अतीत में वर्तमान जीता है भविष्य के सपने संजोये .... ज़िन्दगी यूँ न बसर हो तो सवेरा सवेरा सा नहीं लगता ....
हम वर्तमान में कब जीते हैं?
वर्तमान, जो
अनित्य, अनादि,
और है अनंत,
उस वर्तमान को त्यज,
सदा दौड़ते रहते,
या
भावी परिकल्पनाओं में खोए
विमुख
अपने आज से
यादें अतीत की
घेरे रहती
चहुँ ओर .
बार-बार धकेल देतीं
भूत के उस
अंतहीन कुएँ में
जिसका नहीं
कोई ओर-छोर
और ........
जैसे-तैसे
खींच यदि
वापस भी लाएँ
खुद को हम
तो भविष्य
सुनहरे सपनों के
बुनकर जाल
न जाने कितनी
मृगतृष्णाओं में उलझा
भटकने को करता
विवश
अतीत के अन्धकार में
तो कभी
भविष्य के विचार में
भरमाते हम
खो देते हस्तगत
वर्तमान के
मोती अनमोल
कुछ अद्भुत पल
खट्टे-मीठे से
कुछ प्यार भरे
सुकून के क्षण
और बदले में
हाथ क्या आता?
एक मुट्ठी यादों की राख,
कुछ सूखे मुरझाये पत्ते,
कुछ हाथ न आने वाली
स्वप्नों की
रंगीन तितलियाँ
जो पल में ओझल हो जातीं
भरमा कर
बीते और आने वाले
लम्हों में खोए
हम
वर्तमान में कब जीते हैं?
देह के घाव मायने नहीं रखते और मन ..... कहाँ दिखता है !!!
परवाज़...शब्दों के पंख: देह के घाव (डॉ. मोनिका शर्मा)
उसने यूँ अचानक आकर
मायके का दरवाज़ा खटखटाकर
सबको हैरान कर दिया
चिंतित , चकित अपने
बड़े विस्मित हुए
आँखों में कुछ प्रश्न लिए
उसे ताकने लगे और
अन्न-जल की जगह
उसने कुछ शब्द ही कहे थे
दिखाए ही थे कुछ ज़ख्म
कि समझाइशों का एक दौर चला
प्रस्तुत हुए अनगिनत उदहारण
अरे इसे देख ...उसे देख ....
और उसकी बस क्या बताऊँ ?
तेरा जीवन तो फिर भी अच्छा है
ये भी तो सोच तेरा एक बच्चा है
अपनों के बीच, अपनी उपस्थिति ने
उसे पराये होने के अर्थ समझाए
तभी तो देख, सुन ये सारा बवाल
उसके क्षुब्ध मन में उठा एक ही सवाल
देह के घाव नहीं दिखते जिन अपनों को
वे ह्रदय के ज़ख्म कहाँ देख पायेंगें ?
घरेलू हिंसा को लेकर यह बात न जाने क्यूं हमारे परिवारों में अक्सर देखने में आती है कि एक लड़की के मायके के लोग , उसके अपने भी बेटी की बात नहीं सुनना चाहते । बस, भयभीत हो जाते हैं कि कहीं बेटी वापस लौट आई तो क्या होगा ? देखकर भी अनदेखा करते हैं वे अपनी ही बेटी या बहन की शारीरिक और मानसिक पीड़ा को । आखिर क्यों ?
आखिर में रह जाता है प्रश्न अकड़े शरीर की मानिंद .... भीड़ छंट जाती है,प्रश्नवाचक सभ्यता उत्तर से परहेज रखती है ....
अब चलिये आपको मिलवाती हूँ हिन्दी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना से, बातचीत करने जा रही हैं ज्योत्सना पाण्डेय .......यहाँ किलिक करें
अब चलिये आपको मिलवाती हूँ हिन्दी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना से, बातचीत करने जा रही हैं ज्योत्सना पाण्डेय .......यहाँ किलिक करें
अपनों के बीच, अपनी उपस्थिति ने
जवाब देंहटाएंउसे पराये होने के अर्थ समझाए
तभी तो देख, सुन ये सारा बवाल
उसके क्षुब्ध मन में उठा एक ही सवाल
देह के घाव नहीं दिखते जिन अपनों को
वे ह्रदय के ज़ख्म कहाँ देख पायेंगें ?
एक कटु सत्य
~~~~~~
यादें अतीत की
घेरे रहती
चहुँ ओर .
बार-बार धकेल देतीं
भूत के उस
अंतहीन कुएँ में
जिसका नहीं
कोई ओर-छोर
..
.न जाने कितनी
मृगतृष्णाओं में उलझा
भटकने को करता
विवश
.बहुत खूब
आखिर में रह जाता है प्रश्न अकड़े शरीर की मानिंद .... भीड़ छंट जाती है,प्रश्नवाचक सभ्यता उत्तर से परहेज रखती है ....
जवाब देंहटाएंयही एक कटु सत्य है जो मौन खडा है
....जो चीज हमारे हाथ में होती है,उसकी हमें दरकार होती नहीं है!...जैसे कि वर्त्तमान!..लेकिन भूत और भविष्य जो हमारी पहुँच से दूर या बहुत दूर है...उनकी हम बहुत ज्यादा परवाह करते है!...यह मनुष्य स्वभाव है!...बहुत सुन्दर शब्दों से सजी कविता!
जवाब देंहटाएंयह सामाजिक अनुकूलन नहीं तो और क्या है ....और बेटियों को इस पीड़ा से सिर्फ हम ही बचा सकते हैं ....अपनी सोच बदलकर
जवाब देंहटाएंसत्य को कहती रचनाएँ
जवाब देंहटाएंदेह के घाव नहीं दिखते जिन अपनों को
जवाब देंहटाएंवे ह्रदय के ज़ख्म कहाँ देख पायेंगें ?
सच्चाई !! जिन्दगी के पड़ाव पर यही मिलता है .... :((
बीते और आने वाले
जवाब देंहटाएंलम्हों में खोए
हम
वर्तमान में कब जीते हैं?
सच्चाई बयां करती अभिव्यक्ति ... बहुत ही बढिया
रश्मि जी,
जवाब देंहटाएंपरिकल्पना उत्सव का हिस्सा बनाना निशित रूप से मेरे लिए बहुत गौरव का विषय है...
सधन्यवाद!
बहुत सटीक और अच्छी प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंपहले पैराग्राफ में तुकबंदी की कोशिश नहीं है , जबकि दुसरे में ये प्रयास हुआ है | दोनों ही परिस्थितियों में विषय की गहराई को नहीं छूटने दिया |
सादर
बहुत उत्कृष्ट चयन..आभार
जवाब देंहटाएंबढ़िया चयन,,,
जवाब देंहटाएं''मेरी कलम मेरे जज़्बात '' ब्लॉग रचना यहाँ करने के मेरी तरफ से शालिनी जी को बहुत बहुत बधाई। आज पहली बार परिकल्पना पर आना हुआ।
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