ज़िन्दगी - जितने चेहरे ,उतने रंग - जहाँ पे सवेरा वहां ज़िन्दगी कभी बंजारों सी,कभी गुलमर्ग,कभी दहशत,कभी गीत,कभी अजनबी ....!!! जंगल में 

ज़िन्दगी जंगल सी लगती है,गांव में गायों का झुण्ड भी ज़िन्दगी, अस्पताल में सन्नाटों में कराहटों सी ज़िन्दगी - ज़िन्दगी एक सी कहीं नहीं होती. 

होती तो न खुदा होता,न राग-मल्हार्, न अप्सराएँ,न सत्य,न झूठ ..... सबकुछ एक सा उत्साहहीन होता . 


ज़िन्दगी का सौन्दर्य दर्द में है,दर्द ना हो तो सही रंग नहीं भरते ज़िन्दगी में .... चलिए अलग अलग लोगों की कलम में ज़िन्दगी को देखते हैं =


कुछ भी तो नहीं हुआ ,
कुछ भी तो नहीं
फिर ये अचानक मेरी आँखों के कोरों से आंसू क्यूँ छलक गए!

‘मैडम आपके लिए किसी का मेरेज कार्ड है’, पोस्टमैन ने कार्ड थमाते हुए आरती से कहा, आरती के हाथ में कार्ड आया ही था के फ़ोन की घंटी बज गयी, ‘तुम्हे कार्ड मिला? ’फ़ोन पर आकाश था, ‘जरा ठहरो, आरती बस इतना ही कह सकी, सवाल सुनते ही आरती का दिल बैठ गया, वो चुप थी, आरती ने एन्वेलप खोला और पढ़ना शुरू किया, आकाश ने खुद अपनी शादी का इनविटेशन कार्ड तैयार किया था, वो पढ़ती जा रही थी और उसका दिल बैठा जा रहा था, पढ़ने के बाद उसने आकाश से बस इतना ही कहा ‘खुश रहो हमेशा, मेरी दुआ तुम्हारे साथ है!’...........उसे मालूम भी न चला कब उसके आँख से आंसू छलक पड़े! एक पल पहले तक वो सोच रही थी के वो आकाश को भूल गई है, उसकी शादी होने वाली है ये तो वो पहले से जानती थी, ‘हाँ यही तो वो वजह थी के उसने खुद को आकाश से दूर कर लिया था, उसने तो बस इतना ही चाहा था के आकाश अपनी ज़िन्दगी के हर रंग देखे, खुश रहे, और जिस से भी उसकी शादी हो उस लड़की से उसे भरपूर प्रेम मिले, ‘मैं तो हमेशा से यही चाहती थी के आकाश की ज़िन्दगी खुशहाल रहे, उसे वो सारी  खुशियाँ मिले जिसका वो हक़दार है! फिर आज ये आंसू क्यूँ?, आरती अनगिनत सवालों में उलझ गयी!

दोनों में गहरी दोस्ती थी, पर आकाश आरती से प्यार करता था, जो उसने बहोत देर से बताया, हाँ आरती की शादी हो जाने के बाद, वो जनता था के ये शादी, शादी नहीं एक समझौता मात्र है! खुद को उसने रोका भी नहीं, हर मुमकिन कोशिश करता आरती को खुश रखने की, पर वो अपनी ज़िन्दगी में उलझी रहती जो एक स्याह रात के सिवाय कुछ न थी! आरती की ज़िन्दगी एक शाम की तरह थी, एक ऐसी शाम के जिसके बाद रात होना निश्चित है! सारा सच जानने के बावजूद आकाश उससे प्यार करता था, ऐसा वो कहता था, आकाश को आरती की आवाज़ में दर्द की एक झलक भी दिखती तो तड़प उठता, और उसे हंसाने की हर मुमकिन कोशिश करता, लेकिन ख़ुशी बस कुछ पल की होती, आरती फिर लौट आती उसी गहरी शाम के साए में जहाँ से समझौते का सफ़र शुरू होता! ‘आरती बस एक बार कह दो क्या तुम्हे एक पल को भी मुझसे प्यार हुआ है?’ इस सवाल का जवाब दे पाना आरती के लिए आसन न था, वो कहती, ‘हाँ, पर बस एक दोस्त की तरह!’ आरती जितनी भावुक लड़की थी उतनी ही सच्चाई का सामना करनेवाली भी, वो सच जानती थी, वो इस बात को जानती थी के आकाश एक आम इंसान है, वो प्यार तो कर सकता है पर समाज के बनाए बंधनों को तोड़ने की हिम्मत नहीं, शायद यही वो वजह थी के वो कभी खुल के अपने मन की बात न कह सकी! वो जानती थी के आकाश जबतक उस से दूर न जाएगा वो अपनी ज़िन्दगी में आगे नहीं पढ़ पाएगा, सीर्फ इसीलिए उसने खुद को आकाश की नज़रों में गिराने का फैसला किया! और कामयाब भी हो गयी! आकाश का दिल टूट गया और उसने आरती को हिकारत की नज़रों से देखा, आरती सब सहती रही, एक दिन हार कर आकाश ने आरती से हर ताल्लुक तोड़ लिए, कई महीने गुज़र गए दोनों में कोई बातचीत न हुई, पर आज? जाने क्यूँ आरती को ये बात चुभी थी के जो शक्स मुझसे प्यार करने के दावे किया करता था, उसकी शादी है ये तो मालूम है, पर ऐसा कैसे हो सका के उसने  इतने शौक से अपनी शादी का कार्ड डिज़ाइन किया?

