मन स्थिर नहीं
जीवन स्थिर नहीं
रास्ते समतल नहीं
प्रश्नों के एक ही उत्तर नहीं
सिक्के के दो पहलु - पर सिक्का एक
मौसम अलग अलग - पर कभी भी परिवर्तित समावेश ... क्षणिक हो या स्थानीय !
विचारों की कोपलें निरंतर प्रस्फुटित होती हैं
आज चिंतन उद्यान की सैर करवाते हैं ...
तो स्त्री के साथ जो अन्यायी युद्ध होता है ,
वह सिद्ध करता है कि उसमें अपार क्षमता है
पति और बच्चों से बढकर कोई शस्त्र नहीं
और यदि वह इन अवश्यम्भावी शस्त्रों से विहीन है
तो इसके बगैर भी उसकी आत्मिक शक्ति उसके लिए शिव धनुष के समान है
अबला ना वह कभी थी ना है ना होगी ...
सुज्ञ: स्वार्थ का बोझ
एक आदमी अपने सिर पर अपने खाने के लिए अनाज की गठरी ले कर जा रहा था। दूसरे आदमी के सिर
पर उससे चार गुनी बड़ी गठरी थी। लेकिन पहला आदमी गठरी के बोझ से दबा जा रहा था, जबकि दूसरा
मस्ती से गीत गाता जा रहा था। पहले ने दूसरे से पूछा, "क्योंजी! क्या आपको बोझ नहीं लगता?"
दूसरे वाले ने कहा, "तुम्हारे सिर पर अपने खाने का बोझ है, मेरे सिर पर परिवार को खिलाकर खाने का।
स्वार्थ के बोझ से स्नेह समर्पण का बोझ सदैव हल्का होता है।"
स्वार्थी मनुष्य अपनी तृष्णाओं और अपेक्षाओं के बोझ से बोझिल रहता है। जबकि परोपकारी अपनी चिंता
त्याग कर संकल्प विकल्पों से मुक्त रहता है।
'मन' को जीवन का केंद्रबिंदु कहना शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी। मनुष्य की समस्त क्रियाओं, आचारों का आरंभ मन से ही होता है। मन सतत तरह-तरह के संकल्प, विकल्प, कल्पनाएं करता रहता है।मन की जिस ओर भी रूचि होती है,उसका रुझान उसी ओर बढता चला जाता है, परिणाम स्वरूप मनुष्य की सारी गतिविधियां उसी दिशा में अग्रसर होती है। जैसी कल्पना हो ठिक उसी के अनुरूप संकल्प बनते है और सारे प्रयत्न-पुरुषार्थ उसी दिशा में सक्रिय हो जाते है। अन्ततः उसी के अनुरूप परिणाम सामने आने लगते हैं.। मन जिधर या जिस किसी में रस-रूचि लेने लगे, उसमें एकाग्रचित होकर श्रमशील हो जाता है। यहाँ तक कि उसे लौकिक लाभ या हानि का भी स्मरण नहीं रह जाता। प्रायः मनुष्य प्रिय लगने वाले विषय के लिए सब कुछ खो देने तो तत्पर हो जाता है। इतना ही नहीं अपने मनोवांछित को पाने के लिए बड़े से बड़े कष्ट सहने को सदैव तैयार हो जाता है।
मन यदि अच्छी दिशा में मुड़ जाए; आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास में रुचि लेने लगे तो मानव व्यक्तित्व और उसके जीवन में एक चमत्कार का सर्जन हो सकता है। सामान्य श्रेणी का मनुष्य भी महापुरुषों की श्रेणी में सहज ही पहुंच सकता है। आवश्यकता 'मन' को अनुपयुक्त दिशा से उपयुक्त दिशा में मोड़ने की ही है। सारी कठिनाई मन के सहज प्रवाह पर नियंत्रण स्थापित करने की है। इस समस्या के हल होने पर मनुष्य सच्चे अर्थ में मानव बनता हुआ देवत्व के लक्षण तक सहजता से पहुंच सकता है।
शरीर-स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहने के समान ही हमें मन के प्रति और भी अधिक सचेत, सावधान रहने की जरूरत है। दोयम चिंतन, दुर्विचारों और दुर्भावनाओं से मन मलिन और पतित हो जाता है। उस स्थिति में मन अपनी सभी विशेषताओं और श्रेष्ठताओं से च्युत हो जाता है।
