पीछे मुड़कर देखो तो आज अपने होठों पर भी ये गीत मचलते हैं = भला था कितना अपना बचपन (हेमंत कुमार का कालजयी गैरफिल्मी गीत) . मीठी नींदें,अपनों के आने की ख़ुशी,रिश्तों के गहरे मायने - सब खो गए . खोने के,परिवर्तन के अपने अपने एहसास -

हम कहाँ जा रहे हैं ?
जिंद में एक लड़की को बाल पकड़कर गोल गोल घुमाया गया। चौकी इनचार्ज केवल संस्पेंड। मुझे अपनी बेटी से कहना पड़ता था कि बेटा जब ट्रेन यात्रा करती हो तो साथ में शादी का प्रमाणपत्र लेकर जाया करो। यह है मेरा भारत महान! सन ७७ में जब मैं ऐसा कोई सबूत लेकर नहीं चलती थी तो आज अपनी बेटी को यह सलाह देती हूँ। क्यों, क्योंकि हम बढ़ रहे हैं तेजी से १४वीं शताब्दी की ओर! संसार, देखते जाओ! भारत बढ़ रहा है तेजी से सबको पीछे छोड़ता हुआ।

मुझे याद है कि हमारे समय में भी हम लड़कियाँ अपने सहपाठियों के घर जाती थीं। दरवाजा खुला होता था। शायद तब संस्कृति के ठेकेदार पड़ोसी नहीं थे। अतः कोई बाहर से दरवाजा बन्द नहीं करता था। अन्यथा यह हम में से किसी के साथ भी हो सकता था।

मैं नहीं जानती कि वह लड़की अपने सहपाठी के साथ क्या आपराधिक कृत्य कर रही थी। परन्तु हत्यारे को भी, जब वह हमारे जीवन पर खतरा ना हो, हम पीट नहीं सकते, केवल कानून के हवाले कर सकते हैं और आशा कर सकते हैं कि वह उसे सजा दे तो क्या उस लड़की का अपराध हत्या से भी बड़ा था? हो सकता है कि बहुत से लोगों को लड़के लड़कियाँ का आपस में बात करना भी गलत लगता हो। ऐसे में उन लोगों के पास पूरा अधिकार है कि वे स्वयं को विपरीत लिंग से बचाकर रखें। यदि कोई उनपर दबाव डालेगा कि वे बातचीत करें, दोस्ती करें तो वह भी गलत होगा।

आजतक हम स्कूली बच्चों को नैतिक ज्ञान , मोरल साइंस पढ़ाते थे, सेक्स एजुकेशन की बात करते थे। अब समय आ गया है कि बच्चों को संविधान द्वारा दिए गए अन्य लोगों के अधिकारों के बारे में पढ़ाएँ। जैसे एम बी ए आदि में केस स्टडीज़ पढ़ाई जाती हैं, उनपर लेख लिखने को कहा जाता है उसी तरह से अन्य लोगों के व्यक्तिगत अधिकारों का हनन करने वाले लोगों को क्या सजा दी जाती है, पढ़ाया जाए, उन्हें काल्पनिक या सत्य मामलों पर क्या किया जाना चाहिए, कैसे और क्या न्याय दिया जाना चाहिए आदि पर विचार करने को प्रेरित किया जाना चाहिए। 

