मैं न यशोदा न देवकी न
मैं न राधा न रुक्मिणी न मीरा
नहीं मैं सुदामा न कृष्ण न राम
न अहिल्या न उर्मिला न सावित्री
.......... मैं कर्ण भी नहीं
नहीं किसी की सारथी
न पितामह न एकलव्य न बुद्ध
नहीं हूँ प्रहलाद ना गंगा न भगीरथ
पर इनके स्पर्श से बनी मैं कुछ तो हूँ
नहीं -
क्यूँ मैं कुम्हार की तरह अपनी ही मिटटी से
हर दिन ये सारे मूरत गढ़ती हूँ
क्यूँ मेरे भीतर ॐ की ध्वनि गूंजती है
अजान के स्वर निःसृत होते हैं
क्यूँ मैं अहर्निश अखंड दीप सी प्रोज्ज्वलित हूँ
क्यूँ .............. एक पदचाप मेरे साथ होती है
क्यूँ एक परछाईं मुझमें तरंगित होती है
..........
मैं नहीं कहती कि पत्थर में भगवान् है
पर ........... प्राणप्रतिष्ठा करनेवाली शक्ति
खुद को - कहीं भी कभी भी
प्रतिष्ठित कर सकती है न ???.............................
प्रभु को पाने के लिए, प्रभु के समीप होने के लिए भक्त की चाह अद्भुत होती है -
मैं शबरी बन जाऊं मेरे अंतर्मन का महाकाश(कविता विकास)
मेरे अंतर्मन का महाकाश
बाँध लो मुझे अपने पाश
झेल चुकी जग का उपहास
शून्य की प्रतिध्वनि हुंकार भरती
मन - प्राण विछिन्न हो विवशती
निराकाश से मुरली की तान निकलती
निस्तत्व प्राण में चेतना उमड़ती ।
विलय कर संशय का अतिरेक
मधुमय जीवन का कर अभिषेक
इहलोक में ईश्वरत्व का हो भान
मर्त्यमान जीवन में अनुराग का गान ।
विश्व के अधिष्ठाता एक है पुकार
राग - रंग के बंधन से हो उद्धार
प्रियत्व बन पथ प्रशस्त करो देव
निस्सार जीवन का सार बनो गुरुदेव।
उत्कर्ष अभिप्राय हो जीवन मंत्र
जिसमे न क्लेश न द्वेष का तंत्र
चराचर के बंधन से मुक्त हो जाऊँ
तुम बन जाओ राम मैं शबरी बन जाऊँ ।
प्रभु मैं हूँ -
तुम्हारी ही कृति .. ..
मनुष्य रुपी ये तन ..
और गुण- अवगुण से भरा मन .......
तुम्हीं ने तो दिए ...
प्रसाद रूप मैंने ग्रहण किये ...!
इन्हीं को साथ ले कर...
चलती हूँ मैं......
तुम्हारे पास पहुँचने का...
मन है ...मेरा ...
और अब यह भी प्रण है मेरा ..
तुम्हारी इस कृति से ...
सुकृती बनना है मुझे ...
तुम तक पहुँचना है मुझे ..!!
राह दिखती है ..
और फिर मुड़ जाती है ... !!
ये कैसे असत्य के
घेरे से घिर गयी हूँ मैं ... .....
कितनी ही कोशिश कर लूँ ..
तुम तक पहुँचने की ...!!
तुम मेरी पहुँच से दूर क्यों हो ..?
क्या पात्रता नहीं है मुझमे ..?
मेरी आहत नाद की अर्चना ...
मेरी अनाहत नाद की आराधना ...
शायद मेरे सत्य में...
मेरे कत्थ्य में ..
अभी भी वो
तत्थ्य नहीं ..वो सत्य नहीं ...
जो तुम तक पहुँच सके......!!
मोड़ बढ़ते ही जाते हैं ..
जीवन यात्रा चलती ही जाती है ..
अंतहीन ...अनवरत ..निरंतर ...
किन्तु अटल विश्वास है ..
