उत्सव का आठवाँ दिन, विषय से हटकर कुछ विशेष लेकर उपस्थित हुयी हूँ मैं । लोग कहते हैं कि लिखने की सार्थकता समीक्षा में है और समीक्षा का महत्व इस बात पे है की लिखा किसने . नपी तुली ... श्रेष्ठ,गहन,गंभीर समीक्षात्मक दृष्टि न हो तो कलम में सरस्वती की आध्यात्मिक छवि नहीं दिखती ..... सरस्वती की छवि लिए लेखक की कलम को अपनी कलम से निखारा है ब्लॉग जगत की सुप्रसिद्ध लेखिका रंजना रंजू भाटिया ने -
चर्चित पुस्तक
किशोर चौधरी का कहानी-संग्रह---'चौराहे पर सीढियां' और रंजना भाटिया के शब्द -
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समपर्ण ..--अत्याचार की मौन स्वीकृति ,वफ़ा -तू जो चाहे करने की अनुमति दे .पतिता --जो साथ सोने से इनकार कर दे .वार्डन--सरकार की ओर से नियुक्त किये गए दलाल .इसके बाद ज़िन्दगी लिख कर कई सारे अपमानजनक शब्द लिखे गए हैं ......यह परिभाषाएं हैं चौराहे पर सीढियां ..किशोर चौधरी द्वारा लिखित कहानी संग्रह की .अंजली तुम्हारी डायरी से तुम्हारे ब्यान मेल नहीं खाते ..कहानी से ........हर कहानी अपनी बात मन के गहरे में यूँ कह जाती है कि उसको भूलना मुश्किल हो जाता है ...इस किताब की समीक्षा करना बहुत मुश्किल है ..क्यों कि यह कहानियाँ सिर्फ कहानियाँ ही नहीं है ,ज़िन्दगी में रोज़ उगते सूरज ओर ढलती शाम के बीच की बातें हैं ...जिन में रात के अनकहे अंधेरों की सच्चाई भी है और सुबह उगते सूरज की रौशनी में ओस की बूंदों में छिपी दर्द की आवाज़ भी है | यह कहानियाँ एक ही बैठक में पढ़ ली जाएँ ,यह मुमकिन नहीं है .इनको पढना और फिर जुगाली की तरह उनको मन में मंथन में डुबोना ही सही समझने की बात को समझ पाना है |
..मैंने अभी तक इस संग्रह में तीन कहानियाँ ही पढ़ी हैं और वह ही मेरे जहन से उतर नहीं रही हैं ....आज की इस बात में सिर्फ उन कहानियों में आई पंक्तियों की बात .और उनको समझने की बात ...: यह लिखी पंक्तियाँ ही इन कहानियों की समीक्षा है .....जो खुद ही अपनी बात कहती है ...
अंजलि तुम्हारी डायरी से बयान मेल नहीं खाते .."ज़िन्दगी आज में तुम्हारा आभार व्यक्त करना चाहती हूँ |सिगरेट के कडवे और नशे भरे स्वाद के लिए .मुह्बब्त के होने और खोने का एहसास को समझाने के लिए ,सबको अलग सुख और अलग तरीके की तकलीफ देने के लिए ,भेड़ियों के पंजो से भाग जाने का साहस देने के लिए और मनुष्य को बुद्धि देने के लिए की वह शुद्ध और पीड़ा रहित जहर बना सकने में कामयाब हुआ |" ....यह पंक्तियाँ और यह कहानी इतनी सच्ची है की यह भूल नहीं सकते आप इसको पढने के बाद ...अंजली करेक्टर आपके आस पास घूमता रहता है और हर लिखी पंक्ति में अपनी बात अपने होने के एहसास दिलाता रहता है |
दूसरी कहानी जो मैंने पढ़ी इस संग्रह में गली के छोर पर अँधेरे में डूबी एक खिड़की ..शुरू होती है बहुत साधारण ढंग से यह कहानी सुदीप और रेशम की मुलाकतों की ....और फिर पढने वाला पाठक भी खुद को उस गली ,खिड़की के पास होने को महसूस करता है .किशोर जी की लिखी कहानी की यह विशेषता उसे पढने वाले को अलग नहीं होने देती ..."वह पगलाया हुआ दुधिया रौशनी के बिछावन पर खड़ा खिड़की को चूमता रहता था |कुछ नयी खुशबुएँ भी उस खिड़की में पहली बार मिली |एक रात इसी उन्माद में वह अपने सात रेशम की चुन्नी ले आया|वह रेशम के वजूद को टुकड़ों में काट कर अपने भीतर समेट लेना चाहता था |"पर यही कहानी आगे चल कर ऐसा मोड़ ले लेती है समझ के भी सब कुछ अनजाना सा महसूस होने लगता है ..ठीक इन लिखी पंक्तियों की तरह ..चाहे आप खुश हैं या दुखी .ये ज़िन्दगी अजब गलतफहमियों का पिटारा है |हरे भरे जंगलों में आग लगती है और वे राख में बदल जाया करते हैं |हम सोचते हैं कि जंगल बर्बाद हो गया लेकिन उसी राख से नयी कोंपलें फूटती है |" पढने में यह पंक्तियाँ किसी फिल्सफी सी लगती है पर ज़िन्दगी के सच के बहुत करीब हैं |
इस कहानी का अंत .मुझे अभी तक असमंज में डाले हुए हैं कि ..आखिर उस रात खिड़की पर कौन था ?इस कहानी के नायक सुदीप की तरह :)
