हाथों की लकीरें 
किस्मत का लिखा 
फिर भी तो है कुदरत का करिश्मा .... कुदरत का करिश्मा ही तो है यह परिकल्पना ... जिसकी मोहक धरती पर सब इकट्ठे हुए हैं और सौभाग्यशाली मैं, इनसे रूबरू करवा रही हूँ आपसबों को ...
तो मिलते हैं अब क्रमशः -----




शहरयार



दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये 
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये 
इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार 
दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिये 






शाहिद मिर्ज़ा शाहिद


बदला है क्या, कुछ भी नहीं, 
तुम भी वही, हम भी वही
फिर दरमियाँ क्यों फ़ासले, 
क्यों बन गई दीवार-सी


प्रतिभा सक्सेना



आज सामने हो मेरे ,
कल नहीं होगे !
तुम्हारे साथ होने का यह काल 
जीवन का बहुत सार्थक,
बहुत सुन्दर काल रहा !
पढ़ाते हुये और पढ़ते हुये तुम्हें,
निरखती रही अपने ही नये संस्करण,

प्रतिभा कटियार

एक याद
सपने की मानिंद
उतरती है
रोज़ पलकों में,
नींद की चाप
सुनते ही
पंखुड़ी-सी खुलने लगती है
आँखों में
शेरजंग गर्ग

ख़ुद से रूठे हैं हम लोग।
टूटे-फूटे हैं हम लोग॥

सत्य चुराता नज़रें हमसे,
इतने झूठे हैं हम लोग।

प्रभाकर माचवे

जब दिल ने दिल को जान लिया 
जब अपना-सा सब मान लिया 
तब ग़ैर-बिराना कौन बचा 
यदि बचा सिर्फ़ तो मौन बचा ! 



प्राण शर्मा

कौन उस-सा फ़कीर होता है
जो भी दिल का अमीर होता है

उस को क्या ख़ौफ़ है ज़माने का
साफ़ जिसका ज़मीर होता है



श्याम सखा 'श्याम'
भला 
लगता है 
आंगन में बैठना
धूप सेंकना 
पर
इसके लिये
वक़्त कहां ?
फ़ानी बदायूनी
जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूर 
इस आपकी ज़मीं से अलग, आस्माँ से दूर 

 फ़िराक़ गोरखपुरी
कभी पाबन्दियों से छुट के भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हो जिनमें वही ज़िन्दाँ नहीं होता


बशीर बद्र
हँसी मासूम सी बच्चों की कापी में इबारत सी
हिरन की पीठ पर बैठे परिन्दे की शरारत सी

राही मासूम रज़ा
क्‍या वो दिन भी दिन हैं
जिनमें दिन भर जी घबराए
क्‍या वो रातें भी रातें हैं
जिनमें नींद ना आए 

बालकवि बैरागी

आज मैंने सूर्य से बस ज़रा सा यूँ कहा
‘‘आपके साम्राज्य में इतना अँधेरा क्यूँ रहा ?’’
तमतमा कर वह दहाड़ा—‘‘मैं अकेला क्या करूँ ?
तुम निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूँ ?

बोधिसत्व

मैं चाहता हूँ
कि तुम मुझे ले लो
अपने भीतर
मैं ठंडा हो जाऊँ
और तुम्हें दे दूँ
अपनी सारी ऊर्जा

रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
मन की वीणा को निद्रा में, 
अभिनव तार सजाने दो! 
सपनों को मत रोको! 
उनको सहज-भाव से आने दो!! 

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
भेड़िए की आंखें सुर्ख हैं।
उसे तबतक घूरो
जब तक तुम्हारी आंखें
सुर्ख न हो जाएं

सुधा ओम ढींगरा

चाँदी रंग में रंगी हुई यह सुबह की धूप;
                  जीवन में उमंग जगाए यह सुबह की धूप!
गर्मी में लागे इसका ऐसा रूप निराला;
                   पसीने से सराबोर करे यह सुबह कि धूप!

भगवतीचरण वर्मा

मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ
अपने प्रकाश की रेखा
तम के तट पर अंकित है
निःसीम नियति का लेखा

लावण्या शाह
असीम अनन्त, व्योम, यही तो मेरी छत है!
समाहित तत्त्व सारे, निर्गुण का स्थायी आवास
हरी भरी धरती, विस्तरित, चतुर्दिक -
यही तो है बिछोना, जो देता मुझे विश्राम !

सुभद्राकुमारी चौहान

अभी अभी थी धूप, बरसने
लगा कहाँ से यह पानी
किसने फोड़ घड़े बादल के
की है इतनी शैतानी।
सूरज ने क्‍यों बंद कर लिया
अपने घर का दरवाजा़
उसकी माँ ने भी क्‍या उसको
बुला लिया कहकर आजा।

वर्तिका नन्दा

शहर के लोग अब कम बोलते हैं
वे दिखते हैं बसों-ट्रेनों में लटके हुए
कार चलाते
दफ्तर आते-जाते हुए
पर वे बोलते नहीं।

सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!


