छीनना तुमने अपना अधिकार बना लिया
पर यथासंभव मैंने अपने मौन को सुरक्षित कर लिया
रेगिस्तान में यही मौन पानी का स्रोत होगा
पानी की प्यास,ज्ञान की प्यास
मौन की शून्यता में तृप्त होगी ....
..............
मौन चिंतन देता है
चिंतन आध्यात्म का मार्ग है
बोधिवृक्ष की जड़ें इस मार्ग को प्रशस्त करती हैं
........... तो आज अपने अपने मौन से हम एक सत्य देते हैं पाठकों को =
कुछ लम्हे: "वेदना है मौन"(डॉ शशि)
कल्पना तो सो चुकी थी,
पंख में मुंह डाल के.
जाग उट्ठी, टूटते देखे.
जो पत्ते डाल के.|
थरथराया नीड़, जब तो,
आशियाँ लटका हुआ,
था अधर में जीवन.|
स्वप्न में उड़ थकी,
सोना चाहती थी पर.
निठुर झंझावत ने,
उसके नोंच डाले पर.|
नींद हैं न चैन,
और न उड़ने की तथा.
अपने ही हाथों रची थी,
उसने अपनी ये कथा.|
स्वप्न क्या है, सत्य क्या.?
ये जानता है कौन.?
भाव की अँखियाँ है रीती.
वेदना है मौन.|..
खत - स्वप्न मेरे................(दिगंबर नासवा )
और नींद की आगोश में जाने से पहले
न जाने रात के कौन से पहर
तेरे हाथों लिखे खत
खुदबखुद दराज से निकलने लगते हैं
कागज़ के परे
एहसास की चासनी में लिपटे शब्द
और धूल में तब्दील होते उनके अर्थ
चिपक जाते हैं बीमार बिस्तर से
लगातार खांसने के बावजूद तेरे अस्तित्व की धसक
सासें रोकने लगती है
लंबी होती तेरी परछाई
वजूद पे अँधेरे की चादर तान देती है
यहां वहां बिखरे कागज़
सच या सपने का फर्क ढूँढने नहीं देते
सुबह दिवार से लटकी मजबूरियां और तेरे खतों के साथ
बिस्तर से लिपटी धूल
गली के नुक्कड़ पे झाड़ आता हूं
उन कोरे कागजों में रोज आग लगाता हूं
पर कमबख्त तेरे ये खत
खत्म होने का नाम नहीं लेते ...
रोना | सुशीला पुरी
तुमने पूछा था
क्या बचपन से तुम
इसी तरह रोती रही हो !
और सोचने लगी मै
उस समय के बारे में
जब हम
बिना रोये हुआ करते थे
रोने की जगह
हंसना होता था तब;
बात- बेबात बस
हँसते जाते पागलों की तरह
और हमारी हंसी में
शामिल हो जाती थी
पूरी दुनिया,
हँसने की जगह तब
रोना नहीं बना था शायद
उन दिनों हमारी हंसी में
चाँद ,सूरज ,नदी, पहाड़
सभी शामिल थे ;
घरों के भीतर की जगह भी
तब हँसती रहती थी
आँगन से आकाश तक
हँसने में साथ होते थे हमारे,
हँसते समय तब मै
बड़ी निश्चिंत होती थी
सोचती-
यह कहीं नहीं जाएगी;
दुनिया के किसी भी कोने में तब
हंसा जा सकता था बेखौफ,
फिर चुपचाप जाने कब
बदलता चला गया सब
हँसने की जगह
रोना आता गया
शुरू में सिर्फ पलकें नम होती थीं
फिर ज़ोर ज़ोर से रोना हुआ
हाँलाकि पहले शर्म भी आती थी रोने में
तो छुप छुप कर रोती,
ज़ोर ज़ोर के रोने में
नामित थीं कई जगहें
कभी अयोध्या कभी मेरठ
कभी गोधरा तो कभी गुजरात,
अब तो हर वक्त डर बना रहता है
ऐसा लगता है कि स्टेशन -मास्टर
अभी भी छुपाये बैठा है
उस जलती रेलगाड़ी के टिकट
कभी भी
वह काटने लगेगा टिकट,
डर लगा रहता है कि कहीं
रोना भी न छिन जाये हमसे
और गिने चुने लोग
जो शामिल हैं रोने में
रोने को हंसना न समझ बैठें;
वैसे भी
रोने जैसा रोना भी कहाँ रहा अब !?!
अब हम आज के कार्यक्रम को संपन्नता की ओर ले जाने हेतु आपको ले चलती हूँ वटवृक्ष पर जहां डॉ अरविंद
मिश्र उपस्थित हैं अपनी एक हास्य रचना शूर्पणखा:एक शोध!(हास्य रस) ......यहाँ किलिक करें
कल रविवार है यानि अवकाश का दिन, इसलिए मैं फिर आपसे मिलती हूँ 10 दिसंबर को 10 बजे परिकल्पना
पर, तबतक शुभ विदा !
कल रविवार है यानि अवकाश का दिन, इसलिए मैं फिर आपसे मिलती हूँ 10 दिसंबर को 10 बजे परिकल्पना
पर, तबतक शुभ विदा !
बहुत सुन्दर रचनाओं का चयन..आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-12-2012) के चर्चा मंच-१०८८ (आइए कुछ बातें करें!) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
आवाजें
जवाब देंहटाएंमन में उठती
आवाजें
कानों में फुसफुसाती
गुनगुनातीं,
चीखतीं चिल्लातीं,
मेरे होंठों पे
मौन बनके
ठहर जाती हैं ....
रश्मि जी...बहुत अच्छी रचनाओं का संकलन किया है आपने.
सभी रचनाएँ बहुत अच्छी लगीं
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ गहन ...और उस पर रश्मि दी आपके कुछ शब्द मौन पर ....बहुत अच्छी है आज की पोस्ट ॰
जवाब देंहटाएंतीनों रचनाएं गहरे भाव छुपाये हुए हैं |
जवाब देंहटाएंसादर
कविताओं की भूमिका मिएँ लिखे आपके शब्द ... कविता को ओर गहन बना रहे हैं ... डॉ शशी ओर शुशीला जी की रचनाएं गहरा एहसास लिए हैं ...
जवाब देंहटाएंसभी रचनायें खूबसूरत
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएं एक से बढ़कर एक ...
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए आभार