तीसरी कहानी जो पढ़ी है वह है एक फासले के दरम्यान खिले हुए चमेली के फूल ....सफ़ेद खिले हुए यह फूल जब किसी याद से जुड़े हुए होते हैं तो कैसा सर्द और जलन का आभास देते हैं यह इस कहानी को पढ़ कर जाना जा सकता है ...एक घर ..घर के आँगन में लगी चमेली के फूल की बेल ...नैना और तेजिन्द्र सिंह के लिए एक यादों का जरिया है जो अपने खिले सफ़ेद फूलों से नैना के लिए बीती ज़िन्दगी का दर्द हैं वहीँ तेजिंदर के लिए उस बेटे की लगाईं बेल जो उसने अपनी माँ की पसंद को जान कर वहां लगाई थी पर अब वहां नहीं रहता ...उन फूलों की खुशबु दोनों के लिए एक दर्द की कसक है पर दोनों सिर्फ उसी कसक में अपनी जिंदगी सहजते रह जाते हैं .इंसान जिस चीज़ से पीछा छुड़ाना चाहता है कभी कभी वो ही अतीत सबसे ज्यादा शिद्द्त से पीछा करता है....यही इसी कहानी में नजर आता है |
...आसमां से टूटे तारे के बचे हुए अवशेष जैसा या फिर से हरियाने के लिए खुद को ही आग लगाते जंगल जैसा. जैसे जंगल खुद को आग लगता है वैसे ही कई पंछी भी आग में कूद जाते हैं. जंगल अपनी मुक्ति के लिए दहकता है या अपने प्रिय पंछियों के लिए,.....किशोर जी लिखने की यही विशेष शैली मन्त्र मुग्ध कर देती है .....यह कहानी भी ज़िन्दगी की सच्चाई के बहुत करीब की लगती है .वो परिवेश जिस में यह ढली है अपना सा ही लगता है ...यह कहानी बहुत दिनों तक याद रहने वाली है ..अपने कुछ विशेष भावों के साथ और आपकी लिखी इस जैसी कई पंक्तियों के साथ .जैसे यह ...."ये तुम्हारी ज़िद थी, और घर भी... मैं इसका भागीदार नहीं हूँ"किशोर जी की लिखी कहानियाँ भी यूँ ही कसक सी दे जाती है अंतर्मन में और महकती हैं इन्ही सफ़ेद फूलों की तरह ..हर कहानी का अंत सुखद हो यह जरुरी नहीं है ...अतीत में डूबे दोनों पात्र क्यों अपनी ज़िन्दगी के दर्द से उभर नहीं पाते यह सवाल भी सहसा मन में आता है | क्यों उस सफ़ेद फूलों में अपने अतीत के साथ वर्तमान को जी रहे हैं यह सोच साथ साथ छलकती रही है उनके लिखे शब्दों में |
इनकी लिखी कहानियों के बारे में अधिक लिखना मेरे लिए बहुत संभव नहीं है ,बस यह वह कहानियाँ है जिस में आप खुद को पाते हैं ,इन में लिखे वाक्य आपको अपने कहे लगते हैं ..दर्द की लहर जब पढ़ते हुए पैदा होती है तो वह लहर अपने दिल से उठती हुई सी लगती है .."जगह जगह उगा हुआ खालीपन" जैसे शब्द आपको अपने अन्दर खालीपन का एहसास करवाते हैं |
बहुत कुछ लिखा जा चुका है अब तक किशोर जी के लिखे इस संग्रह के बारे में ...अधिक क्या लिखूं यह अभी तक पढ़ी गयी कहानियों में मेरी पंसद की पंक्तियाँ है ....बहुत बढ़िया शुरुआत है यह हिंदी कहानी में इस संग्रह के साथ ..आगे और भी बेहतर पढने को मिलेगी इसी उम्मीद के साथ फिर कोशिश करुँगी कुछ और लिखने की उनकी पढ़ी कहानियों पर .....आप यह किताब इन्फीबीम और फ्लिप्कार्ट से ले सकते हैं
(इसके अलावे)
किशोर चौधरी और उनका लिखा मेरी कलम से .परिचय .....रेत के समंदर निशाँ मंज़िलों का सफ़र है. अतीत के शिकस्त इरादों के बचे हुए टुकड़ों पर अब भी उम्मीद का एक हौसला रखा है. नौजवान दिनों की केंचुलियाँ, अख़बारों और रेडियो के दफ्तरों में टंगी हुई है. जाने-अनजाने, बरसों से लफ़्ज़ों की पनाह में रहता आया हूँ. कुछ बेवजह की बातें और कुछ कहानियां कहने में सुकून है. कुल जमा ज़िन्दगी, रेत का बिछावन है और लोकगीतों की खुशबू है.
रुचि ----आकाशवाणी से महीने के 'लास्ट वर्किंग डे' पर मिलने वाली तनख्वाह
पसंदीदा मूवी्स--- जब आम आदमी किसी फिल्म को देखने का ऐलान करता है, टिकट खिड़की पर मैं भी अपना पसीना पौंछ लेता हूँ.
पसंदीदा संगीत ---लोक गीत और उनसे मिलते जुलते सुर बेहद पसंद है. कभी-कभी उप शास्त्रीय और ग़ज़लें सुनता हूँ.
पसंदीदा पुस्तकें ---किताबों को पढने की इच्छा अभी भी कायम है.
जिसका परिचय ही इतना रोचक हो ..उसके लिखे हुए को पढना कैसा होगा ,यह पढने वाला खुद ही जान सकता है :)
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ज़िन्दगी गुल्लक सी होती तो कितना अच्छा होता
सिक्के डालने की जगह पर आँख रखते
और स्मृतियों के उलझे धागों से बीते दिनों को रफू कर लेते. ...सच में ऐसा होता तो क्या न होता फिर ..