कहते है मन के प्रवाह को तो सहज ही बहने देना चाहिए। किन्तु मन के सहज बहाव पर भरोसा करना हमेशा जोखिम भरा होता है। क्योंकि प्रवाह के समान ही मन का पतन की तरफ लुढ़कना स्वभाविक है जबकि उँचाई की ओर उठना कठिन पुरूषार्थ भरा होता है। मन का स्वभाव बालक जैसा होता है, उमंग से भरकर वह कुछ न कुछ करना-बोलना चाहता है। यदि सही दिशा न दी जाए तो उसकी क्रियाशीलता तोड़-फोड़, गाली-गलौज और दुष्चरित्र के रूप में सामने आ सकती है।
नदी के प्रवाह में बहता पत्थर सहजता से गोल स्वरूप तो पा लेता है किन्तु उसकी मोहक मूर्ति बनाने के लिए अनुशासन युक्त कठिन श्रम की आवश्यकता होती है। ठिक उसी तरह मन को उत्कृष्ट दिशा देने के लिए विशेष कठोर प्रयत्न करने आवश्यक होते है। मन के तरूवर् को उत्कृष्ट फलित करने के लिए साकात्मक सोच की भूमि, शुभचिन्तन का जल, सद्भाव की खाद और सुविचार का प्रकाश बहुत जरूरी है। मन में जब सद्विचार भरे रहेंगे तो दुर्विचार भी शमन या गलन का रास्ता लेंगे।
प्रखर चरित्र और आत्म निर्माण के लिए, मन को नियंत्रित रखना और सार्थक दिशा देना, सर्वप्रधान उपचार है। इसके लिए आत्मनिर्माण करने वाली, जीवन की समस्याओं को सही ढंग से सुलझाने वाली, उत्कृष्ट विचारधारा की पुस्तकों का पूरे ध्यान, मनन और चिंतन से स्वाध्याय करना कारगर उपाय है। यदि सुलझे हुए विचारक, जीवन विद्या के ज्ञाता, कोई संभ्रात सज्जन उपलब्ध हो सकते हों तो उनका सत्संग भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है। जिस प्रकार शरीर की सुरक्षा और परिपुष्टि के लिए रोटी और पानी की आवश्यकता होती हैं उसी प्रकार आत्मिक शान्ति, सन्तुष्टि, स्थिरता और प्रगति के लिए मन को सद्विचारों, सद्भावों का प्रचूर पोषण देना नितांत आवश्यक है।
डायरी के पन्नों से: अर्थ वही जीवन को देता(अनीता निहलानी)
ज्ञान हमें मुक्त करने के लिए है न कि बांधने के लिए, कहीं यह हमारे अहंकार को बढ़ाने का साधन न बन जाये. इसके लिए हमें सतत् सजग रहना होगा. निरंतर आत्मा का विकास करते जाने के लिए आवश्यक है कि हम स्वाध्याय कभी न छोड़ें. अभी पथ पर चलना शुरू ही किया है, फिसलने का भी डर तो बना ही है. संत कहते हैं कि हम अपने दुखों से भी आसक्ति कर लेते हैं, पुराने किसी दुःख को हम बार-बार याद करते हैं और उसके संस्कार को दृढ करते जाते हैं. सुखों को हम अन्यों से छिपाते हैं कि हमारा सुख घट न जाये, हम कितने कृपण हैं. सहन शक्ति भी कम है, हमें कितने छोटे-छोटे सुख-दुख हिला जाते हैं, हमारी नसें तन जाती हैं, जैसे ही कोई अप्रिय घटना घटे या हमारे मन के विपरीत कुछ हो तो हमारी वाणी में रुक्षता छलक ही जाती है. हम जो ईश्वर के भक्त होने का दम भरते हैं, उसके बनाये जगत से ही प्रेम नहीं कर पाते. इसके कण-कण में भी तो उसकी ही चेतना है. वह परब्रह्म ही सबमें समाया है, वह हमारा जितना है उतना ही सभी का है, वह अनंत है उसका प्रेम सभी के लिए अनंत है. जो कोई भी उसे प्रेम से पुकारता है, वह उसकी सुनता है, वह सर्व मंगलकारी है. वह हमारे जीवन को एक अर्थ देता है, वह हमें एक लक्ष्य प्रदान करता है, स्वयं तक पहुंचने का लक्ष्य.
