बचपन,अभिवावक,पर्यावरण,संस्कार, ..... जीवन में इनके बगैर न हम खुश रहते हैं,न अनुकरणीय बनते हैं,न आशीष पाते हैं .............. व्यर्थ में जोर जोर से प्रभु का नाम लेने से कुछ नहीं होता, न भोग,चढ़ावे से कुछ होता है - किसी रोते बच्चे को हंसा लो, किसी बड़े का आशीष संजो लो,,जल-वायु-पेड़-पौधे-पंछी-पशु - इनका वजूद संभाल कर रखो .... इससे बड़ी कोई पूजा नहीं . ऐसी रचनाओं का माध्यम दे रही हूँ =
Chitransh soul: बुजुर्ग हमारी धरोहर(डी पी माथुर)
आज अधिकांश परिवारों में बुजुर्गों को भगवान तो क्या, इंसान का दर्जा भी नही दिया जा रहा है। किसी जमाने में जिनकी आज्ञा के बगैर घर का कोई कार्य और निर्णय नही होता था।
मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः - इस पंक्ति को बोलते हुए हमारा शीष श्रद्धा से झुक जाता है और सीना गर्व से तन जाता है । यह पंक्ति सच भी है जिस प्रकार ईश्वर अदृश्य रहकर हमारे माता पिता की भूमिका निभाता है उसी प्रकार माता पिता हमारे दृश्य, साक्षात ईश्वर है। इसीलिए तो भगवान गणेश ने ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करने की बजाय अपने माता पिता शिव- पार्वती की परिक्रमा करके प्रथम पूज्य होने का अधिकार हांसिल कर लिया था, किन्तु आज के इस भौतिक वाद (कलयुग) में बढ़ते एकल परिवार के सिद्धान्त तथा आने वाली पीढ़ी की सोच में परिवर्तन के चलते ऐसा देखने को नही मिल रहा है। कुछ सुसंस्कारित परिवारों को छोड़ दें तो आज अधिकांश परिवारों में बुजुर्गों को भगवान तो क्या, इंसान का दर्जा भी नही दिया जा रहा है। किसी जमाने में जिनकी आज्ञा के बगैर घर का कोई कार्य और निर्णय नही होता था। जो परिवार में सर्वोपरि थे। और परिवार की शान समझे जाते थे आज उपेक्षित, बेसहारा और दयनीय जीवन जीने को मजबूर नजर आ रहे है यहां तक कि तथा कथित पढ़े लिखे लोग जो अपने आप को आधुनिक मानते है , अपने आपको परिवार की सीमाओं में बंधा हुआ स्वीकार नही करते हैं और सीमाऐं तोड़ने के कारण पशुवत व्यवहार करना सीख गये हैं वे अपने माता पिता व अन्य बुजुर्गों को ’’रूढ़ीवादी’’, ’’सनके हुये’’ तथा ’’पागल हो गये ये तो’’ तक का सम्बोधन देने लगे है।
क्या आप नही जानते मां बाप ने आपके लिए क्या-क्या किया है या जानते हुये भी अनजान बनना चाहते हैं ? मैं आपकी याददाष्त इस लेख के माध्यम से लौटाने की कोशिश कर रहा हॅंू।
वो आपकी मां ही है जिसने नौ माह तक अपने खून के एक एक कतरे को अपने शरीर से अलग करके आपका शरीर बनाया है और स्वयं गीले मे सोकर आपको सूखे में सुलाया है, इन्ही मां-बाप ने अपना खून पसीना एक करके आपको पढ़ाया-लिखाया, पालन-पोषण किया और आपकी छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी सभी जरूरतों को अपनी खुशियों, अरमानों का गला घोंट कर पूरा किया है। कुछ मां-बाप तो अपने बच्चे के उज्जवल भविष्य के खातिर अपने भोजन खर्च