम्मान के लिए आपका आभार। आपकी पारखी नज़र को भी प्रणाम। आपने जो कविताएँ चुनी वे मुझे भी अत्यधिक प्रिय हैं। एक पंक्ति में टंकण दोष रह गया है...
जवाब देंहटाएंआर्थिक रूप से भरे विकलांग हो
कृपया.. आर्थिक रूप से भले विकलांग हो..बना दीजिए।..धन्यवाद।