चिन्मय को पहचानें भीतर(अनीता निहलानी)
दुःख का कारण है, कारण को दूर किया जा सकता है, श्रवण करके संतों के वचनों का सार तत्व ग्रहण करना है, तभी हमारे जीवन में परिवर्तन होगा. यह तो सभी का अनुभव है कि जीवन में समस्याएँ आती हैं, रोग है, शोक है, पीड़ा है हमारे चारों और अन्याय है, भ्रष्टाचार है, हमारा मन ही जो निकटतम है, एक दिन में न जाने कितनी बार क्षोभ का शिकार होता है, चाहे क्षण भर के लिए ही सही, कभी लोभ का, मोह का शिकार भी होता है. शारीरिक कष्ट हमें सताता है, अनचाहा भी होता है और यह भी सही है कि सुख का अनुभव भी होता है, कभी कभी शांति व आनंद का अनुभव भी होता है पर वह टिकता नहीं. कोई न कोई लहर आकर उसे बहा ले जाती है. संतो का अनुभव हमारा अनुभव नहीं बन पाता. उनके वचनों का हम पूरी तरह पालन नहीं कर पाते, पर ऐसा तभी होता है जब हम अपने सत्यस्वरूप को भुला देते हैं, ज्ञान की उस ऊंचाई से नीचे गिर जाते हैं, समता में स्थित नहीं रह पाते, स्वयं को पल-पल बदलने वाला मृण्मय शरीर मान लेते हैं. हम चिन्मय आत्मा हैं, इस सच्चाई को नकारते ही हम नीचे फिसलने लगते हैं, सुख-दुःख के शिकार भी तभी होते हैं. ज्ञान ही हमें मुक्त करता है, तब जगत के सारे व्यापार पूर्ववत होते हुए भी असर नहीं डालते, क्योंकि वे क्षणिक हैं.
विश्वास और श्रद्धा नहीं ... बौद्ध धर्म की नीव(संगीता पुरी)
बौद्ध धर्म एक अनीश्वरवादी धर्म है, इसके अनुसार कर्म ही जीवन में सुख और दुख लाता है। भारत ही एक ऐसा अद्भूत देश है जहां ईश्वर के बिना भी धर्म चल जाता है। ईश्वर के बिना भी बौद्ध धर्म को सद्धर्म माना गया है। दुनिया के प्रत्येक धर्मों का आधार विश्वास और श्रद्धा है जबकि बौद्ध धर्म की नीव बुद्धि है, यह इस धर्म और गौतम बुद्ध के प्रति आकर्षित करता है। सभी धर्म अपना दर्शन सुख से आरम्भ करते हैं जो कि सर्वसाधारण की समझ से कोसों दूर होता है। महात्मा बुद्ध अपना दर्शन दुःख की खोज से आरम्भ तो करते हैं पर परिणति सुख पर ही होती है। बौद्ध धर्म का आधार वाक्य है ‘सोचो, विचारो, अनुभव करो जब परम श्रेयस् तुम्हारे अनुभव में आ जाये तो श्रद्धा या विश्वास करना नहीं होगा स्वतः हो जाएगा।’
बौद्ध धर्म के चार तीर्थ स्थल हैं- लुंबिनी, बोधगया, सारनाथ और कुशीनगर। लुम्बिनी नेपाल में , बोधगया बिहार में , सारनाथ काशी के पास और कुशीनगर गोरखपुर के पास है। बौद्ध धर्म एक धर्म ही नहीं पूरा दर्शन है। महात्मा बुद्ध ने इसकी स्थापना की, इन्हें गौतम बुद्ध, सिद्धार्थ, तथागत और बोधिसत्व भी कहा जाता है। उनके गुज़रने के अगले पाँच शताब्दियों में यह पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ैला और बाद में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फ़ैल गया। बौद्ध धर्म दुनिया का चौथा बडा धर्म माना गया है , क्योंकि इसे पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं। "अज्ञानता की नींद"से जागने वाले , जिन्होने सालों के ध्यान के बाद यथार्थता का सत्य भाव पहचाना हो , वे "बुद्ध" कहलाते हैं ।
