आइये आज बिना किसी भूमिका के मैं आपको उनलोगों से मिलाऊं जो शायद आपको देखन में छोटन लगे पर घाव करें गंभीर ..... खिलखिलाती हंसी सी सुनीता सनाढ्य की एक चिट्ठी गंभीरता के नाम ...
प्रिय गंभीरता,(सुनीता सनाढ्य)
प्रिय गंभीरता,
मुझे तुमसे बहुत सी शिकायतें हैं.....हमेशा बड़े-बड़े लोगों के बीच ही उठती बैठती हो कभी तो मेरे पास भी आ जाया करो न...देखो अब उतनी भी छोटी नहीं रह गयी हूँ मैं...पूरे 42 की हो गयी हूँ फिर भी तुम मुझसे दूर क्यूँ भागती रहती हो?.....
देखो ना...सब मुझसे शिकायत करते रहते हैं हर समय कि य
े क्या बचपना लगा रखा है तुमने हर बात मे? क्यूँ थोड़ी गंभीरता नहीं ओढ़ती तुम ? अब तुम ही बताओ...कैसे ओढ़ूँ तुम्हें?...कितनी कोशिश करती हूँ तुम्हें बुलाने की पर तुम तो अपने आप को छूने तक नहीं देती मुझे तो तुम्हें ओढ़ूँ कैसे?
तुम कितनी सुंदर दिखती हो....सबको देखती हूँ तुम्हें ओढ़े हुए....बहुत मन करता है मेरा भी तुम्हें ओढ़ने का ...देखो न...मेरी ये चादर, जो अभी भी ओढ़े हुए हूँ मैं....यही... मेरे बचपने की....कितनी पुरानी हो गयी है...रंग भी उड़ गया है इसका....जगह जगह से फट भी गयी है....पर मुझे ना, ये बहोत प्यारी है सो इसे उतार कर नहीं रख पाती हूँ मैं....नहीं कर पाती इसे अपने से अलग...एक प्यार भरी गर्माहट देती है यह मुझे.....पर....सबके ताने सुन सुन कर अब चाहती हूँ कि इसे सबसे छुपा लूँ....ओढ़े तो रखूंगी मैं इसे पर इसी के ऊपर तुम्हें भी ओढ़ लूँगी...यह किसी को नहीं दिखेगी...बस खूबसूरत सी तुम ही दिखोगी मुझे अपने आप मे समेटे हुए तो किसी को शिकायत तो नहीं रहेगी न मुझसे....
प्लीज़ एक बार ही सही...सबकी खुशी के लिए आ जाओ मेरे पास....मुझे फोटो खिंचवाने का बहुत शौक है न वैसे भी सो एक बार तुम्हें ओढ़ कर फोटो खिंचवा लूँगी अपनी और फिर वैसा ही एक नकाब भी बनवा लूँगी....जब अकेली होऊंगी ना तब तुम्हें उतार फेकूंगी और लिपटी रहूँगी अपनी उसी फटी-पुरानी पर प्यारी सी बचपने की चादर में...बाहर निकलने से पहले फिर से तुम्हारा नकाब ओढ़ लिया करूंगी...
तो बताओ...कर सकती हो ना तुम इतना सा मेरे लिए?
आओगी न मेरे पास एक बार?,,,,जल्दी आना....नकाब बनवाना है मुझे तुम्हारा जल्दी ही....
तुम्हारे इंतज़ार में...
तुम्हारी....(नहीं नहीं...मैं तो मेरे बचपने की हूँ तुम्हारी नहीं...)
..........................
बचपन में जो हम सुनते हैं,पढ़ते हैं,जानते हैं ..... उम्र के साथ उसकी तस्वीर अलग होती है .
प्रदक्षिणा(हेमा दीक्षित)मुझे कहना है ...
मैंने छुटपन में पढ़ा था
और माना भी था कि ...
"भारत यानी इण्डिया एक कृषि प्रधान देश है ...
इसके निवासी
यहाँ की धरती मे
बोए गये बीजो से
उत्पन्न होने वाले
भांति-भाँति के स्वादों में
बहते और जीते है ..."
अब मैं जानती हूँ
और पहचानती हूँ कि ...
"भारत यानी इण्डिया एक भाव प्रधान देश है ...
यहाँ की सत्ताएँ
भाँति-भाँति की भावनाओं पर खेती करती है ...
और यह उमड़ता हुआ देश
भावनाओं की फसलों की लहरों में बहता है ...
