हमारे बचपन की ढेरों मीठी कहानियाँ हैं - धूल से सने पांव पूरे घर में दौड़ना, धूप में शीतल छांव की तरह कच्चे टिकोले,अमरुद में स्वाद पाना - बाल कसकर पकड़े कुत्ते बिल्लियों की तरह लड़ना, डांट पड़ने पर मुस्कुराना,डींगें हांकना - अब तो रह गया है एक सपने सा बचपन . कहने को बच्चा,पर अधकचरे युवाओं से ज्ञान,हर क्षेत्र पर पकड़,होमवर्क से निजात नहीं, ........... और गिटपिट अंग्रेजी में विदेशी लगता चेहरा (अंग्रेज कभी नहीं गए,कहीं नहीं गए .... भारत की रगों में अपना रक्त भरकर हर कोने में खड़े हो गए), उपेक्षित नज़र लिए दुनिया का अवलोकन - आह !!!
बच्चों का कोना: बचपन को बचपन रहने दो(कैलाश शर्मा)
मत छीनो बच्चों का बचपन,
मत बोझ बढ़ाओ बस्तों का,
बच्चों का बचपन रहने दो.
बढ़ गया है बोझ किताबों का,
भागे पीछे न तितली के.
पेड़ों पर कभी न झूला झूले,
न चखे स्वाद हैं इमली के.
हो गए प्रकृति से दूर बहुत,
कार्टून जगत में रहें मस्त.
अनजान हैं छुपा छुपाई से,
विडियो गेमों में रहें मस्त.
अनजान हैं उगते सूरज से,
हैं नहीं चांदनी में खेले.
होम वर्क मिलता इतना,
अनजान हैं क्या होते मेले.
नंबर वन बनना है अच्छा,
पर इसे दवाब न बनने दो.
बचपन है एक बार मिलता,
बचपन को बचपन रहने दो.
अपनों का साथ: बचपन हमारा(अंजू चौधरी)
खुले खेत ..
कच्ची पगडण्डी
खेतो में पानी
उस राह...भागता
बचपन हमारा
पेड़ पर झूला
रुक कर उस में ..
झूलता बचपन हमारा
अमुया का पेड़ ..
पेड़ की छाया
बसते को फेंकता
बचपन हमारा
कच्ची अम्बी
झुकती डाली
डाल पे कूकती
कोयल काली काली
शरारत में
आम तोड़ता
बचपन हमारा
टाट की झोंपड़ी
धूप और बरसात से
खुद को और बच्चे को
छिपती एक माँ
हमारी जेब में
उछलते कन्चे
उस संग खेलता
कूदता बचपन हमारा
बेपरवाह ...सबसे
ट्रेक्टर की आवाज़
दोस्ती की डगर
उस पर हाथ पकड़
चढ़ता बचपन हमारा
दूर बजती विद्धालाये की घंटी
मास्टर जी की याद
आती छड़ी
विद्धालाये की ओर
भागता बचपन हमारा
मास्टर जी की क्लास
छिप छिप कर बैठते
हम ...
२ दुनी ४ की
भाषा में
कहाँ लगा अपना मन
खुली खिड़की से
झांकता ये स्वतंत्र मन
कभी आकाश के बादल
बादलों से आँख मिचौली
खेलते सूरज के
दुर्लभ दर्शन ..
तो कभी उडती
चिड़ियाँ को
गिनता ये बचपन
खुद की दुनिया को
बुनता और खो जाने वाला
ये बचपन .....
तभी पड़ी ...मास्टर जी छड़ी
तो वर्तमान में लौट के
आता ये बचपन .....
अनुशील: बचपन...!(अनुपमा पाठक)
वो खो गया है
दूर हो गया है
प्यारे प्यारे
अँधेरी काली रात में
जब टिमटिमाते हैं तारे
तो वहीँ कहीं
झलक अपनी दिखलाता है,
स्मृतियों के आकाश पर
धीरे से आता है!
कितने ही
खेल खिलौने याद दिलाने,
रूठे पलों को
फिर से मनाने!
वो था, तो सपने थे
वो था, तो सब अपने थे
एक मुस्कान ही
जग जीतने को पर्याप्त थी,
खुशियों की चाभी
जो प्राप्त थी!
सुन्दर मनोहर
भोला भाला था मन
फिर जाने कब?
विदा हो गया बचपन
अब तो बस
तारे टिमटिमाते रहते हैं
यदा-कदा
हम दोहराते रहते हैं-
उसकी महिमा उसका गान
काश! मिल जाए वो किसी शाम
फिर, पूछेंगे उससे
कि क्यूँ नहीं छोड़ गया?
कुछ मासूमियत के रंग...
मिल जाए,
तो सीख लें फिर उससे
जीवन का वो बेपरवाह ढ़ंग...
बोलो बचपन
मिलोगे न?
फिर से हृदय कुञ्ज में
खिलोगे न!