से कटौती कर करके उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को विदेश भेजते रहे। उन्हंे नही मालूम था कि बच्चे अच्छा कैरियर हासिल करने के बाद उनके पास तक नही आना चाहंेगे। वे मां-बाप तो अपना यह दर्द किसी को बता भी नही पाते। यह आपके पिता ही है जिन्हांेने अपनी पैसा-पैसा करके जोड़ी जमा पूंजी और भविष्य निधि आपके मात्र एक बार कहने पर आप पर खर्च कर दी। और आज स्वयं पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गये। तिनका-तिनका जोड़कर आपके लिए आशियाना बनाया और आज आप नये आशियाने के लिऐ उन पर भावनाओं से लबालेज उनके आशियाने को बेच देने का दवाब बना रहे है, उनके तैयार नही होने पर उन्हे अकेला छोड़कर अपनी इच्छा की जगह जाकर उन्हे दण्ड दे रहे है। आपने कभी सोचा है कि मां-बाप ने यह सब क्यों किया।
आपको मालूम होना चाहिए कि वे केवल इसी झूठी आशा के सहारेे यह सब करते रहे कि आप बड़े हांेगे कामयाब होगें और उन्हें सुख देंगे और आपकी कामयाबी पर वो इठलाते फिरेंगे। मां-बाप जो मुकाम स्वयं हासिल नही कर पाये उन्हें आपके माध्यम से पूरा करना चाहते है लेकिन बच्चे उनका यह सपना चूर-चूर कर देते हैं।
कुछ परिवारों में बुजुर्गों को ना तो देवता समझा जाता है और ना ही इन्सानों जैसा व्यवहार किया जाता है बस बुजुर्ग उपेक्षित, बेसहारा और एकान्तवास में रहकर ईश्वर से अपने बूलावे का इन्तजार मात्र करते रहते हैं।
आप सोच रहे होगे कि हम तो ऐसा नही करते लेकिन मैं आपको बताना चाहुंगा कि अनजाने में आपसे ऐसा हो जाता है जिससे मां-बाप का दिल दुख जाता है। नीचे कुछ पंक्तियों मे ऐसी ही बातें मैं आपके सामने रख रहा हूॅ।
आज हम अपने आसपास किसी ना किसी बुजुर्ग महिला या पुरूष पर अत्याचार होते देखकर, “उनका निजी मामला है “ ऐसा कहकर क्या अपनी मौन स्वीकृति नही दे रहे है ? आज कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ी है यह अच्छी बात है लेकिन इसका तात्पर्य यह नही है कि बुजुर्ग मां-बाप आपके मात्र चौकीदार और आया बनकर रह जायें। बुजुर्ग महिला अपने पोते-पोतियों की दिनभर सेवा करे, शाम को बेटे-बहू के ऑफिस से आने पर उनकी सेवा करे। क्या इसी दिन के लिए पढ़ी-लिखी कामकाजी लड़की को वह अपनी बहू बनाती है। लेकिन क्या करे मां का बड़ा दिल वाला तमगा जो उसने लगा रखा है सभी दर्द को हॅसते-हॅसते सह लेती है। कभी उसके दिल के कोने में झांक कर देखों छिपा हुआ दर्द नजर आ जायेगा। यदि आप अपना कर्ज चुकाना चाहते है तो दिल के उस कोने का दर्द अपने प्यार से मिटा दो।
आज अधिकांष परिवारों में युवा अपने कार्यों में वयस्त रह कर समय का एक कृत्रिम अभाव बना लेते है तथा घर के कार्य जैसे - बच्चों को स्कूल छोड़ना-लाना, टेलिफोन, बिजली, पानी के बिल जमा करवाना, घर का सामान लाना, खराब पड़े उपकरणों को ठीक करवाना, समारोह आदि में जाना, अपने बुजुर्ग माता-पिता से ही करवाते है, बुजुर्ग महिला पर तो इसके अलावा रसोई व घर की साफ सफाई का कार्य अतिरिक्त होता है जो उसे इच्छा व शारीरिक क्षमता ना होते हुये भी करना पड़ता है।