लिखना कैसे शुरू हुआ ....कहानी का पूछने पर उन्होंने बताया कि वह लिखते थे बहुत पहले से पर हर साल उन डायरी /कापी को फाड़ दिया करते थे .ताकि उनको कोई और न पढ़ सके क्यों कि उस समय उस में उम्र की वो नादानियाँ भी शामिल हो जाती थी जो समय के साथ हर इंसान जिनसे वाकिफ होता है ..फिर खुद उन्ही के शब्दों में "मैंने यूं ही कहानियाँ लिखनी शुरू की थी। जैसे बच्चे मिट्टी के घर बनाया करते हैं। ये बहुत पुरानी बात नहीं है। साल दो हज़ार आठ बीतने को था कि ब्लॉग के बारे में मालूम हुआ। पहली ही नज़र में लगा कि ये एक बेहतर डायरी है जिसे नेट के उपभोक्ताओं के साथ साझा किया जा सकता है।"हर महीने कहानी लिखी। कहानियाँ पढ़ कर नए दोस्त बनते गए। उन्होने पसंद किया और कहा कि लिखते जाओ, इंतज़ार है। कहानियों पर बहुत सारी रेखांकित पंक्तियाँ भी लौट कर आई। कुछ कच्ची चीज़ें थी, कुछ गेप्स थे, कुछ का कथ्य ही गायब था। मैंने मित्रों की रोशनी में कहानियों को फिर से देखा। मैंने चार साल तक इंतज़ार किया। इंतज़ार करने की वजह थी कि मैं समकालीन साहित्यिक पत्रिकाओं से प्रेम न कर सका हूँ। इसलिए कि मैं लेखक नहीं हूँ। मुझे पढ़ने में कभी रुचि नहीं रही कि मैं आरामपसंद हूँ। मैं एक डे-ड्रीमर हूँ। जिसने काम नहीं किया बस ख्वाब देखे। खुली आँखों के ख्वाब। लोगों के चेहरों को पढ़ा। उनके दिल में छुपी हुई चीजों को अपने ख़यालों से बुना। इस तरह ये कहानियाँ आकार लेती रहीं।..और आज हमारे सामने एक संग्रह के रूप में है |
उनके डे ड्रीमर में एक रोचक बात उन्होंने पेंटिंग सीखने की भी बताई कि कैसे उनके पिता जी ने उन्हें पेंटिंग सीखने के लिए भेजा और सिखाने वाले गुरु जी तो अपनी पेंटिंग सामने कुदरती नज़ारे को देख कर खो कर सीखा गए और किशोर जी आँखे खोले ड्रीम में खोये रहे कि उनकी पेंटिंग बहुत बढ़िया बनी है और लोग वाह वाही कर रहे हैं ..और गुरु जी के कहने पर ,आँख खुलने पर सामने खाली कैनवास था ..मजेदार रहा यह सुनना उनके खुद की जुबानी ..पर क्या यह मन का कैनवास वाकई कोरा रहा होगा .??.यहाँ तो कई सुन्दर कहानियाँ और बाते बेवजह जन्म ले रही थी |
उनसे हुई बात चीत में यह बातें वहां उनके जुबानी भी सुनी और उनकी नजरों से उनके लफ़्ज़ों में दिल्ली को भी देखा ..आईआईटी की दूजी तरफ
पश्चिमी ढब के बाज़ार सजे हैं
कहवाघरों के खूबसूरत लंबे सिलसिलों में
खुशबाश मौसम, बेफिक्र नगमें, आँखों से बातों की लंबी परेडें
कोई न कोई कुछ तो चाहता है मगर वो कहता कुछ भी नहीं है।
सराय रोहिल्ला जाते हुये देखता हूँ कि
सुबह और शाम, जाम में अकड़ा हुआ सा
न जाने किस ज़िद पे अड़ा ये शहर है। ये अद्भुत शहर है, ये दिल्ली शहर है। ...दिल्ली शहर को इस नजर से देखना वाकई अदभुत लगा |मुझे पढ़ कर ऐसा लगा कि लिखने वाला दिल, दिमाग अपनी ही सोच में उस शहर को लिखता है परखता है ..वह बहुत बार दिल्ली आये होंगे पर मैं अब भी याद करूँ तो उनकी वही उत्सुक सी निगाहें याद आती है जो बरिस्ता कैफे के आस पास घूमते .बैठे लोगो को देख रही थी .सोच रही थी .और मन ही मन कुछ न कुछ लफ्ज़ बुन रही थी |पक्के तौर पर कह सकती हूँ कि जो सोचा बुना गया उस वक़्त ,वह हम हो सकता है आगे आने वाली कहानियों में पढ़े या बातें बेवजह में सुने |
उनके संग्रह चौराहे पर सीढियां कहानियों पर कुछ लिखा है पहले भी ..पर वो सिर्फ तीन पढ़ी कहानियों पर था .जैसे जैसे उनकी और कहानियाँ पढ़ी ..उनके लिखे से उन्हें और समझने की कोशिश जारी रही ..कोई भी कहानी यदि आपके जहन पर पढने के बाद भी दस्तक देती रहे तो वह लिखना सार्थक हो जाता है | और जब पढने वाला पाठक यह महसूस करे की उन में लिखे कई वाक्य बहुत कुछ ज़िन्दगी के बारे में बताते हैं और उन में साहित्य ,ज़िन्दगी का फलसफा मौजूद है .साथ ही यह भी कि हर कहानी ऐसी नहीं की आप समझ सको पर उसने में लिखी बातें आपको कुछ सोचने समझने पर मजबूर कर दे तो लिखना वाकई बहुत असरदार रहा है लिखने वाले का | यह संग्रह अपनी चौदह कहानियों में कही गयी किसी न किसी बात से पढने वाले के दिलो दिमाग पर दस्तक देता रहेगा ...बेशक यह एक बैठक में न पढ़ा जाए पर यदि आप अच्छा साहित्य पढने वालों में से हैं तो यह संग्रह आपकी बुक शेल्फ में अवश्य होना चाहिए | चौराहे पर सीढियां यह शीर्षक ही पढने वाले को एक ऐसी जगह में खड़ा कर देता है कि आप अपना रास्ता किस तरह से कहाँ कैसे चुनना चाहते हैं वह आपके ऊपर है |समझना भी शायद आपके ऊपर है कि आप उसको कैसे लेते हैं .बाकी पढने वालों का पता नहीं .पर मैं अक्सर कई कहानियों में गोल गोल सी घूम गयी ..और वह मेरे पास से हो कर गुजर गयी ..यही कह सकती हूँ शायद वह सीढियां जो बुनी गयी लफ़्ज़ों में ,मैं उन पर चढ़ने समझने में नाकाम रही ...लिखने वाले ने अपनी बात पूरी ईमानदारी से लिखी होगी |