मानवाधिकार हनन, किसी की निजी स्वतन्त्रता का हनन हत्या से भी बड़ा अपराध है। हत्यारा किसी एक या दो का जीवन समाप्त करता है परन्तु निजी स्वतन्त्रता का हनन करने वाले तो जीवन को जीने योग्य ही नहीं रहने देते। जब निजी अधिकार ही नहीं रहेंगे तो जीवन का हम करेंगे भी क्या सिवाय एक बोझ की तरह ढोने के ? जी तो तिलचच्टे भी लेते हैं। पशुओं में ही शक्तिशाली का पूरे समूह पर शासन होता है। क्या यही स्थिति हम मनुष्यों में लाना चाहते हैं? स्त्रियों के नौकरी करने, बिन ब्याही माँ बनने से तो अपने परिवारों, समाज के नष्ट होने का भय हमें हो रहा है, परन्तु हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यदि निजी अधिकार रहे तो हम अपने बच्चों को बचपन में अपने जीवन मूल्य सिखा सकते हैं और यदि सफल रहे तो इन मूल्यों को बचाने की आशा कर सकते हैं परन्तु यदि समाज में ऐसा कट्टरपन आ गया तो वह समय दूर नहीं जब अपने मूल्य सिखाने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा क्योंकि हमें, हमारे बच्चों को इन कट्टरपंथियों के मूल्यों के अनुसार खाना, पीना, रहना, पढ़ना या न पढ़ना, जीना होगा। मुझे नहीं लगता की ऐसे समाज में नई पीढ़ी को लाना एक खुशी मनाने का अवसर रह जाएगा। वह केवल और केवल एक अन्य मानव को पशु से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर करना ही होगा। हमारे बच्चे दुखी होंगे कि वे पैदा ही क्यों हुए, वह भी तब जब उनमें कुछ सोचने की शक्ति रह जाएगी। हो सकता है वे भी कट्टरपंथियों की तरह हमारे ही सिर पर डंडा लेकर खड़े हो जाएँ, हमारी शिकायत हमारे उन आकाओं से करें कि हम घर में उनके आदेशानुसार नहीं जी रहे। जरा कल्पना कीजिए। कल्पना करने में कोई हानि नहीं है। यदि मैं आज से छह वर्ष पहले ही आने वाले समय की कल्पना कर बेटी से विवाह का प्रमाण पत्र लेकर चलने को कहती थी, इसलिए नहीं कि मुझे उसके किसी पुरुष के साथ चलने पर आपत्ति थी अपितु इसलिए कि मैं आने वाले खतरे के कदमों की आहट सुन पा रही थी। बेहतर होगा कि हम अपने पिता, भाई, चाचा, मामा आदि से अपने खून के रिश्ते का प्रमाणपत्र भी फोटो सहित लेकर घूमें। हो सके तो डी एन ए टेस्टिंग की रिपोर्ट व माता पिता के विवाह का प्रमाणपत्र भी साथ लेकर चलें। अन्यथा ऐसा ना हो कि उज्जैन या किसी भी अन्य शहर की तरह हमारे शहर के लोग भी हमें भाई के साथ कहीं जाने पर पीट डालें, चोटी से पकड़कर घुमा डालें। इससे पहले कि हममें से किसी को अश्विनी बनकर अपने साथ हुए घोर अन्याय की पीड़ा से छुटकारा पाने को गले में फाँसी का फंदा डालना पड़े या तो ऐसे अन्यायों के विरुद्ध हमें बोलना होगा या फिर प्रमाणपत्र आदि से लैस होकर सड़कों पर चलना होगा या किसी के घर जाना होगा। बेहतर व अधिक सुरक्षित तो यह होगा कि घर से बाहर ही ना जाएँ, पुत्रियों को जन्म ही न दें, यदि दुर्भाग्य से दे दें तो उन्हें घर में ही रखें।