यदि आपके परिवार में ऊपर लिखी बातों में से कोई बात मेल नही कर रही है तो आप धन्यवाद के पात्र है कि आपका परिवार एक सुसंस्कारित व आदर्श परिवार की श्रेणी में आता है। आपके घर में साक्षात ईश्वर निवास कर रहे हैं एवं मेरा आपको शत्-शत् नमन है।
युवा पीढ़ी को चाहिए कि वो समय रहते हुये बुजुर्गों कि अहमियत को समझ जायें। क्योंकि एकल परिवार में बच्चे को लाड-प्यार तो आप बहुत अधिक करते हैं, किन्तु दादा-दादी से प्राप्त आशीर्वाद, संस्कार, स्पर्श सुख, अपनापन, व्यवहारिकता उसे नहीं मिल पाती हैं एवं वे दादी के छोटे-छोटे किन्तु बेहद कारगर नुस्खों से वंचित रह जाते है। आपके बच्चों में संस्कार और व्यवहारिकता दादा-दादी से ही प्राप्त होगी जिससे वे शारीरिक और मानसिक रूप से अधिक सक्षम होकर जीवन में चुनौतियों का सही ढंग से मुकाबला करने में सक्षम बनते हैं। संयुक्त परिवार और एकल परिवार के बच्चों में अन्तर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
युवा पीढ़ी निम्न बातों को ध्यान में रखकर अपने बुजुर्गों को और अघिक सम्मान दे सकती है।
बुजुर्गों को प्रतिदिन थोड़ा समय अवश्य दें यदि हो सके तो शाम का भोजन उनके साथ करें।
अवकाश के दिन उनसे अपने बचपन की बातें पूछे, पुराने फोटोग्राफ दिखायें और उन्हे अनुभव बताने का मौका दें।
छोटी-छोटी बातों पर भी उनसे राय जरूर लें । यदि आप सहमत ना हो तो अपनी राय उन्हे समझायें वे आपकी राय को अपनी राय बना लेगें।
अपने बुजुर्गोंं के जन्मदिन पर उनके रोज मर्रा की छोटी-छोटी वस्तुएॅ उन्हें भेंट करें।
मां-बाप आपसे बहुमूल्य तोहफे नही चाहिए। वे मात्र आपमें उनके सिखाये संस्कारों को फलिभूत होते देखने की आशा करते हैंें
आपको ध्यान रखना चाहिए समय बहुत बलवान होता है जैसा बर्ताव आप बुढापे में स्वयं के साथ चाहते है वैसा ही आज उनके साथ करें क्योंकि आप जो बो रहे है वो ही कल आपको काटना है। बुजुर्गों के बरगद रूपी अनुभवों की छांया सदैव आपको परेशानियों, कटुअनुभवों वाली तेज धूप से बचा कर शांन्त ओर शीतल मन से जीवन जीने का आनन्द देती है।
अब मैं मेरे द्वारा लिखी जाने वाली किसी भी गलती या गुस्ताखी के लिये बुजुर्गों से क्षमा मांगते हुये अपनी लेखनी के माध्यम से बुजुर्गों से कुछ कहना चाहूॅगा।
बुजुर्गों और यूवा पीढ़ी के सोच में अन्तर तथा युवा पीढ़ी के पश्चिमी संस्कृति की ओर झुकाव तथा बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के कारण टकराव पैदा हो जाता है। मेरा कहना है कि बुजुर्ग ऐसी विपरीत परिस्थितियों में झल्लायें नही और धैर्य पूर्वक समस्याओं का सामना करें।