....अब कुछ बातें उनकी बेवजह बातों पर ....मुझे वह बातें कभी कविता सी नहीं लगी .बस बातें लगी जो अक्सर हम खुद बा खुद से करते हैं ,या अक्सर मन ही मन कुछ बुनते रहते हैं लफ़्ज़ों में .....मुझे यह बेवजह बातें दिली रूप से पसंद हैं क्यों कि मुझे यह दिल की आवाज़ लगीं और जब जब पढ़ा सीधे दिल में उतरीं ..और जब किशोर जी से जाना की क्यों उन्होंने यह बेवजह बातें लिखनी शुरू की तो एक मुस्कान मेरे चेहरे पर आ गयी .अक्सर ज़िन्दगी आपको उन लोगो से मिला देती है जिस को आप बहुत कुछ कहना चाहते हैं पर कह नहीं पाते हैं ..मेरे ख्याल से यदि वह बाते कहने वाले के हाथ में कलम है तो इस से बेहतर जरिया कोई नहीं हो सकता अपनी बातों को कहने का ..पर चूँकि यह बातें बेवजह है ..सो यह आसानी से अपनी जगह आपके दिल में भी बना लेती है .और मुझे लगता है कि हर इंसान कभी न कभी इस मोड़ से इस राह से गुजरा जरुर है ....
तुम ख़ुशी से भरे थे
कोई धड़कता हुआ सा था
तुम दुःख से भरे थे
कोई था बैठा हुआ चुप सा. ..........और यह सब कुछ उसके बारे में है जो है ही नहीं
सब कुछ उसी के बारे में है
चाय के पतीले में उठती हुई भाप
बच्चों के कपड़ों पर लगी मिट्टी
अँगुलियों में उलझा हुआ धागा
खिड़की के पास बोलती हुई चिड़िया।
....इन बातों बेवजह में अक्सर शैतान का जिक्र आया है जो कहीं अपनी ही आवाज़ सा लगता है ....
हवा में लहराती हरे रंग की एक बड़ी पत्ती से
प्रेम करने में मशगूल था, हरे रंग का टिड्डा
पीले सिट्टे की आमद के इंतज़ार में थी पीले रंग की चिड़िया
शैतान ने सोचा आज उसने पहना होगा, कौनसा रंग.....यह सवाल बहुत साधारण सा होता हुआ भी ख़ास सा लगता है | उनकी बाते बेवजह में उनके रहने की मिटटी का रंग भी अक्सर कई जगह पढने को मिला है जो एक स्वाभविक रंग है आप जहां रहते हैं वहां का होना आपके लिखे में सहजता से अपनी जगह बना लेता है
..........उन्ही के शब्दों में ..किसी शाम को छत पर बैठे हुये सोचा होगा कि यहाँ से कहाँ जाएंगे। बहेगी किस तरफ की हवा। कौन लहर खेलती होगी बेजान जिस्म से। किस देस की माटी में मिल जाएगा एक नाम, जो इस वक़्त बैठा हुआ है तनहा। उसको आवाज़ दो। कहो कि तनहाई है। बिना वजह की याद के मिसरे हैं। रेगिस्तान में गीली हवा की माया है। पूछो कि तुम कहीं आस पास हो क्या? अगर हो तो सुनो कि मेरे ख़यालों में ये कैसे
लफ़्ज़ ठहरे हैं…. "
स्त्री मन के कई रंग भी उतरे हैं उनकी बाते बेवजह में ........
ख़ूबसूरत औरतें नहीं करती हैं
बदसूरत औरतों की बातें
वे उनके गले लग कर रोती हैं।
दुःख एक से होते हैं, अलग अलग रंग रूप की औरतों के। ......यदि कोई पुरुष मन इस बात को समझता है तो वह बहुत बेहतरीन तरीके से ज़िन्दगी को समझ सकता है |बाते बेवजह बहुत सी है और उन पर जितना लिखा जाए वह बहुत कम ...किशोर जी का लिखा और उनसे मिलना मुझे कहीं से भी एक दूजे से जुदा नहीं लगा | एक बहुत सरल ह्रदय इंसान जो लिखता तो खूबसूरती से है ही उतना ही जुड़ा हुआ है अपनी मिटटी से अपने परिवार से ...और अपने पढने वाले पाठकों से ...बाते बेवजह चढ़ रही है धीरे धीरे कहानी बुनती हुई अपनी सीढियां कदम दर कदम और अपने होने के एहसास जगा रही है हर पढने वाले के दिल में |यही बहुत बड़ी बात है | कोई भी लिखने वाला आगे तभी बढ़ पाया है जब उसको पढने वालों से सरहाना मिली है प्यार मिला है और किशोर जी की झोली में उनके पाठकों ने यह भरपूर दिया है |
पहले कदम हैं अभी इन सीढ़ियों पर चढ़ने पर ..कुछ अलग से लग सकते हैं पर मजबूत हैं और अपनी मंजिल तक पहुंचेंगे जरुर यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है और साथ ही यह भी कि ब्लॉग के लेखन से शुरू हुआ यह सफ़र अब आगे और भी लिखने वालों को ,पढने वालों को एहसास दिलवा देगा की ब्लॉग लेखन सिर्फ समय खर्च या पास करने का जरिया नहीं है यह आगे साहित्य को समृद्ध करने का रास्ता भी है | चलते चलते उन्ही का बताया हुआ याद आया कि उनके डे ड्रीम में एक ऐसा मंच भी है या था अब भी (किशोर जी यह बेहतर जानते होंगे) कि वह रेड कारपेट पर चल रहे हैं आस पास बहुत सी सुन्दर कन्याएं हैं :) और वाकई उनको आज प्यार करने वालों और चाहने वालों की कमी नहीं है ...आज जब उनके दो संग्रह आ चुके हैं तो लगता है यह ड्रीम असल में रंग जरुर जाएगा यही दुआ है कि वह ज़िन्दगी के सुन्दर रास्ते पर ..यूँ ही मंजिल दर मंजिल सीढियां चढ़ते रहे | उन्ही की लिखी एक बेवजह बात ..जो मुझे बेहद बेहद पसंद है ,क्यों कि यह बहुत सच्ची है ज़िन्दगी सी . और कम से कम मेरे दिल के तो बहुत ही करीब है
दरअसल जो नहीं होता,
वही होता है सबसे ख़ूबसूरत
जैसे घर से भाग जाने का ख़याल
जब न हो मालूम कि जाना है कहां.
