अमृता के अमृतमय भाव ..... मानसिक थकान के विष को विलीन कर देते हैं और प्राकृतिक मनःस्थिति में जीवन के भाव श्रवण के कर्तव्य जैसे लगते हैं,जिसे निभाना स्वर्गिक सुख सा होता है . परिकल्पना के अकल्पनीय मंच पर आज अमृत कलश है अमृता तन्मय का -
अज्ञात नदी
ऐसा नहीं हो सकता कि
कोई अज्ञात नदी
पृथ्वी तले चुपचाप बहती हुई
समंदर की तरफ बढ़ी जा रही हो
हालाँकि उसका सफ़र
थोड़ा मुश्किल भरा होगा
उसे कुछ ज्यादा
वक्त लग रहा होगा
फिर भी बहती चली जा रही है
धीरे -धीरे , धीरे -धीरे
अपनी व्यथा को
स्वयं में ही समेटे हुए
हाँ प्रिय !
वो नदी मैं ही हूँ और
बाँहें फैलाये हुए तुम - समंदर
मुझमें ठंडा उन्माद है
तो तुममें उतप्त धैर्य
समय के साथ एकाकार होकर
मैं आ रही हूँ , आ रही हूँ ....
राहगीरों की प्यास बुझाते हुए
तुम भी अपनी सीमाओं को
और फैलाओ , और फैलाओ ....
ताकि जब हम मिलें तो
क्षितिज भी शेष न रहे .
Amrita Tanmay: न्याय
मेरे व्यक्तित्व के
विभिन्न पक्षों को
परस्पर
संतुलित करता है
मेरी आत्मा में
निहित न्याय
मेरी आवश्यकताएं
पूरक माध्यम ......
मेरी गतिशीलता
मेरी अकर्मण्यता
मेरी हिम्मत
मेरा साहस .....
मेरी चेतना में
अद्भुत समन्यवय
दुर्लभ सामंजस्य
जो मुझे बोध कराता है
मेरे कर्तव्य का
मेरे अस्तित्व का
फिर मैं
और क्या अपेक्षा करूँ
उस न्याय से
जो अन्य करते हैं
अपने हिसाब से
मेरे लिए .
Amrita Tanmay: कोई फर्क नहीं पड़ता
कोई फर्क नहीं पड़ता
कि हम कहाँ हैं
हो सकता है हम
आँकड़े इक्कठा करने वाले
तथाकथित मापदंड पर
ठोक-पीट कर
निष्कर्ष जारी करने वाले
बुद्धिजीवियों के
सरसरी नज़रों से होकर
गुजर सकते हैं
हो सकता है कुछ क्षण के लिए
उनकी संवेदना तीक्ष्ण जो जाये
ये भी हो सकता है कि
उससे संबंधित कुछ नए विचार
कौंध उठे उनके दिमाग में
समाधान या उसके समतुल्य
ये भी हो सकता है कि
बहुतों का कलम उठ जाये
पक्ष -विपक्ष में लिखने को
अपनी कीमती राय
कर्ण की भांति दान देते हुए
पर जिसका चक्रव्यूह
उसमें फंसा अभिमन्यु वो ही
महारथियों से घिरा
अपना अस्तित्व बचाने को
पल प्रतिपल संघर्षरत
आखिरी साँस टूटते हुए उसे
दिख जाता है
विजय कलयुग का .
Amrita Tanmay: दावा
जितनी रहस्यमयी है
घर से बाहर की दुनिया
उससे कहीं ज्यादा
रहस्यमय है -ये घर
ऐसा भूलभुलैया
जिसका सबकुछ
कहीं खो गया है...
इसके नक़्शे में तो
सात सौ खिड़की और
नौ सौ दरवाजों का जिक्र है....
मानो समय
पृथ्वी के गर्भ में
छोड़ गया हो
साँस के साथ जनमती आशा
उसी के साथ मरती भी ....
देह की झुर्रियां गवाही देती
और भी रहस्यमयी ...
घर का कोना -कोना
एक अनसुलझी पहेली
जिसे सुलझाते-सुलझाते ...
उलझती मैं........
वो सुई भी खोई है
इसी घर में
जिससे मैं कभी
सिया करती थी
समय के टुकड़ों को...
अधूरी पड़ी मेरी चादर
थोड़ी ढकी मैं
थोड़ी उघडी...
घर की तरह ही -
रहस्यमयी.......
दावा करती हुई
कि--------मैं हूँ .
इसी के साथ मैं आप सभी से विदा लेती हूँ , कल फिर सुबह 10 बजे परिकल्पना पर मुलाक़ात होगी ...तबतक के लिए शुभ विदा !
निश्चय ही अमृतमय भाव ......हृदय तृप्त करते हुए ....
जवाब देंहटाएंअधूरी पड़ी मेरी चादर
जवाब देंहटाएंथोड़ी ढकी मैं
थोड़ी उघडी...
घर की तरह ही -
रहस्यमयी.......
दावा करती हुई
कि--------मैं हूँ .
वाह .....भावमयी ......आभार दी !
अमृता जी कवितायेँ उनके नाम को सार्थक करती हैं , सभी कवितायें उत्तम प्रतिबिम्ब दिखाती हुई |
जवाब देंहटाएंसादर
अमृता जी के अमृतमय भाव ..... मानसिक थकान के विष को विलीन कर देते हैं
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सहमत हूँ आपकी इस बात से ...
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति
अमृता जी की रचनायें गहन होने के साथ उम्दा भावों से भरी होती हैं।
जवाब देंहटाएंपरिकल्पना के अकल्पनीय मंच पर अमृतमय भाव को आत्मसात कर रही है अमृता की लेखनी .. शब्द-शब्द ह्रदय से आभारी हो रहे हैं..
जवाब देंहटाएंवो सुई भी खोई है
जवाब देंहटाएंइसी घर में
जिससे मैं कभी
सिया करती थी
समय के टुकड़ों को...
कब मिलेगी वो सुई ....
अमृता जी का लेखन एक दूसरी दुनियां में ही ले जाता है और उनको पढ़ना सदैव रोचक रहा है...बहुत सुन्दर रचनाएँ...आभार
जवाब देंहटाएंगज़ब का लिखती हैं अमृता जी और आपने भी मोती चुने हैं
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखती है अमृता जी
जवाब देंहटाएंअमृता को बधाई
जवाब देंहटाएंनि:शब्द!
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