यदि युवा पीढ़ी नही चाहती तो नसीहत ना दें। उन्हे अपने हाल पर छोड़ देें तथा स्वयं अपनी धर्मपत्नी के साथ पसन्द के कार्य जैसे- पूजा-पाठ, समाजसेवा, गार्डनिंग, लेखन, चित्रकारी, संगीत आदि में वयस्त हो जायें।
अपने बच्चों से ऐसे प्रश्न पूछने से बचें जिनका उत्तर वे आपको नही देना चाहते।
परिवार में बिना मांगे कभी अपनी राय ना दें । आप तो अपने अनुभवों से बच्चों की राह आसान बनाना चाहते हैं लेकिन बच्चे इसे अपने उपर आपके विचार थोपना समझते हैं।
सभी परिवार के सदस्यों के साथ समान व्यवहार रखें व अपनी बातों में पारदर्शिता रखें।
परिवार के सभी सदस्यों पर अपनी पैनी निगाह रखें किन्तु बच्चों को ऐसा प्रतीत ना होने दे कि वे पिंजरे में कैद है केवल आवश्यकता से अधिक स्वछन्दता दिखने पर ही अंकुश लगाये।
अपनी छवी ऐसी बनाये कि आपके निर्णयों पर परिवार में सर्व सम्मति बन सके।
आप अपने पूर्व में रहे कार्यक्षेत्र के अनुसार समाज में भागीदारी निभाकर सम्मान पा सकते है।
अन्त में लिखना चाहूॅगा कि यह शास्वत् सत्य है कि जिस घर में माता-पिता व अन्य बुजुर्गों का सम्मान नही होता वह घर कभी पनपता नही है और वहां कभी बरकत नही हो सकती, आज समाज चुप जरूर है परन्तु उसकी निगाहें बहुत बड़ी है। आपका सम्मान व प्रतिष्ठा घर के बुजुर्गों की स्थिति पर ही निर्भर करती है यदि आप माता-पिता का दिल नही दुखा रहे हैं तो घर में मन्दिर जैसा आनन्द महसूस करेंगे। आज आप खुषनसीब हैं, आप सच में धनवान हैं। कि आपके घर में बुजुर्ग हैं जिस दिन उन्हें ईश्वर ने बुला लिया आप कंगाल हो जायेंगे। आपके सिर पर से छाया हट जायेगी आपको चिलचिलाती धूप सहनी ही पड़ेगी। यह मेरा निजी अनुभव भी कहता है अतः पुनः युवा पीढ़ी से अपील है कि अपने जोश को बुजुर्गों के अनुभव से जोड़कर जीवन का सही मायने में लुफ्त उठायें वरना यह कहावत चरितार्थ हो जायेगी ’’अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चूग गयी खेत’’ और आपके हाथ खाली रह जायेंगे।
पीले पन्नों पर दर्ज हरे हर्फ : एक बुजुर्ग की डायरी(समीर लाल 'उड़नतश्तरी')
मैं अपने पद प्रतिष्ठा के नशे में चूर, अपने मातहतों से तारीफ सुनता और अपने अधिकारियों से तारीफ पाने की लालसा में १० से १२ घंटे दफ्तर में गुजार लेने के बाद भी फाईलों से लदा घर पहुँचता और रात देर गये तक उनमें खोया रहता. याद है मुझे कि जब मैं सोने की तैयारी करता, तब तक घर में तो क्या शायद पूरे मोहल्ले में ही सब लोग सो चुके होते.
देर सुबह जब नींद खुलती तो बच्चे स्कूल जा चुके होते. पत्नी घरेलु कार्यों में और मेरे ऑफिस जाने के लिए तैयारियों में जुटी होती. मैं उठते ही चाय की प्याली के साथ अखबार में खो जाता और फिर फटाफट नहा धोकर नाश्ता करके दफ्तर के लिए रवाना. लंच भी चपरासी भेज कर दफ्तर ही में ही मंगवा लेता. न कभी रविवार देखा, न कोई छुट्टी. बस, काम काम काम और आगे बढ़ते जाने का अरमान.
मैं अपनी इस मुहिम में काफी हद तक सफल भी रहा और एक सम्मानीय ओहदे तक आकर रिटायर हुआ.