लम्बी उम्र में कुछ भी अच्छा नहीं होता
ख़ूबसूरत होती है वो रात, जो कहती है, न जाओ अभी.
ख़ूबसूरत होता है दीवार को कहना, देख मेरी आँख में आंसू हैं
और इनको पौंछ न सकेगा कोई
कि उसने जो बख्शी है मुझे, उस ज़िन्दगी का हाथ बड़ा तंग है.
कि जो नहीं होता, वही होता है सबसे ख़ूबसूरत.
चौराहे पर सीढ़ियाँ/कहानियाँ/ पृष्ठ 160/ मूल्य 95 रु./ प्रकाशक हिन्द युग्म/
प्रेम न हाट बिकाय......... - कुछ मेरी कलम से(रंजना भाटिया)
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।
प्रेम के ढाई आखर हर किसी के दिल में एक मीठी सी गुदगुदी पैदा कर देते हैं। कभी ना कभी हर व्यक्ति इस रास्ते से हो कर ज़रूर निकलता है पर कितना कठिन है यह रास्ता। कोई मंज़िल पा जाता है तो कोई उम्र भर इस को जगह-जगह तलाशता रहता है। किसी एक व्यक्ति के संग बिताए कुछ पल जीवन को एक नया रास्ता दे जाते हैं तब जीवन मनमोहक रंगो से रंग जाता है और ऐसे पलों को जीने की इच्छा बार-बार होती है।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।
रवीन्द्र प्रभात , हिन्दी साहित्य में एक ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने साहित्यक ब्लॉगस को बड़ी गंभीरता से लिया और ब्लॉग के मुख्य विश्लेषको के रुप में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया । रवीन्द्र जी द्वारा लिखित उनका दूसरा उपन्यास “ प्रेम न हाट बिकाय” पढा अभी जो प्रेम संबंधो पर आधारित हैं । इससे पहले उनका उपन्यास “ ताकि बचा रहे लोकतन्त्र” भी चर्चित रहा ।वह भी मैंने पढा था ..वह दलित विमर्श पर आधारित था| यह प्रेम न हाट बिकाय विशुद्ध रूप से प्रेम पर आधारित है| प्रेम के विषय में जितना कहा जाए उतना ही कम है .यह इतना व्यापक क्षेत्र है कि कुछ भी कहना इस पर मुझे तो कम लगता है | एक बार इस पर लिखी थी कुछ पंक्तियाँ
प्रेम एकांत है
नाम नही
जब नाम बनता है
एकांत ख़त्म हो जाता है !! प्रेम जब यह हो जाए तो कहाँ देखता है उम्र ,,कहाँ देखता है जगहा ,और कहाँ अपने आस पास की दुनिया को देख पाता है बस डूबो देता है ख़ुद में और पंहुचा देता है उन ऊँचाइयों पर जहाँ कोई रूप धर लेता है मीरा का तो कही वो बदल जाता है रांझा में .....पर सच्चा प्रेम त्याग चाहता है ,बलिदान चाहता है उस में दर्द नही खुशी का भाव होना चाहिये| बस यही कहानी इस उपन्यास की है ...आपने नाम के अनुसार यह उपन्यास प्रेम की धुरी पर स्थापित दो समांतर प्रेम वृतों की रचना करता है, जिसके एक वृत का केंद्र प्रशांत और स्वाती का प्रेम-प्रसंग है तो दूसरे वृत की धुरी है देव और नगीना का प्रेम । एक की परिधि सेठ बनवारी लाल और उनकी पत्नी भुलनी देवी है तो दूसरे की परिधि देव की माँ राधा । इन्हीं पात्रों के आसपास उपन्यास का कथानक अपना ताना वाना बुनता है । पूरी तरह से त्रिकोणीय प्रेम प्रसंग पर आधारित है यह उपन्यास । रविंदर जी ने इस उपन्यास में प्रेम के स्वरूप को देह से निकाल कर अध्यात्म तक पहुँचाने का प्रयास इसी कहानी के माध्यम से किया है |
मैंने जो इस उपन्यास में महसूस किया वह यही इसी अध्यात्म प्रेम को महसूस किया और जाना कि हम सभी ईश्वर से प्रेम करते हैं और साथ ही यह भी चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग उस ईश्वर से प्रेम करें पूजा करें वहाँ पर हम ईश्वर पर अपना अधिकार नही जताते !हम सब प्रेमी है और उसका प्यार चाहते हैं परन्तु जब यही प्रेम किसी इंसान के साथ हो जाता है तो बस उस पर अपना पूर्ण अधिकार चाहते हैं और फिर ना सिर्फ़ अधिकार चाहते हैं बल्कि आगे तक बढ जाते हैं और फिर पैदा होती है शंका ..अविश्वास ...और यह दोनो बाते फिर खत्म कर देती हैं प्रेम को ...मीरा को कभी भी श्री कृष्णा और अपने प्यार पर कभी अविश्वास नही हुआ जबकि राधा को होता था अपने उसी प्रेम विश्वास के कारण कृष्णा को मीरा को लेने ख़ुद आना पड़ा प्रेम चाहता है सम्पूर्णता , मन का समर्पण ,आत्मा का समर्पण ....तन शाश्वत है .,.हमेशा नही रहेगा इसलिए तन से जुड़ा प्रेम भी शाश्वत नही रहता जिस प्रेम में अविश्वास है तो वह तन का प्रेम है वह मन से जुड़ा प्रेम नही है जिस प्रेम में शंका है वह अधिकार का प्रेम है........बस वही नजर इसी उपन्यास में नजर आती है |खुद रविन्द्र प्रभात जी के शब्दों में विवाह जैसी संस्था की परिधि में उन्मुक्त प्रेम की तलाश है यह उपन्यास । इसमें कथा की सरसता भी आपको मिलेगी और रोचकता भी । मित्रता, त्याग,प्यार और आदर्श के ताने बाने से इस उपन्यास का कथानक रचा गया है जो पाठकों को एक अलग प्रकार की आनंदानुभूति देने में समर्थ है ।