जिन्हें यह चिन्ता हो रही है कि आँकड़े बताते हैं कि स्त्रियों को स्वतन्त्रता मिलने के बाद अमेरिका में विवाह के बाहर बच्चों के जन्म में वृद्धि हुई है वे साऊदी अरब या ऐसे ही किसी देश के आँकड़ों पर भी नजर डालें। वहाँ यह संख्या शून्य है। फिर हम वहाँ के कानून यहाँ लागू क्यों नहीं कर देते? वहाँ अपराध भी बहुत कम है। वहाँ यह नहीं होता कि कोई स्त्री तो राष्ट्रपति बन जाती है, कोई प्रधानमंत्री, कोई मुख्यमंत्री तो कोई किसी अन्य धर्म के पुरुष के साथ बात करने, यात्रा करने या प्रेम करने के अपराध में बस से घसीटी जाती हो, कोई किसी लड़के मित्र के घर में बाहर से बन्द कर दी जाती हो, फिर पुलिस द्वारा चोटी से पकड़कर चकरघन्नी की तरह घुमाई जाती हो। वहाँ राजकुमारी को भी उन अपराधों के लिए मृत्युदंड दिया जाता है जिनके लिए एक आम स्त्री को। वहाँ कोई लड़की राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री बनने के सवप्न सजाने का दुस्साहस नहीं करती होगी। यहाँ हम पहले अपनी बेटियों को समानता, आकाश छूने के स्वप्न दिखाते हैं और यदि वह हमारे या समाज के अपेक्षित नहीं चलती तो या तो उनकी हत्या हम स्वयं अपने कथित सम्मान की रक्षा के लिए कर देते हें या हमारे संस्कृति के रक्षक उन्हें प्रताड़ित कर मृत्यु को गले लगाने को बाध्य कर देते हैं। ये घटनाएं अपने आप में अपवाद हो सकती हैं, परन्तु यदि नहीं रोकी गईं तो ये आम हो जाएँगी और तब हमें अपनी बेटियों की भ्रूण हत्या करना एक बेहतर और दयालु समाधान लगेगा।

तब तक,
चलिए हम पिंक चड्ढी वालों के विरोध के तरीके का विरोध करें। क्योंकि उनका तरीका संस्कृति के रक्षकों से अधिक खतरनाक है। हम यह ना देखें कि वे अपने वस्त्र उतारकर देने को नहीं कह रहीं, बाजार से नई या फिर अपनी अलमारी से पुरानी भेजने को कह रही हैं।(अब यदि उस ही ब्लॉग में कोई कुछ अधिक कह रहा है तो क्या किया जा सकता है? यदि वे ऐसी टिप्पणियों को नहीं छापती तो कहा जाएगा कि विरोध के स्वर वे सह नहीं सकतीं।) हमें बाध्य भी नहीं कर रहीं ऐसा करने को। वे जो कर रही हैं उसका अर्थ हम नहीं समझेंगे। वे इसे क्यों कर रही हैं यह समझने में सोचना पड़ता है, उन्हें समझना पड़ता है, उनके स्थान पर स्वयं को रखकर देखना पड़ता है। यह सोचना पड़ता है कि यदि मैं युवा होती, स्त्री होती तो ये सब परिस्थितियाँ मुझे कैसी लगतीं। वे केवल और केवल एक काम कर रही हैं, इस हास्यास्पद तरीके से कट्टरपंथियों को हास्यास्पद बना रही हैं। हाँ, शायद उन्होंने जानबूझकर इसे ऐसा बनाया ताकि लोगों का ध्यान आकर्शित कर सकें। (बहुत से लोगों ने कट्टरता के विरोध में लिखा, शायद शालीनता से ही लिखा था, मैंने भी लिखा था, परन्तु उसका कितना प्रभाव पड़ा। यह तरीका जैसा भी था ना हिंसक था ना जबर्दस्ती थी। हमें सही लगे तो ठीक न लगे तो ठीक। ) परन्तु नहीं, वे अधिक खतरनाक हैं। आओ, अपनी बेटियों की उनसे रक्षा करें, न कि उनसे जो उन्हें किसी भी क्षण पकड़कर पीट सकते हैं, चोटी से पकड़कर घुमा सकते हैं। वह तो एक बहुत ही मामूली सा अपराध होगा। पब में जाना आवश्यक तो नहीं है, किसी विशेषकर अन्य जाति धर्म के पुरुष से प्रेम करना आवश्यक तो नहीं है, किसी सहपाठी से पुस्तक लेने (या हो सकता है कि वह बतियाने गई हो या प्रेम की पींग चढ़ाने)आवश्यक तो नहीं है। शराब पीने को कोई भी बहुत अच्छा तो नहीं कहेगा, बहुत सी अन्य वस्तुएँ, काम, व्यवहार, यहाँ तक कि परम्पराएँ भी गलत होती हैं। हमें ना भी लगें तो किसी अन्य को लग सकती हैं। हमें जो गलत लगता है वह अपने बच्चों को बाल्यावस्था में ठीक से समझा सकते हैं। अपने मूल्य उन्हें सिखा सकते हैं। जब वे वयस्क हो जाएँगे तो वे इतने समझदार हो चुके होंगे कि अपने निर्णय स्वयं ले सकेंगे। या हम यह मानकर चल रहे हैं कि भारतीय युवा कभी वयस्क माने जाने लायक बुद्धि विकसित नहीं कर पाते? देखते जाइए कल कोई बहुत से अन्य कामों को गलत करार कर देगा। किसी को लड़कियों का लड़कों के साथ चाय पीना भी गलत लग सकता है किसी को लड़कियों का लड़कियों के साथ या अकेले भी चाय पीना गलत लग सकता है। शायद बोतल बंद पानी पीना गलत लग सकता है। शायद उनका पैदा होना ही गलत लग सकता है। हम कहाँ सीमा रेखा खींचेंगे और हम होते कौन हैं किसी का जीवन नियन्त्रित करने वाले? देखते जाइए कल आपको अपने टखने भी दिखाने होंगे जबर्दस्ती दिखाने होंगे। 