पता ही नहीं चला या बेहतर यह कहना होगा ध्यान ही नहीं दिया कि बच्चे कैसे पढ लिख गये और कब देखते देखते स्कूल पास कर कॉलेज मे पहुँच गये. कभी कभार बात चीत हो जाती. साधारणतः ऐसे मुद्दे कि इन्जिनियरिंग करना है कि डॉक्टरी. मगर बहुत सूक्ष्म चर्चा. सब यंत्रवत होता गया मेरी नजरों में. मगर इसके पीछे पत्नी का क्या योगदान रहा, क्या त्याग रहा, कितनी मेहनत रही-वह न तो मैने उस वक्त देखी और न जानने का प्रयास किया. मेरे लिए मेरा केरियर और मेरा दफ्तर. मेरी पूछ परख, मेरा जयकारा-बस, यही मानो मेरी दुनिया थी.
चिन्तन: बेबसी
ऐसा नहीं कि बच्चों और पत्नी को बिल्कुल भी समय नहीं दिया किन्तु जो दिया वह आपेक्षित से बहुत थोड़ा था. पढ़ाई की किसी भी समस्या के लिए उन्हें ट्य़ूटर के पास भेजने से लेकर अन्य जरुरतों के लिए ड्राइवर और पत्नी के साथ भेज अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली. बच्चे अपने पिता से समय चाहते थे और पत्नी अपने पति से. वो बैठकर गप्प करना चाहते थे. मेरे किस्से सुनना चाहते थे जो वो दूसरों से मेरी तारीफों में सुना करते थे और मेरे पास समय न था.
अपनी उपलब्धियों के तहत एक घर बनवा दिया था. जितने रहने वाले घर में, उससे भी एक अधिक कमरा मेहमानों के वास्ते. कुछ उपर और कुछ नीचे. तब सोचता था कि एक कमरा और बनवा लूँ जिसमें मेरा स्टडी रुम हो. बस मैं, मेरी फाईलें, किताबें और अखबार. कोई व्यवधान न आये.
सरकारी गाड़ी के अलावा एक कार खुद की भी. कुछ बैंक में पैसा और यह सब जमा करते करते एक दिन पाया कि सारे कमरे अब खाली रहते हैं. बच्चे अपनी अपनी दिशा में चले गये हैं नौकरियों पर. बिटिया अपने पति संग और उस बड़े घर के एक कमरे में रिटायर्ड मैं और मेरे साथ मेरी पत्नी.
अभी रिटायर्ड हुए ज्यादा दिन न बीते थे. आदतें वही पुरानी मगर अब कोई काम न था तो सारा सारा दिन अखबार, टीवी और किताबें और शाम को मित्रों और रिश्तेदारों के यहाँ मेल मुलाकात. यह मेल मुलाकात पत्नी के साथ ज्यादा समय बीतने का बहाना भी बन गया वरना तो उसके लिए मेरे पास अब भी सीमित वक्त ही था.
हमारा अपना कमरा छोड़ कर अब सारे कमरे मेहमानों के हो गये और आने वाला कोई नहीं. बच्चे यदा कदा अपनी सहूलियत और छुट्टियों में मय परिवार आते. कुछ दिन मेहमानों से रहते और निकल जाते. एक अघोषित सा कमरों का आवंटन भी था कि ये बड़े का, ये छोटे का और उसी अनुरुप इनके सामान भी उसमें रहते.
कभी कभी बच्चों के पास जाना भी होता किन्तु पहला दिन छोड़ ये पत्नी के साथ अधिक समय बिताना ही साबित होता. बच्चे अपनी दिनचर्या में व्यस्त होते.
जल्द ही हम अपने घरौंदे में वापस आ जाते और मैं अखबार किताबों में एवं पत्नी घर काज अड़ोस पड़ोस रिश्ते नातों में डूब जाती.
एक दिन पत्नी न आँखें मींच ली कभी न खोलने को. वो नहीं रही. पहली बार उसका साथ पाने की प्रबल अभिलाषा जागी. सब इक्कठे हुए थे और देखते देखते वापस हो लिए. उस पूरे घर में बच रहा तो अकेला मैं. बच्चे साथ ले जाना चाहते थे मगर मैं ही कुछ समय खुद के लिए चाहता था सो न गया.