यादें...: mera bachpan(अशोक सलूजा)
मेरा बचपन
एक
वो बचपन का ज़माना,
था कितना मासूम
वो मुहं से सिटी बजाना
वो बिजली के खम्बे को
पत्थर से खटखटाना
घर से तुझ को बुलाना
तुझ से पहले तेरे बापू का आना
और मेरा फुर से भाग जाना॥ था कितना मासूम.........
वो जामुन के पेडो पर चढ़ना चढ़ाना
मार के पत्थर वो जामुन गिराना
वो उपर से माली का आना
और हमारा गिरते पढते वहां से
सरपट भाग जाना॥था कितना मासूम............
दो
होगा वो किस्सा तुझे याद भी
वो आपस में शर्ते लगाना
शर्ते लगा के माया राम हलवाई
के लड्डू चूराना,और देखना
तेरी तरफ करके बहाना
चोरी का लड्डू तुझ को थमाना॥
था कितना मासूम था कितना सुहाना.............
आता है याद वो स्कूल से भाग जाना
भाग कर सिनेमा कि लाइन में खडे हो जाना
टिकट के लिये हाथ मे मोहर लगवाना
देख के पिक्चर वो हाथ पर से
थूक से मोहर मिटाना॥ था कितना मासूम..............
घर पहूचं थकने का बहाना बनाना
वो रोब से अपनी शर्ते मनवाना
वो नानी से मिन्नते करवाना
मिन्नते करा के फिर मान जाना
फिर नखरे से न न करके
खाने को खाना॥ था कितना मासूम...............
तीन
भूला नही हूं वो आज भी
स्कूल से रिपोर्ट बुक का लाना
और फिर अपने ही हाथौ से
नम्बरं बडाना और फिर बडी
शान से सबको दिखाना॥था कितना मासूम.......
क्या दिन थे वो भी
था रामलीला का ज़माना
देखना रात रोज़ ९ से १२
सिनेमा का शौ और था
कभी राम को बनवास कभी लंका
दहन का बहाना॥था कितना मासूम.............
वो हसंना हसाना,वो रूठना मनाना
वो गुस्से में गाली,प्यार में गले लगाना
वो नखरे दिखना,वो मिन्नते कराना
मिन्नते कराके फिर मान जाना॥ था कितना मासूम................
चार
न किसी ने पूछा न समझा न जाना
कब कैसे और कहां खो गया
मेरा बचपन सुहाना॥ था कितना मासूम..............
कितने याद करूं वो बचपन के दिन
कितना याद करूं वो वक्त सुहाना
न रहें वो बचपन के दोस्त और
न रहा वो वक्त पूराना॥ था कितना मासूम.................
अब तो साथ हैं कुछ यादे उसकी
कुछ बीता हुआ वो वक्त सुहाना
वक्त के साथ मेरा भी खो गया बचपन
अब तो हो गया मैं भी
बुडा और पुराना॥ था कितना मासूम...................
था कितना सुहाना वो बचपन का ज़माना॥....
यूं ही याद करता हूं कभी कभी
किस्सा अपने बचपन का,
करते करते हो गया आज
मैं भी पचपन का॥...................१९९९. हाँ हाँ ....ये में ही हूँ .............................. .........
उपस्थित हैं अपनी कविता आजकल लेकर ........यहाँ किलिक करें
अहा, परिकल्पना में एक बार फिर बचपन का वर्चस्व | मेरा पसंदीदा विषय :)
जवाब देंहटाएंकितना सुन्दर और कितना विशाल होता है ये विषय , हर किसी ने कितने रंग उडेले हुए हैं इस विषय पर और इसे दिन पर दिन और निखारा ही है , आज की पोस्ट भी इसी श्रंखला को आगे बढ़ाती हैं |
सादर
sabhi kavitaaon ko padha achchha lagaa ..
जवाब देंहटाएंरश्मि जी ,बहुत-बहुत आभार आपका !
जवाब देंहटाएंहैरानगी और ख़ुशी से लबालब कर दिया आपने मुझे मेरे बचपन में लेजाकर ....
खुश और स्वस्थ रहें!
बचपन को याद दिलाती सुन्दर रचनाओं का चयन..एक बार फिर बचपन की यादें ताज़ा कर दीं...मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार...
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएं एक से बढ़कर एक ...सभी रचनाकारों को बधाई आपका आभार इस अनुपम प्रस्तुति के लिए
जवाब देंहटाएंबचपन के अलग-अलग रंग बहुत अच्छे लगे ..रचनाकारों को बधाई... प्रस्तुति के लिए आपका बहुत-बहुत आभार
जवाब देंहटाएंआज की परिकल्पना की प्रस्तुतियाँ पढ़ बस बेसाख्ता यही मुँह से निकाला...
जवाब देंहटाएंइन नन्हें नन्हें हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे!
बचपन की यादों को खूबसूरती से संजोया है।
जवाब देंहटाएंआभार ...रश्मि दी
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