कोई भी आता है या जाता है ...
मरता है जीता है ...
कहता है सुनता है ...
जोड़ता है तोड़ता है ...
और यह उसकी लहरों में उठता और गिरता है ...
डूबता और तिरता है ...
जीता और मरता है ...
मारता और काटता है ...
सोता और रोता है ...
प्रलोभनों के सर्कस में ,
भावनाओं की मौतों के कुँए से
खींचा हुआ पानी
हमारी अपनी ही माटी मे
हमारे ही सपनों की कब्रों पर
हमें एक गहरी नींद में खींचता है ...
और पलकों को जबरन मूंदता है ...
मुझे कहना है ...
कि जागो ...
यह जागने का वक़्त है ...
एक बार फिर से
आज़ाद तरानों को गाने का वक़्त है ...
यह प्रभात फेरियों का वक़्त है ...
अब मिलवाती हूँ तूलिका शर्मा से =
एक किताब सी
जिसके सारे पन्ने कोरे हैं
कोरे इसलिए
क्योंकि पढ़े नहीं गए
वो नज़र नहीं मिली
जो ह्रदय से पढ़ सके
बहुत से शब्द रखे हैं उसमे
अनुच्चरित.
भावों से उफनती सी
लेकिन अबूझ .
बातों से लबरेज़
मगर अनसुनी.
किसी महाकाव्य सी फैली
पर सर्ग बद्ध
धर्मग्रन्थ सी पावन
किन्तु अनछुई .
तुम नहीं पढ़ सकते उसे
बांच नहीं सकते उसके पन्ने
क्योंकि तुम वही पढ़ सकते हो
जितना तुम जानते हो .
और तुम नहीं जानते
कि कैसे पढ़ा जाता है
सरलता से,दुरूहता को
कि कैसे किया जाता है
अलौकिक का अनुभव
इस लोक में भी ....
कई मुकाम ऐसे होते हैं, जो हमारे साथ होकर भी साथ नहीं होते =
अंजुमन: अहसासों की ज़मीं पर...डॉ गायत्री गुप्ता 'गुंजन')
बैठे रहो
कैनवास के सामने
लगातार
पर नहीं बनता अक्स...
ज़िन्दगी की तरह,
केवल रेखाएँ ही बनती हैं
आडी-टेढी....
कभी-कभी
कितना भी सँवारो
घँरौदे को
पर नहीं बनता
खूबसूरत...
ज़िन्दगी की तरह,
बार-बार ढह जाता है
समुन्दर के किनारे.....
कभी-कभी
कितना भी समझाओ
मन को
प्यार से
पर नहीं सुलझती गिरहें...
ज़िन्दगी की तरह,
लगातार उलझती ही जाती है
एक के बाद एक गाँठ.....
क्यों नहीं होती?
निश्छल, निश्पाप, खिलखिलाती
ज़िन्दगी
मासूम बच्चे की तरह
जहाँ हमेशा प्यार खिले
अहसासों की ज़मीं पर.....!!
चलिये अब आगे के कार्यक्रम की ओर रुख करते हैं , पल्लवी सक्सेना कहती हैं : एक लंबी सड़क सी है ज़िंदगी ....कैसे ? आइये महसूस करते हैं उन्हीं के शब्दों में...यहाँ किलिक करें
"भारत यानी इण्डिया एक भाव प्रधान देश है ...
जवाब देंहटाएंयहाँ की सत्ताएँ
भाँति-भाँति की भावनाओं पर खेती करती है ...
ye pankti kahin andar kachot gaya...:(
saari rachnayen ek se badh kar ek..
यह जागने का वक़्त है ...
जवाब देंहटाएंएक बार फिर से
आज़ाद तरानों को गाने का वक़्त है ...
यह प्रभात फेरियों का वक़्त है ...
क्यों नहीं होती?
निश्छल, निश्पाप, खिलखिलाती
ज़िन्दगी
मासूम बच्चे की तरह
जहाँ हमेशा प्यार खिले
अहसासों की ज़मीं पर.....!!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (30-12-2012) के चर्चा मंच-1102 (बिटिया देश को जगाकर सो गई) पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
शुक्रिया दीदी... :)
जवाब देंहटाएंमुझे तो देखने में भी छोटे नहीं लगे , और घाव तो खैर गंभीर हैं ही |
जवाब देंहटाएंसादर
जवाब देंहटाएंवाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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