खाली घर. ढ़ेरों कमरे. माँ न रही तो उनका सामान कौन देखेगा, ये सोच बच्चे अपने अपने कमरों में ताला लगा गये थे. हालांकि चाबी मेरे पास ही थी पर न जाने क्यूँ कभी हिम्मत न जुटा पाया कि खोल कर देखूँ क्या है उन कमरों में. क्या पत्नी मेरा आत्म विश्वास, मेरे मुखिया होने का अहसास, मेरी ताकत, मेरा सम्मान सब अपने साथ ले गई थी या कि वो ही मेरी यह सब थी. आज तक इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं पा पाता.
मैं अब भी कभी बच्चों के पास जाता हूँ, पहले से ज्यादा ख्याल रखते हैं पर मुझे वहाँ बस एक मेहमान होने का अहसास होता है. न जाने क्यूँ, मैं कभी भी उनके घर को, उनके सामानों को उस अधिकार से नहीं देख पाया जिस तरह से उन्हों ने मेरे घर को या मेरे सामानों को देखा था या इस्तेमाल किया था. क्या यह एक दिशाई धारा है? क्या उन्हें भी भविष्य में अपने बच्चों के साथ यही अहसास होगा या पहले मेरे गई पुश्तों ने भी यह अहसासा होगा.
बच्चे घर पर आते भी हैं. कुछ देर बातें भी होती हैं. फिर वो अपने पुराने दोस्तों में मशगूल या अपने कमरे में बंद, कुछ फुसफुसाते हुए से अपनी पत्नियों के साथ. खाने के टेबल या शाम को साथ बैठ भी जाते हैं. मगर बहुत सीमित समय के लिए. उनके प्रवास के दौरान, खाना क्या बनना है आदि उनकी पसंद पर ही होता है और न जाने क्यूँ, कभी मुझे इन्तजार भी लग जाता है कि ये जायें तो मैं अपनी पसंद से कुछ बनवाऊँ.
मैं उनसे बात करना चाहता हूँ. अब मेरे पास समय ही समय है. मेरे पास ढ़ेरों किस्से हैं. कितने अनुभवों से मैं गुजरा हूँ. मैने क्या गलत किया और क्या सही-सब जान चुका हूँ मगर अब उनके पास सुनने को समय नहीं. मेरे किस्से उन्हें बोर करते हैं. हैं भी आऊट ऑफ डेट तो रोचक कैसे लगें. बस, मजबूरीवश अगर कुछ सुन लें तो बहुत हुआ वो भी बिना चेहरे पर कोई भाव लाए ताकि मैं अपना किस्सा जल्दी बन्द करुँ और वो अपने दोस्तों, पत्नी और बच्चों के बीच समय बितायें. अनुभव तो है इसलिए मैं समझ जाता हूँ. कई बार भूल जाने का बहाना कर बड़ा किस्सा बीच में बंद किया है मैने उनके चेहरे के भाव को समझते हुए.
आज खाली कमरे हैं. चाहूँ जहाँ स्टडी बना लूँ, कोई व्यवधान डालने वाला भी नहीं पर न जाने क्यूँ, अब पढ़ने लिखने से भी जी उचाट हो गया है. आखिरी नॉवेल दो साल पहले पढ़ी थी. इधर तो अखबार भी जैसा आता है, वैसा ही लिपटा दो तीन महिने में रद्दी में बिक जाता है. सोचता हूँ क्या करुँगा जानकर कि बाहर की दुनिया के क्या रंग हैं जब मेरी खुद की दुनिया बेरंग है.
आज भी इस कथा को यहीं रोक देता हूँ-आभास हो रहा है कि आपके चेहरे पर इसे पढ़ते वो ही भाव हैं जो मेरे बच्चों के चेहरे पर अपने किस्से सुनाते हुए मैं देखता हूँ.
बाकी पन्ने फिर कभी...या अभी के लिए ये मान लें कि मैं उन्हें भूल गया हूँ.