कोई कह रहा है प्रेम का प्रदर्शन ना करो। घर के अंदर करो। सही है परन्तु घर के अंदर किससे प्रेम करोगे? घर में तो आपके परिवार के लोग रहते हैं,अन्य परिवार, गोत्र (स्त्री पुरुष का प्रेम और विवाह अपने परिवार,गोत्र वाले से तो नहीं हो सकता हमारे समाज व कानून के अनुसार!) के लोग नहीं और यदि किसी अन्य के घर पुस्तक लेने भी जाओगी तो बाहर से दरवाजा बन्द कर दिया जाता है। पार्क में साथ बैठो तो मजनूँ पीटो पुलिस या कोई भी दल पीट देगा, रैस्टॉरैन्ट या पब में बैठने पर भी पिट सकते हो। तब साफ यह क्यों नहीं कहा जाता कि प्रेम मत करो, करो परन्तु उससे जिससे आपके अभिवावक आपका विवाह करें। तो सीधे सीधे यह कहा जा सकता है कि भारत में व्यक्ति को अपनी पसन्द से विवाह करने की अनुमति भले ही हो परन्तु विपरीत लिंग के लोगों के साथ घूमने बात करने की नहीं है। विवाह करने का निर्णय कोई एक दिन में तो लेगा नहीं परन्तु यदि कोई युगल साथ दिखा तो भले मानुष पकड़कर उनका विवाह करवा देंगे। माँग में सिन्दूर भरवा देंगे। तब क्या होगा जब स्त्री सिन्दूर या मंगलसूत्र में विश्वास न करती हो? या उसको विश्वास करने या न करने का अधिकार ही नहीं है? या फिर युवा यदि मिलें तो विक्टोरियन यूरोप की तरह किसी chaparone की तरह घर की किसी वृद्धा को साथ लेकर चलें? 