बौद्ध धर्म के हिसाब से पहला आर्य सत्य दुःख है। जन्म दुःख है, जरा दुःख है, व्याधि दुःख है, मृत्यु दुःख है, अप्रिय का मिलना दुःख है, प्रिय का बिछुड़ना दुःख है, इच्छित वस्तु का न मिलना दुःख है। दुःख समुदय नाम का दूसरा आर्य सत्य तृष्णा है, सांसारिक उपभोगों की तृष्णा, स्वर्गलोक में जाने की तृष्णा और आत्महत्या करके संसार से लुप्त हो जाने की तृष्णा, इन तीन तृष्णाओं से मनुष्य अनेक तरह का पापाचरण करता है और दुःख भोगता है। तीसरा आर्य सत्य दुःखनिरोध है। तृष्णा का निरोध करने से निर्वाण की प्राप्ति होती है, देहदंड या कामोपभोग से मोक्षलाभ होने का नहीं। चौथा आर्य सत्य दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् है। यह दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् नामक आर्य सत्य भावना करने योग्य है। इसी आर्य सत्य को अष्टांगिक मार्ग कहते हैं। वे अष्टांग ये हैं :- 1. सम्यक् दृष्टि, 2. सम्यक् संकल्प, 3. सम्यक् वचन, 4. सम्यक् कर्मांत, 5. सम्यक् आजीव, 6. सम्यक् व्यायाम, 7. सम्यक् स्मृति, 8. सम्यक् समाधि। दुःख का निरोध इसी अष्टांगिक मार्ग पर चलने से होता है। पहला अंत अत्यंतहीन, ग्राम्य, निकृष्टजनों के योग्य, अनार्य्य और अनर्थकारी है। दूसरा अंत है शरीर को दंड देकर दुःख उठाना। इन दोनों को त्याग कर मध्यमा प्रतिपदा का मार्ग ग्रहण करना चाहिए। यह मध्यमा प्रतिपदा चक्षुदायिनी और ज्ञानप्रदायिनी है।
कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने व्यक्ति गत रूप से बौद्ध धर्म अपना लिया था , अशोक के शासनकाल में ही बौद्ध भिक्षु विभिन्नी देशों में भेजे गये, जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया । अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए धर्मयात्राओं का प्रारम्भ किया , राजकीय पदाधिकारियों और धर्म महापात्रों की नियुक्ति की, दिव्य रूपों का प्रदर्शन तथा धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था की लोकाचारिता के कार्य, धर्मलिपियों का खुदवाना तथा विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजने आदि काम किए। इस तरह विभिन्न् धार्मिक सम्प्रदायों के बीच द्वेषभाव को मिटाकर धर्म की एकता स्थापित करने में अशोक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
एक मध्यांतर लें, उससे पहले आइये चलते हैं वटवृक्ष पर जहां रागनी कह रही है : चाहिए एक विभीषण
चिंतन ,, जो आपको एक विचार के साथ छोड़ जाए | जिसकी समाप्ति के पश्चात भी मन उसी उधेड़बुन में लगा रहे | विचारशील लेख |
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