बस इतना जानता हूँ कि भले ही वक्त के थपेड़े खाकर मेरी डायरी के ये पन्ने पीले पड़ जायेंगे लेकिन इसमे दर्ज एक एक हर्फ हरदम हरा रहेगा- शायद किसी और बुजुर्ग की व्यथा कथा कहता.
Writer Neera Jain: बुजर्ग हमारी धरोहर(नीरा जैन)
बुजुर्गो का सम्मान करने और सेवा करने की हमारी समाज की एक सम्रद्ध परपरा रही है ! पर अब समय बदल रहा है !अब बुगुर्गो की दुर्दशा हो रही है ! आश्चर्य है की जिस देश मे माँ और पिता को पूजने की अवधारणा रही है !
आजकल हम पढ़ते और सुनते है की बुगुर्ग को खुद उनके पुत्र ही प्रताड़ित करते है ! लगभग 20 प्रतिशत बुजुर्गो ने मन की बेटो पर आश्रित होने के कारन उनकी यह हालत हुई है ! लोक लाज के कारन बुजुर्ग चुप रहना पसंद करते है वो अपनी वास्तविक स्थति किसी को बताते नहीं है !एक सर्वे के अनुसार अस्सी प्रतिशत बुजुर्ग बेटो पर निर्भर है !करीब बय्यासी प्रतिशत बुजुर्ग शारीरिक प्रताड़ना के शिकार है !स्वास्थ्य बीमा योजनाओं का लाभ मात्र पाच प्रतिशत बुजुर्ग ही उठा पा रहे है !कई बुजुर्ग तो ऐसे है जिनकी सार संभल करने वाला कोई नहीं है ! जो बुजुर्ग अतम निर्भरता का जीवन जी रहे है मगर फिर भी उनमे असुरक्षा का भाव है !माता पिता की देख रेख करने के लिए संतानों को क़ानूनी रूप से बाध्य करने के विधेयक के तहत अनिवार्य है की बच्चे अपने पालकों और बुजुर्ग की देखभाल अच्छी तरह से करे !नए कानून के विधान के तहत बूढ़े माँ बाप की देखभाल की ज़िम्मेदारी संतान की है ! माता पिता की सेवा को ईश्वर की सेवा का दर्जा दिया गया है ! माँ बाप को देवता से ऊपर का स्थान दिया गया है ! आज उसी देश मे माँ बाप की देखभाल के लिए कानून बनाना पड रहा है ! यह घोर विडंबना है कि जिस देश मे राम , भीष्म और पुंडरिक जैसे आज्ञाकारी पुत्र हुए जिस देश मे श्रवण कुमार अपने अंधे माँ बाप को कावड मे भिठाकर तीर्थयात्रा करवाता था उसी भारत की संसद को माता पिता की देखभाल करने के लिए कानून बनाना पड़ रहा है !जिस समाज मई बुजर्गो का सम्मान न हो उन्हें अपनो से प्रताड़ना मिले ऐसे समाज को धिक्कार है ! अब तो हालत यह है कि चलने फिरने की हालत मे जो माँ बाप है उनको भी अपने साथ कोई रखना नहीं चाहता है ! सब आजाद जीवन जीना चाहते है कोई बंदिश नहीं चाहते !आज रिश्तो की डोर इतनी कमजोर हो गयी है की स्वार्थ का की भी झटका उन्हें तोड़ सकता है ! हमारे आस पास ऐसे कई दर्जनों उदाहरण भी मिल जायेंगे जहा अच्छे खासे कमाते बच्चे होने के बाद बच्चे दर दर की ठोकरे खा रहे है !दिल मे भी माता पिता के लिए जगह नहीं रह गयी है !हम लोग ये क्यों नहीं सोचते की हम भी एक दिन उम्र के उस पड़ाव पर पहुँचेंगे जहा पर आज हमारे माता पिता बुजुर्ग है ! इस बच्चे को माता पिता अपना सक कुछ दे देते है पालन पोषण करते है वही बच्चा एक दिन उम्र के आखिरी मोड़ पर अपने माता पिता का साथ छोड़ देता है ! बजुर्गो को दुत्कारो मत क्युकी झुर्रियो से भरे चेहरे और आशीर्वाद देते हाथो का अपना एक अलग ही महत्व होता है ! पीड़ित बुज़ुर्ग ने घर मे मार पीट गाली गलोच करने , समय पर खाना नहीं देने बात बात पर ताना मारने का मामला भी दर्ज करवाए है केवल कानून बनाने से ही माता पिता के प्रति नैतिक कर्तव्य की पूर्ति नहीं होगी ! इसके लिए लोगो को जाग्रत करने की आव्यशकता है !