तुम पर ...स्वयं पर भी ..
खोज लूंगी वो निधि एक दिन ...
तुम तक पहुँचने की विधि एक दिन ...!!
मन चिंतन ...
घिरी हुयी विचारों से ...
अब सोचती हूँ...
दीन हीन मलिन ...
शबरी में थी ..
कैसी ..भक्ति..आसक्ति ...
कैसी वो अदम्य शक्ति ....!!
खिला सकी प्रेम वश ..
अपने जूठे बेर भी तुम्हें ...
आज ..
भले ही वो युग नहीं है ...
पर सबकुछ तो झूठ
अभी भी नहीं है ...
दमकती है ..चमकती है ...
दूर ....एक किरण ...
अभी भी दिखती है-
निश्छल मुस्कान...
कुछ चेहरों पर...
कुछ सत्य बाकी है ..
निश्चित ही धरा पर ...
देता है नवचेतना ..
ये उगता हुआ सूर्य मुझे ...
चलना है चलना है ...
चलते ही जाना है ...
जीवन पर्यन्त..
प्रयत्न करते रहना है ....
त्याग कर असत्य का ..
ये ताना-बाना...
सशक्त सत्य को खोजते हुए ..
तुम तक पहुँचना ही है एक दिन ...!!
Sudhinama: कहाँ ढूँढूँ तुझे ?(साधना वैद)
कहाँ-कहाँ ढूँढूँ तुझे
कितने जतन करूँ,
किस रूप को ध्यान में धरूँ,
किस नाम से पुकारूँ,
गिरिजा, गुरुद्वारा
किस घर की कुण्डी खटखटाऊँ ?
किस पंडित, किस मौलवी,
किस गुरु के चरणों में
शीश झुकाऊँ
बता मेरे मौला
मैं कहाँ तुझे पाऊँ ?
ना जाने कितने
जन्म जन्मांतरों के
पाप पुण्य के हिसाब-किताब में
पंडित जी ने उलझा दिया है
हज़ारों देवताओं में से
जाने कौन से देवता
और हज़ारों धर्म ग्रंथों में से
जाने कौन सा पुराण
मुझे सही राह दिखायेंगे
मैं आज तक भ्रमित हूँ !
मौलवी जी के मुश्किल मशवरे
और उनकी सख्त हिदायतें मुझे
समझ नहीं आतीं
और मैं एक कतरा
रोशनी की तलाश में
भटकते-भटकते
और गहरी तारीकियों में
डूबता जाता हूँ !
मेरे प्रभु,
किस गुरू की सलाह पर
अमल करूँ और
किसके चरण गहूँ ?
यहाँ तो सब
धर्म के ठेकेदार बने
अपनी-अपनी दुकानें खोले बैठे हैं !
सब लाभ हानि के
जोड़-बाकी, गुणा-भाग में
अपनी सुविधा के अनुसार
अपने इच्छित प्राप्तांक को
पाने की आशा में
खुद ही सांसारिकता के
दलदल में आकण्ठ डूबे बैठे हैं !
वो भला मुझे कैसे और कौन सी
सच्ची राह दिखा पायेंगे !
क्या करूँ, कहाँ जाऊँ मेरे भगवन् !
अपने मन में झाँक कर
देखता हूँ तो पाता हूँ कि
तुम्हारा तो बस
एक नाम, एक रूप,
एक आकार और बस
केवल एक ही ठिकाना है
और वह है
मेरा अन्तस्तल !
जहाँ तुम्हारे दर्शन पाकर मेरी
सारी पीड़ा विलीन हो जाती है,
सारे भ्रम तिरोहित हो जाते हैं,
सारा अन्धकार मिट जाता है
और उस अलौकिक आलोक में
मेरी आँखों के सामने होती है
केवल तुम्हारी दिव्य छवि,
चहुँ ओर फैला होता है
अनुपम, अद्भुत, स्वर्गिक संगीत
और होती है अपार शान्ति,
परम संतोष एवं
हर शंका का समाधान करता
दिव्य ज्ञान का प्रकाश
जिससे मेरे मन का
हर कोना जगमगा उठता है !