इस उपन्यास का मुख्य पात्र प्रशांत और स्वाती है जिनके इर्द-गिर्द उपन्यास से जुड़ी समस्त घटनाएँ हैं जो पूरे उपन्यास को आगे बढ़ाती हैं । प्रशांत ग्रामीण परिवेश मे पला एक निम्न माध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता है जो शादी-शुदा है और स्वाती एक व्यवसायी की पुत्री है जो शहरी परिवेश मे पली बढ़ी है। घर में लड़ाई होने के कारण प्रशांत शहर आ जाता है और स्वाति के पिता के पास नौकरी करते करते स्वाति के प्रेम में पड़ जाता है |स्वाति जानती है कि प्रशांत विवाहित है पर प्रेम पर कब कौन रोक लगा पाया है और नारी शब्द ही प्रेम से जुडा है और जब नारी प्रेम करती है तो फिर सच्चे मन से खुद को समर्पित कर देती है |औरत प्रेम की गहराई में उतर सकती है |औरत के लिए मर्द की मोहब्बत और मर्द के लिए औरत की मोहब्बत एक दरवाज़ा होती है और इसे दरवाज़े से गुज़र कर सारी दुनिया की लीला दिखाई देती है |और जब यह प्रेम हो जाए तो प्यार का बीज जहाँ पनपता है वहां दर्द साथ ही पैदा हो जाता है और वह दर्द जुदाई के दर्द में जब हो जाए तो इश्क की हकीकत ब्यान कर देता है ..स्वाति प्रशांत से प्रेम करती है और देव स्वाति से ...सब एक दूजे से जुड़े हुए हैं पर सब के अपने रास्ते हैं |......... यह भी एक हक़ीकत है कि मोहब्बत का दरवाज़ा जब दिखाई देता है तो उस को हम किसी एक के नाम से बाँध देते हैं| पर उस नाम में कितने नाम मिले हुए होते हैं यह कोई नही जानता. शायद कुदरत भी भूल चुकी होती है कि जिन धागो से उस एक नाम को बुनती है वो धागे कितने रंगो के हैं, कितने जन्मो के होते हैं..वही इस कथानक में स्वाति और प्रशांत के प्रेम के लिए कहा जा सकता है |इसी कथा क्रम में नगीना और देव भी जुड़ जाते हैं और उपन्यास एक रोचक मोड़ ले कर धीरे धीरे अपनी कहानी के गिरफ्त में ले लेता है ..
पूरे उपन्यास में बनारस की आवोहवा और बनारस की संस्कृति हावी है । जिस के लिए रविन्द्र जी कहते हैं कि र्मैंने बनारस मे कई बरस गुजारें है इसलिए बनारसी परिवेश को उपन्यास मे उतारने मे मुझे मेरे अनुभवों ने काफी सहयोग किया । रविन्द्र जी के कुछ लफ्ज़ कहीं पढ़े थे इसी उपन्यास के सम्बन्ध में कि मेरी राय मे यदि विवाह उपरांत आपसी सहमति से प्रेम संबंध बनते हैं तो गलत नहीं है, क्योंकि हर किसी को अपनी पसंद-नापसंद का अधिकार होना ही चाहिए न कि किसी के थोपे हुये संबंध के निर्वहन मे पूरी ज़िंदगी को नीरसता मे धकेल दिया जाया । हो सकता है मेरे विचारों से आप इत्तेफाक न रखें मगर यही सच है और इस सच को गाहे-बगाहे स्वीकार करना ही होगा समाज को, नहीं तो एक पुरुष प्रधान समाज मे स्त्री की मार्मिक अंतर्वेदना के आख्यान का सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा, ऐसा मेरा मानना है ।" यह सबकी अपनी अपनी सोच हो सकती है प्यार की आभा के विस्तार में ना तो दूरी मायने रखती है ना ही कोई तर्क वितर्क . त्याग भी एक सीमित अर्थ वाला शब्द बन जाता मुहब्बत में. प्यार को किसी शब्द सीमा में बांधना असंम्भव है ...सोलाह कलाएं सम्पूर्ण कही जाती है पर मोहब्बत .इश्क सत्रहवीं कला का नाम है जिस में डूब कर इंसान ख़ुद को पा जाता है |
इस उपन्यास में कहीं कहीं नाटकीय प्रभाव भी देखने को मिला है सच्चाई और कल्पना से बुना यह उपन्यास कहीं कहीं बहुत भावुकता भी बुन देता है जो मुझे पढ़ते हुए इस में अवरोध ही लगी है | इस किताब के प्रथम पन्ने पर प्रताप सहगल के लिखे से मैं भी सहमत हूँ कि यथार्थ और आदर्श मूल्यों के बीच झूलती उपन्यास की कथा कहीं कहीं मेलोड्रेमिक भी हो जाती है जो हमें भावुकता के संसार से रु बरु करवा देती है और कहानी को जिस तरह से लिया गया है इसको पुरानी तर्ज पर नया उपन्यास कहा जा सकता है |बहुत सही कहा है उन्होंने ..मुझे भी पढ़ते हुए परिवेश और कई जगह इस में लिखे अंश पुरानी तर्ज़ याद दिला गए | रविन्द्र जी के अनुसार इस उपन्यास को लिखने की खास वजह यह रही कि प्रेम की स्वतन्त्रता और विवाह जैसी संस्था आदि विवादित विषयों पर नए सिरे से पुन: गंभीर बहस हो । और जब तक यह पढा नहीं जायेगा तो बहस कैसे होगी .इस लिए कहूँगी कि पढने लायक है एक बार आप जरुर पढियेगा इसको |