क्या इन युवतियों को इस बात से कोई अन्तर पड़ा होगा कि उन्हें आतंकित करने वाला उनके धर्म के हैं, उनके देशवासी हैं,उनकी संस्कृति के रक्षक हैं? यदि कोई विदेशी या विदेशी संस्कृति वाला यह करता तो क्या अधिक कष्ट होता? शायद कम होता। यदि एक धर्म इतना कट्टरवादी होता जा रहा है तो दूसरा धर्म क्यों पीछे रहे? होड़ लगेगी क्या कि कौन कितना कट्टरवादी हो सकता है, कितना अन्य के जीवन में हस्तक्षेप कर सकता है? जिस संस्कृति की रक्षा की बात हम करते हैं, उस संस्कृति की विशेषता ही उनका उदार होना रहा था। या हम उस संस्कृति को अपना कहना चाह रहे हैं जो विदेशी आक्रमणों के बाद किन्हीं मजबूरियों में अपनाई गईं? हमारी संस्कृति में तो जिस मर्जी भगवान को पूजो, या ना पूजो, भगवान के अस्तित्व को न मानने वाले भी थे। शास्त्रार्थ होते थे। परन्तु वह काम कठिन है जोर जबर्दस्ती सरल व टिकाऊ व सस्ता उपाय है।

यह तर्क दिया जा रहा है कि आज तक तो तुम नहीं बोलीं,जब स्त्रियों को जलाया जाता है, जब कश्मीर में लड़कियों को बुरका पहनने को कहा जाता है,जब दहेज की माँग होती है, जब फतवे दिए जाते हैं, तो आज क्यों बोल रही हो? कल नहीं बोले तो क्या आज अपना बोलने का अधिकार खो दिया? वैसे सही आगाह कर रहे हैं, क्योंकि यदि आज भी नहीं बोले तो भविष्य में बोलने का अधिकार ही छीना जा चुका होगा। इस तर्क के अनुसार तो जब हमने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली तो फिर अंग्रेजों की क्यों नहीं? अग्रेजों को भगाना भी गलत रहा होगा, उनके हमें गुलाम बनाने के अधिकार का हनन था। भगाना था तो पहले मुगलों को भगाते, भूतकाल में जाकर भगाते। सोचने की बात है कि संसार में बहुत कुछ गलत होता है, हम सहमत नहीं होते,हम प्रत्येक गलत को गलत मानते हैं परन्तु जब हमारे अपने अधिकारों का हनन होता है या हमारे जीने के तरीके पर आक्रमण होता है तो हम अधिक खुल कर बोलते हैं। कोई किसी अन्य के ब्लॉग पर जाकर गाली देता है, हम उसे गलत मानते हैं, हो सकता है लिख भी दें कि यह गलत है परन्तु जब कोई हमारे ब्लॉग पर आकर गाली देता है तो हम उसका अधिक मुखर होकर विरोध करते हूँ,अधिक आहत होते हैं। यह स्वाभाविक है। क्या जब अध्यापक अपनी माँगों के लिए जलूस निकालते हैं,धरना देते हैं तो बैंक कर्मचारी भी धरने पर आ बैठते हैं? तो क्या जब वे अपनी किसी माँग के लिए धरना दें तो हम कहेंगे कि जब अध्यापकों के अधिकारों की लड़ाई हो रही थी तब आप चुप थे सो अब भी चुप बैठिए। अब क्यों नारे लगा रहे हो?

हम सहमत होएँ असहमत होएँ यह हमारा अपना अधिकार है। सब नया सही नहीं, सब पुराना भी सही नहीं। हमें अपने मूल्य स्वयं बनाने होंगे। सबका दृष्टिकोण अलग होता है। यही तो मानव व मानव में अन्तर है। प्रत्येक बरगद के पेड़ की आवश्यकता एक होती है,प्रत्येक हिरण की आवश्यकता एक होती है। उनमें दृष्टिकोण नामक वस्तु शायद ही पाई जाती है। परन्तु मानव के पास अपना दृष्टिकोण होता है। हमें एक दूसरे के दृष्टिकोण का आदर करना व उन्हें उन्हें मानने के अधिकार का आदर करना होगा ही। अन्यथा हम तो रहेंगे परन्तु हमारा दृष्टिकोण रखने का अधिकार नहीं। और वह दिन ऐसा होगा कि हम उसकी यदि कल्पना करें तो हमारा हृदय दहल जाएगा। हमारी अपनी वंश बेल को बनाए रखने की प्रकृति प्रदत्त इच्छा भी सिहर जाएगी। अपनी संतानों को ऐसा जीवन देने से पहले हम बार बार सोचेंगे। मुझसे असहमत होइए, आपका स्वागत है, परन्तु जरा उस भयंकर संसार की कल्पना भी कीजिए। बस एक बार फिर अपने पिछले लेख की तरह यहाँ भी लिखूँगी कि जब कट्टरवाद आएगा तो केवल लड़कियों को, स्त्रियों को, युवाओं को ही अपने चंगुल में नहीं लेगा एक दिन अच्छे बड़े बुजुर्गों को भी अपनी चपेट में ले लेगा। सोचिए हम कहाँ जा रहे हैं? हाँ लगे हाथ अपने बच्चों को कुछ जीवन मूल्य भी सिखा दें।