मेरे देवता ,
यही है तम्हारा स्थायी देवालय
और मेरा मोक्षधाम ,
तुम्हारा चिरंतन शाश्वत कार्यालय
और मेरा परम धाम !
हे प्रभु!
मुक्त करो मुझे
दे दो कष्ट अनेक
जिससे बह जाये
अहं मेरा
अश्रुओं की धार से....
मुक्ति दो मुझे
जीवन की आपधापी से
बावला कर दो मुझे
बिसरा दूँ सबको...
सूझे ना कुछ मुझे..
सिवा तेरे..
डाल दो बेडियाँ
मेरे पांव में..
कुछ अवरोध लगे
इस द्रुतगामी जीवन पर..
और दे दो मुझे तुम पंख...
कि मैं उड़ कर
पहुँच सकूँ तुम तक...
शांत करो ये अनबुझ क्षुधा
ये लालसा,मोह माया..
छीन लो सब
जो 'मेरा' है
आँखों को स्वप्न से रीता कर दो..
जिससे मैं भर लूँ
तुम्हें अपने नैनों में
धर लूँ ह्रदय में..
हे प्रभु!
मन चैतन्य कर दो..
मुझे अपने होने का
बोध करा दो..
मुझे मुक्त करा दो....
यशोदा, देवकी, राधा, रुक्मिणी, मीरा, सुदामा, कृष्ण, राम,अहिल्या, उर्मिला, सावित्री,कर्ण, एकलव्य, बुद्ध आदि की बात हो और गांधारी की बात न हो, वह भी ऐसे समय मे जब राजधानी दिल्ली की सड़कों पर सरेराह एक नारी का चीर हरण हो और वहाँ की मुख्य मंत्री स्वाइन नारी हो .......अवश्य पढ़ें कालीपद "प्रसाद " की यह रचना : गांधारी के राज में नारी !
मैं मिलती हूँ कल सुबह 10 बजे पुन: परिकल्पना पर अठारहवें दिन की कुछ महत्वपूर्ण प्रस्तुतियों के साथ, तब तक शुभ विदा !
आज कई कवितायेँ हैं पढने के लिए आपकी पसंद बहुत अच्छी है |
जवाब देंहटाएंआशा
आभार हृदय से दी ......भटकन को यहाँ ठाँव मिली ....!!
जवाब देंहटाएंसभी एक से बढ़कर एक कवितायेँ पढने को मिली सभी लेखिकाओं को व् रश्मि जी को बधाई
जवाब देंहटाएंसभी रचनाए बहुत सुन्दर है..
जवाब देंहटाएंसभी रचनायें और भाव शानदार
जवाब देंहटाएंयुग युगांतर से प्रभु के पास पहुँचने की भक्त की लालसा और आकुलता का यह सिलसिला चलता ही आ रहा है ! हर युग में कई सिद्ध भी हुए जिन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई लेकिन जब तक यह अनुभव स्वयं ना हो जाए मन की व्याकुलता थमने वाली नहीं ! बहुत सुन्दर संकलन है रश्मिप्रभा जी ! अपनी रचना को यहाँ पाकर चकित भी हूँ और मुदित भी ! आभार आपका !
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ सुन्दर हैं दी......
जवाब देंहटाएंहमारी रचना को शामिल करने के लिए आपका शुक्रिया....
बहुत खुश हूँ दी...
सादर
अनु
रश्मि दीदी ,अपनी कविता यहाँ पा कर खुश हूँ ,पर अन्य कवियों की कविता को देखकर ज्यादा रोमांचित हूँ । बहुत अच्छा संकलन है ।
जवाब देंहटाएंघर से मस्जिद है बहुत दूर कि कुछ यूँ कर लें ,
जवाब देंहटाएंकिसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए |
अनंत ईश्वर को पाने के अनेक पथ बताए गए हैं | सभी रचनाएं एक अलग आध्यात्म प्रेषित करती हैं |
सादर