कुछ मेरी कलम से kuch meri kalam se **: खुद की तलाश(रंजना भाटिया)
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiAZs6acWP17CRhQMfWRCaNGt35TNKDTeoCdZKEN_14n1Plo3GZmFBaXw_ayHjUd7RSKNiOl8rluq4gsDoaGD_67lY26K1zZP7XZpBwNa7uKG70GvQB47evdcLy8ormUorNuPaO-Mhyphenhyphen6s0T/s200/401115_2643941372460_1073385559_32195717_30440972_n.jpg)
यह तलाश क्या है ,क्यों है
और इसकी अवधि क्या है
क्या इसका आंरम्भ स्रष्टि के आरम्भ से है
या सिर्फ यह वर्तमान है
या आगत के स्रोत इस से जुड़े हैं ........ऐसे ही कितने प्रश्न है जो हम खुद से ही कितनी बार करते हैं और अपनी खोज में लगे रहते हैं [और तलाश नहीं पाते खुद को खुद में ही ..खुद से लगातार बाते करना ही इस खोज को कुछ सरल जरुर कर देता है और यही कोशिश रश्मि जी के लिखे इस संग्रह में दिखी है ...उनके ब्लॉग पर लिखे शब्द भी उनकी इसी तलाश का परिचय देते हैं
![](http://mahavir.files.wordpress.com/2008/07/ranjana-bhatia-1.jpg)
खुद की तलाश हिन्द युग्म द्वारा प्रकाशित हैं और उनका यह काव्य संग्रह पंद्रह तलाश पत्री में लिखा हुआ है हर भाग अपनी तलाश में खुद पढने वाले को भी तलाश की राह दिखाता जाता है |और अपना सफ़र तय करता जाता है पढने वाले को संग लिए हुए |एक लड़की की ज़िन्दगी अधिकतर चिड़िया सी होती है इस बात को कवियत्री ने बहुत सुन्दर शब्दों में कहा है
चिड़िया देखती है अपने चिडों को
उत्साह से भरती है .ख्वाब सजाती है चहचहाती हैं
कुछ उड़ानें और भरनी है
यह कुछ अपना बल है
फिर तो
हम जाल ले कर उड़ ही जायेंगे ...यह उड़ान सिर्फ शब्दों की ही नहीं ,कवियत्री मन की भी है ,जो उड़ना चाहती है सुदूर नीले गगन में ..बिना किसी रुकावट के .....इसी खंड में उनकी एक और रचना
जब मासूम ज़िन्दगी अपने हाथो में
अपनी ही शक्ल में मुस्कारती है
तो जीवन के मायने बदल जाते हैं ...सीख देना ,बड़ी बातें कहना बहुत आसान लगता है ,जब तक हम खुद उस मुश्किल हालत से नहीं गुजरते और जब ज़िन्दगी अपनी गोद से उतर कर चलना सीखती है तो ज़िन्दगी को एक नए नजरिये से देखने लगती है
यही तलाश फिर दूसरे भाग में रिश्तों की तलाश में शामिल हो जाती है |जिस में सबसे प्रमुख है माँ का रिश्ता जो पास न हो कर भी हर वक़्त पास होती है ...,
मैंने तुम्हारी आँखों से
उन हर सपनों को देखा है
जिसके आगे ,मेरी दुआओं से कहीं आगे
तुम्हारी इच्छा शक्ति खड़ी रही .....माँ ऐसी ही तो होती है ..वह जो विश्वास दिल में भरती है उस से चूकना सहज है ही कहाँ ?हर रिश्ता कोई न कोई अर्थ लिए होता है और जो बीत गया वह भूल नहीं पाता दिल ..आज की ख़ुशी में भी बीते वक़्त की परछाई मौजूद रहती है ...
बातें खत्म नहीं होती
खुदाई यादों की चलती ही रहती है ..सच है यह ज़िन्दगी का ...साथ साथ चलते लम्हे आज़ाद नहीं है बीते हुए वक़्त की क़ैद से ..इस संग्रह में लिखा हर खंड अपनी बात अपनी तरह से कहता है ...ज़िन्दगी के सवाल जवाब जो रहस्यमयी भी है ,उतर भी देते हैं वही अनुत्तरित भी हैं ..ज़िन्दगी में क्या खोया क्या पाया यह हिसाब किताब साथ साथ चलते रहते हैं ..कर्ण से हम प्रभवित जरुर होते हैं पर लक्ष्य अर्जुन का होता है ..और जब नीति की बातें होती है वही जीवन की मूलमंत्र कहलाती है
नीति की बातें
संस्कार की बातें
जीवन का मूलमंत्र होती है
पर यदि वह फांसी का फंदा बन जाए
तो उस से बाहर निकलना
समय की मांग होती है ....सच है ...वक़्त के साथ साथ चलना ही समझदारी है | रश्मि जी के खुद की तलाश में कई पडाव हैं ज़िन्दगी के ..रिश्ते ,माता पिता से जुड़े हुए ..ईश्वर पर विश्वास ,ख्याल आदि बहुत खूबसूरती से जुड़े हैं और बंधे हैं लफ़्ज़ों में ..