विनय प्रजापति 'नज़र'
आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है
दिल को बहलावा नहीं दर्द दिया जाता है
दर्द जो है इश्क़ में वह ही ख़ुदा है सबका
दर्द के पहलू में यार को सजदा किया जाता है


हरकीरत हकीर

कुछ उदास सी चुप्‍पियाँ
टपकती रहीं आसमां से
सारी रात...

बिजलियों के टुकडे़
बरस कर
कुछ इस तरह मुस्‍कुराये
जैसे हंसी की खुदकुशी पर
मनाया हो जश्‍न

मीराबाई

कोई कहियौ रे प्रभु आवन की,
आवनकी मनभावन की।
आप न आवै लिख नहिं भेजै ,
बाण पड़ी ललचावन की

मुनव्वर राना

थकी-मांदी हुई बेचारियाँ आराम करती हैं
न छेड़ो ज़ख़्म को बीमारियाँ आराम करती हैं

सुलाकर अपने बच्चे को यही हर माँ समझती है
कि उसकी गोद में किलकारियाँ आराम करती हैं ..................................... 

परिचय का क्रम स्वयं से भी चलता रहेगा, अब कृपया आप सब अपने अपने स्थान को ग्रहण करें .... मन की पेटी को कसकर बाँध लें, कहीं ऐसा ना हो कि परिकल्पना के मंच पर आपकी कल्पना उड़ान भरने लगे ... और 25 दिसम्बर तक की अवधि को बढानी पड़े :) 

आपलोग आप में शब्दों का आदान-प्रदान कीजिये , 
मुहब्बत क्या है ?
तब तक मैं  आगे के कार्यक्रमों को सुव्यवस्थित कर लूँ :)

24 comments:

  1. सुलाकर अपने बच्चे को यही हर माँ समझती है
    कि उसकी गोद में किलकारियाँ आराम करती हैं ..
    बहुत खूब ... हर बार की तरह इस बार भी बस हैरान हूँ !! आपके चयन एवं प्रस्‍तुति पर

    उत्‍सव के रंग अपनी छटा बिखेर ही रहे हैं आप के संग

    सादर


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  2. आपके चयन एवं प्रस्‍तुति पर .....
    काश ! आप देख पाती फटे नैन खुले मुख ............. !!

    जवाब देंहटाएं
  3. रंग-बिरंगे परिंदों की उड़ान
    उमंगो का खुला आसमान
    खिलने दो मन के पुष्पों को
    ताकि महके सारा जहान

    बहुत ही खूबसूरत चयन...

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  4. ऐसी प्रस्तुति है की बस.
    पढ़कर बार-2, पढ़ने को जी चाहता है।
    मेरा आज और, कहने को जी चाहता है।।

    जवाब देंहटाएं
  5. क्या कह सकता हूँ इन प्रस्तुतियों के बारे में ,
    'सुन्दर' कहने से भी तो तारीफ पूरी नहीं होती |

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  6. कितनी मे्हनत कर रही हैं जाहिर होता है आपके श्रम को नमन है…………बडे बडे कवियों से रु-ब-रु कराने और पढवाने के लिये हार्दिक आभार्।

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  7. मनमोहक प्रस्तुति, पढ़कर आनंद आ गया !

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  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    दो दिनों से नेट नहीं चल रहा था। इसलिए कहीं कमेंट करने भी नहीं जा सका। आज नेट की स्पीड ठीक आ गई और रविवार के लिए चर्चा भी शैड्यूल हो गई।
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (2-12-2012) के चर्चा मंच-1060 (प्रथा की व्यथा) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...!

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  10. बहुत सुन्दर चयन... परिकल्पना से भरपूर ..
    शानदार प्रस्तुति के लिए बधाई !

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  11. उत्कृष्ट चयन ! बार बार पढने का मन करता है

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  12. मनमोहक प्रस्तुति के लिए बधाई रश्मी जी,,,

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  13. मनभावन रचनाएँ...
    सभी कमाल..लाजवाब...
    :-)

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  14. बहुत बढ़िया प्रस्तुती ...शुभकामनाएं

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  15. बेहद खूबसूरत रचनाओं के प्रस्तुतीकरण के लिए और पाठकों तक पहुँचाने के लिए जो फलक आपने अनावृत किया है वह कितना मोहक है यह बता पाना संभव नहीं है ! आभार स्वीकार करें !

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  16. हे प्रभावती ' रश्मिप्रभा '
    ' परिकल्पना ' ने मुझे कल्पना के पंख लगा कर
    एक ऐसे दीव्याकाश में ला खड़ा कर दिया है कि
    मैं आश्चर्य चकित सी अपना नाम इन तमाम रचनाकारों के संग देख
    हतप्रभ हूँ ..
    ख़ास तौर से आदरणीया सुभद्रा कुमारी चौहान
    एवं पूज्य भगवती चरण वर्मा चाचाजी के बीच
    मेरी छवि देखकर असमंजस में हूँ ...अब और क्या लिखूं ?
    यह आपका स्नेह पूर्ण अपनापन जीवन के अंतिम क्षण तक याद रहेगा
    और अपनी स्वयं की कविता न देकर
    शिष्ट सौम्यता का जो अनोखा रंग अछूता रखा है
    उस पर बलिहारी जाऊं :-)
    अभी इतना ही बहुत सारा स्नेह
    व् आशिष सहित
    - लावण्यादी

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