बुजुर्गों के प्रति अपने विचारों के साथ आगे भी उपस्थित होंगे कुछ और व्यक्तित्व ......एक अल्प विराम लूँ उससे पहले मैं आपको ले चलती हूँ वटवृक्ष पर जहां ललित शर्मा कर रहे हैं कमला बाई की कहानी ...यहाँ किलिक करे
लोक लाज के कारन बुजुर्ग चुप रहना पसंद करते है वो अपनी वास्तविक स्थति किसी को बताते नहीं है !
जवाब देंहटाएंमैं हँसता था जब वो कहकहों का दौर कोई और था अब देखो,
होठों पर मुस्कान लिए बैठा हूँ फिर भी कोई बात नहीं करता ।
मैं वही हूँ वही है वजूद मेरा फिर भी अनमना सा क्यूँ है कोई,
कहता हूँ जब भी कुछ सुन लेते हैं पर कोई भी बात नहीं करता ।
सार्थकता लिये सशक्त प्रस्तुति ...
आभार आपका एक सार्थक विषय पर इतनी उत्कृष्ट पोस्ट का ...
सदा जी की टिप्पड़ी पर एक हस्ताक्षर मेरा भी |
जवाब देंहटाएंसादर
एक बेहद गंभीर विषय पर सार्थक विमर्श
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया लेख ...बधाई
जवाब देंहटाएंमैं अपने पद प्रतिष्ठा के नशे में चूर,अपने मातहतों से तारीफ सुनता और अपने अधिकारियों से तारीफ पाने की लालसा में १० से १२ घंटे दफ्तर में गुजार लेने के बाद भी फाईलों से लदा घर पहुँचता और रात देर गये तक उनमें खोया रहता. याद है मुझे कि जब मैं सोने की तैयारी करता, तब तक घर में तो क्या शायद पूरे मोहल्ले में ही सब लोग सो चुके होते.*(देख रही हूँ)*मैं उनसे बात करना चाहता हूँ. अब मेरे पास समय ही समय है. मेरे पास ढ़ेरों किस्से हैं. कितने अनुभवों से मैं गुजरा हूँ. मैने क्या गलत किया और क्या सही-सब जान चुका हूँ मगर अब उनके पास सुनने को समय नहीं. मेरे किस्से उन्हें बोर करते हैं. हैं भी आऊट ऑफ डेट तो रोचक कैसे लगें. बस, मजबूरीवश अगर कुछ सुन लें तो बहुत हुआ वो भी बिना चेहरे पर कोई भाव लाए ताकि मैं अपना किस्सा जल्दी बन्द करुँ *(इंतजार कर रही हूँ)*
जवाब देंहटाएंसार्थक और सारगर्भित विषय ....प्रेरणा देती हुई गहन पोस्ट ...बधाई रश्मि दी ...उम्दा चयन है ...
जवाब देंहटाएंएक गंभीर और ज्वलंत विषय पर बहुत सारगर्भित प्रस्तुतियां...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुतियां,,,,,
जवाब देंहटाएंrecent post: रूप संवारा नहीं,,,
आभार यहाँ शामिल करने का..
जवाब देंहटाएंमुड़कर देखने का मन हो आया ...
जवाब देंहटाएं