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कांगो में हुआ भीषण विस्फोट
एक नन्हें बच्चे को दिया अमानवीय दंड
कांप जाता है समाचार पढ़ के मन
ईरान चाहता है बम बनाना
चीन सैन्य शक्ति को बढाना
कहाँ गयी है मानवी बुद्धि
और क्षमता विवेक की
किसके खिलाफ युद्ध छेड़ा है हमने
हम जा कहाँ रहे हैं...

टीवी का स्विच बंद कर देती हूँ
पलट देती हूँ अखबार को उल्टा
पर हत्या और हिंसा की घटनाएँ तो कम नहीं होतीं
पूर्व अधिकारी के यहाँ मिलते हैं करोडों
 दूर के रिश्तेदारों के नाम जब फ़्लैट लिखा जाता है  
तब ठंड में ठिठुर कर मर जाता है
कोई बच्चा, बेघर ठंडी सड़क पर
सर्दियों की रात में.....
जब सेना की साज-सज्जा में धन लुटाया जा रहा है
गरीब, बेरोजगार किसान आत्महत्या करने पर विवश हैं
क्यों है इतनी विषमता
इतना अन्याय
समझ नहीं पाता मन
किशोरों के हाथों तक पहुँच गये हैं हथियार
और गिलास जिसमें भरा है जहर नशे का
जो हाथ मंदिर की घंटियाँ बजाने को उठा करते थे
आज भटक गए हैं...
परिवर्तन की यह आंधी कहाँ ले जाएगी
हमें... हम जा कहाँ रहे हैं...

हर संवेदन शील मन की यह चिंता है
और बेबुनियाद तो नहीं है न यह चिंता..?

http://madhurgunjan.blogspot.in/(ऋता शेखर ‘मधु’)

ऋता शेखर 'मधु'हम कहाँ जा रहे हैं...इस विषय पर सोचा जाए तो कई क्षेत्र हमारी आँखों के सामने झिलमिलाने लगते हैं जहाँ पर यह विचारणीय हो जाता है कि आखिर हम कहाँ जा रहे हैं|यह बात सही है कि पिछले तीस वर्षों में समाज की सोच में जो बदलाव आया है उसे फ़िफ्टी प्लस और माइनस के लोगों ने बहुत गहराई से महसूस किया है| बात यदि परम्परा और संस्कारों की ली जाए तो हमारी कई परम्पराओं को आज की पीढ़ी अँगूठा दिखाती हुई अपनी दुनिया में मस्त हैं| इसमें मैं युवा पीढ़ी को दोष नहीं देती क्योंकि इस तरह से रहने पर शायद हमारी सामाजिक व्यवस्था ने ही उन्हें मजबूर किया है| घर से बाहर रहकर नौकरी करना उनकी मजबूरी बन चुकी है| घर से दूर अकेले पड़ चुके बच्चे बहुत ज्यादा ही सेल्फ आत्मनिर्भर बन चुके हैं| हमारे समय में इस उम्र में हमें अपनी जिम्मादारियों का एहसास तक नहीं था क्योंकि संयुक्त परिवार में रहते हुए कभी आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई| आजकल के बच्चों पर दबाव ज्यादा है...बाहर रहते हुए कभी भूखे रहने की भी नौबत आती है तो वे बताते नहीं क्योंकि घरवाले दुखी हो जाएँगे|