मैं ख्यालों की एक बूंद
सूरज की बाहों में क़ैद
आकाश तक जाती हूँ
ईश्वर का मन्त्र बन जाती हूँ ,मैं ख्यालों की एक बूंद हूँ ......और इन्ही पंक्तियों के साथ वह आसानी से कह भी देतीं है की मैं जानती हूँ की तुम मुझे कुछ कदम चल कर भूल जाओगे ..ख्यालों की एक बूंद ही तो है मिटटी में मिल जायेगी या सूरज फिर तेज गर्मी से उसको वापस ले लेगा ..और वह फिर से बरसेगी इस लिए जब भी याद आऊं तो मुझे तलाशना .
शाम की लालिमा को चेहरे पर ओढ़ लो
रात रानी की खुशबु अपने भीतर भर लो
पतवार को पानी में चलाओ
बढती नाव में ज़िन्दगी देखो
पाल की दिशा देखो
जो उत्तर मिले मैं वो हूँ .............
खुद की तलाश में लिखने वाला मन ..सिर्फ अपने को कैनवस पर नहीं उतारता वह उस में जीता भी है और पढने वाला मन भी वही सकून पाता है जहाँ वह खुद को उस लिखे में पाता है ..
सत्य झूठ के कपड़ों से न ढंका हो
तो उस से बढ़ कर कुरूप कुछ नहीं
आवरण हटते न संस्कार
न अध्यात्म न मोह
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi4PkB7kEWk8liabShAOLg5ID2HqAO7XzF84ME_vgLN90WOQGgr3JMUk9lNg2UWdEXO8N_0V8cSB9i2eGPO6AjNIGYMLNbPKzhoMemD8GWAIsxKi6Ep-LkQxo6y1ByD96eU-oq3b81G9YU/s200/New+Parikalpna+Logo.jpg)
इस एहसास के दृशय पर टेक लगा लूँ
जिन पंछियों ने घोंसले बनाये हैं
उनके गीत सुन लूँ
आगे तो अनजाना विराम खड़ा है
जीवन की समाप्ति का बोर्ड लगा है
होगी अगर यात्रा
तो देखा जायेगा
मृत्यु के पार कोई आकाश होगा
तो फिर से खुद को खोजा जायेगा !!!
खुद की तलाश यूँ ही जारी रहेगी .............
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAqekd-jRc7YFvmEuV0X5eAZGxN17qfqHDShhlcUih7LZPnUagFOwOi9aAYZokYrHAmmD3TqGsuUrXtj4Bah_8Em_H2Y8JFoV1hzsiWwmMi9UIoNwYQ_mqN9LV_LVZbcm0mOzZtE-KHQU/s1600/khud-ki-talash-275x275-imadfyfz8sb2kyff.jpeg)
रंजना भाटिया की कलम की इस उक्ति में जो विश्वास है, वह स्पष्ट होता है -
'चलना चाहते हो मेरे संग तो बन आकाश चलो मैं धरती बन कर कहीं तो तुम्हे छू ही लूंगी दूर रह कर भी दिलो में हो प्यार सा सहारा लौटना चाहूँ भी तो भी लौट न सकूंगी थाम कर हाथ चलो संग मेरे वहां जहाँ कहीं दूर मिला करते हैं धरती गगन विश्वास के साए में नया जहान ढूंढ ही लूंगी !!'
आज का सारा कार्यक्रम समीक्षा पर ही केन्द्रित है ......इस क्रम को मैं आगे बढ़ाऊँ उससे पहले आइए चलते हैं वटवृक्ष पर जहां वाणी शर्मा उपस्थित हैं लेकर अत्यंत सुंदर और सारगर्भित कविता : तेरा होना जैसे कि कोई ख्याल
आप कविता का आनंद ले , मैं उपस्थित होती हूँ एक विराम के बाद ।
आज की यह समीक्षात्मक प्रस्तुति बहुत ही अच्छी लगी ...
जवाब देंहटाएंआभार आपका
रंजू जी के ब्लॉग पर ये समीक्षाएं पढ़ चुकी हूँ .... बहुत सटीक और सार्थक हैं ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंरंजना जी बेहद सटीक समीक्षा करती हैं....जिसे पढने के बाद किताब को पढ़ने की बेताबी बढ़ जाती है...
शुक्रिया दी.
सादर
अनु
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार (11-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
रंजना भाटिया जी की समीक्षा पद्धति बहुत सुन्दर है!
जवाब देंहटाएंरंजू जी आपकी समीक्षा बेहद ही उम्दा हैं .. आपने तो साहित्य जगत के तीन हीरे परख लिए जिनके रचनाओ को पढना भी हमारे लिय गौरव की बात हैं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक समीक्षा...
जवाब देंहटाएंRanju jee jis bhi book ko padhti hai, aisa lagta hai ye usko aatmsaat kar leti hai.. aur yahi wajah hain.. main inka FAN hoon... ye teeno book to meel ka pathar hai.. jisko Ranju ne apne shabdo me aur pyara bana diya..
जवाब देंहटाएं.
par mujhe Ranju jee ke dwara Kasturi ki sameekha bhi bha gayee thi..:)
dhanyawad Ranju jee:)
खुद की तलाश में लिखने वाला मन ..सिर्फ अपने को कैनवस पर नहीं उतारता वह उस में जीता भी है और पढने वाला मन भी वही सकून पाता है जहाँ वह खुद को उस लिखे में पाता है ..... :))
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