दूसरों पर निर्भर होना उन्हें पसन्द नहीं| कोई उनको टोके यह भी पसन्द नहीं|

आजकल की लड़कियाँ भी आत्मनिर्भर हैं...यह बात समाज के विकास में सहायक है साथ ही साथ घातक भी है| वे किसी की बातों को बरदाश्त करने के लिए तैयार नहीं इसलिए अहं के टकराव की स्थिति बन रही है और पारिवारिक बिखराव ज्यादा दिख रहे हैं|

सबसे उहापोह की स्थिति हमारी उम्र(पचास के लगभग) के लोग झेल रहे हैं| एक तरफ हमारे पैरेन्ट्स हैं जो हमारी सोच के साथ समझौता करने के लिए तैयार नहीं| समाज बहुत आगे बढ़ चुका है और उनके अनुभव हर फ़ील्ड में काम नहीं आते| एक तरफ़ हमारे बच्चे हैं जो हमसे समझौता करने के लिए तैयार नहीं| हमारी सोच की धज्जियाँ उड़ा देते हैं वे| आमने सामने बैठकर एक दूसरे के मनोभावों को चेहरे पर पढ़ते हुए हमारी गप्पबाजियों का आनन्द ही कुछ और था| आजकल फ़ेसबुक या कोई भी सोशल नेवर्किंग साइट पर चौबीसों घंटे रहना ही  दिनचर्या बन चुकी है|

ऐसे में हम भी नेट पर न रहें तो कितने पिछड़े नजर आएँगेः) एक ओर हम पिट्टो और गिल्ली डंडा जैसे खेल नहीं भूले हैं और आज विडियो गेम खेलकर बच्चों को टक्कर भी दे रहे हैं| हमने कोयलों पर भी हाथ काले किए हैं और आज माइक्रोवेव ओवन भी इस्तेमाल कर रहे हैं| बचपन में रिक्शे की सवारी करने वाले भली-भाँति गाड़ियाँ भी ड्राइव कर रहे हैं| हाट-बाजार से झोलों में सब्जी लाने वाले हम मॉल से बिना मोल-भाव किए और बिना चुने भिंडी भी खरीद रहे हैं|

अब बात कर लेते हैं ब्लॉगिंग की...बहुत सारी बातें जो हम घरों में नहीं कह पाते वह ब्लॉग पर लिख देते हैं| रेगुलर ब्लॉगिंग होती रहे इसके लिए हमारी बेचैनी बनी रहती है...कुल मिलाकर ब्लॉग पर ही जान अटकी रहती है| मैं तो स्कूल से आते ही नेट खोलती हूँ और इसके लिए सबकी नाराजगी भी झेल लेती हूँJ| कुल मिला कर हम कम्प्यूटर की दुनिया में प्रवेश करते जा रहे हैं| किसी तरह की जानकारी के लिए नानी-दादी की जरुरत नहीं...गूगल महाराज हैं नः)

इन विचारणीय बातों को आत्मसात करने के बाद, मध्यांतर तो बनता है न ?
मध्यांतर पर जाने से पहले आइये चलते हैं वटवृक्ष की ओर, जहां मधुरेश प्रस्तुत करने जा रहे हैं : सप्तपर्णा से चार पत्ते

4 comments:

  1. सार्थक रचनाओं के बीच मेरी रचना को शामिल करने के लिए आभार !!

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  2. आज हरेक को रुककर खुद से यह सवाल पूछना ही होगा कि यह अंधी दौड़ हमें कहाँ ले जा रही है...

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  3. सोच में डालती हुई रचनाएं |

    सादर

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