क्या वजह थी के आकाश ने इतने दिनों बाद आरती से बात करने की कोशिश की? क्या वो उसे भूला नहीं था?
क्या वजह थी के आकाश ने वो इनविटेशन कार्ड आरती को भेजा ? क्या वो आरती के मन की थाह लेना चाहता था?
क्या वजह थी के आरती ने जब खुद को पूरी तरह इस रिश्ते से काट लिया था फिर भी आकाश के कार्ड को देख उसकी सांस सीने में अटक गयी? क्या उसे आकाश का इंतज़ार था?

कितनी अजीब बात है न, जो हमसे प्यार करे हम उसके होते भी नहीं, और उसपर अपना हक भी समझते हैं, समझदारी कहती है के शादी आँखें खोल के करनी चाहिए, जीवन का बहोत अहम् फैसला है, और मन कहता है, के उसने अपनी आँखें खोल, सबकुछ खंगाल कर कदम उठाया?

क्या है ये ज़िन्दगी, क्या हैं ये रिश्ते,
कभी खुशियों से सराबोर करते हैं, कभी आपस में उलझते!

ज़िन्दगी युगों की चाक से गुजरती है, एक कदम पीछे तो एक कदम आगे ............ तभी तो =

हर अगला कदम पिछले कदम से खौफ खाता है 
की हर पिछला कदम अगले कदम से बढ़ ही जाता है ......... और तब एक कैनवस से दूसरा कैनवस पूछता है 


हे आर्य पुत्र मेरी
शंका का समाधान करो
My Photoमै धरा -नंदिनी सीता आज
तुमसे एक प्रश्न पूछती हूँ
वो पुत्र तुम ही हो न
जिसने पिता के वचन हेतु
चौदह साल का बन गमन
सहर्ष स्वीकारा परन्तु
पत्नी को दिए सात वचन
तुम कैसे भूल गये
हे राघव तुम भले ही
मात्रपितृ भक्त हो
अनुकरणीय भ्राता भी
परन्तु क्या तुम
उपमेय पति हो ?
अपनी आसन्नप्रसवा पत्नी को
बन भेज कर तुमने किस -
मर्यादा का पालन किया
जो तुम्हारे ही वंशज को
अपने रक्त मांस से पोस रही थी
उसे बन की कठोर जीवन शैली
सौपते हुए तुम्हारा ह्रदय नहीं कांपा
तुममें इतना भी साहस न था
कि उसे उसका अपराध बता कर
स्वयं छोड़ आते --परन्तु
लघु भ्राता द्वारा भेज तुमने
अपना अपराध बोध तो
स्वयं ही सिद्ध कर दिया-
अयोध्या नरेश ये कैसा न्याय है ?
कैसी मर्यादा है मर्यादापुरुषोत्तम ?
अब क्या कहूँ --नहीं कहूँगी कुछ
मै अनुगामिनी हूँ तुम्हारी --
हे रघुवीर बन गमन के समय
तुम्हारे साथ आने का निर्णय मेरा था
पतिधर्म में कौन सी कमी रह गई थी
जो मेरी अग्नि परीक्षा ली तुमनें
हे राघव दुःख और कठिन परीक्षा की
घड़ी में छाया की भाँती साथ रही
अपनी ही अनुगामिनी को
धोबी के मात्र दो बोलों पे त्याग दिया
जाओ दशरथनंदन  मै जनकनंदिनी वसुधापुत्री
सीता तुम्हे छमा करती हूँ जानते हो आर्य पुत्र
मै धरा की पुत्री हूँ माता का धैर्य है मुझमें
तुम्हारे पुत्र तुम्हे सौंप --मै अपनी माँ की गोद में
विश्राम करती हूँ --हे रघुवीर तुम्हे त्याग कर
सदा के लिए --बस यही प्रतिकार है मेरा
मुझे ज्ञात है तुम अनुत्तरित ही रहोगे ...

पूरी ज़िन्दगी विभाजित घुमती है - एक तरफ मोह,एक तरफ संन्यास,एक तरफ भौतिक मृगतृष्णा,एक तरफ भूखी रात ....

इसी ज़िन्दगी में है 
My Photoहमारे गांव में एक फकीर घूमा करता था, उसकी सफेद लम्बी दाढ़ी थी और हाथ में एक मोटा डण्डा रहता था। चिथड़ों में लिपटा उसका ढीला-ढाला और झुर्रियों से भरा बुढ़ापे का शरीर। कंधे पर पेबंदों से भरा झोला लिये रहता था। वह बार-बार उस गठरी को खोलता, उसमें बड़े जतन से लपेटकर रक्खे रंगीन कागज की गड्डियों को निकालता, हाथ फेरता और पुनः थेले में रख देता। जिस गली से वह निकलता, जहां भी रंगीन कागज दिखता बड़ी सावधानी से वह उसे उठा लेता, कोने सीधे करता, तह कर हाथ फेरता और उसकी गड्डी बना कर रख लेता।

फिर वह किसी दरवाजे पर बैठ जाता और कागजों को दिखाकर कहा करता, "ये मेरे प्राण हैं।" कभी कहता, "ये रुपये हैं। इनसे गांव के गिर रहे अपने किले का पुनर्निर्माण कराऊंगा।" फिर अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरकर स्वाभिमान से कहता, "उस किले पर हमारा झंडा फहरेगा और मैं राजा बनूंगा।"

गांव के बालक उसे घेरकर खड़े हो जाते और हँसा करते। वयस्क और वृद्ध लोग उसकी खिल्ली उड़ाते। कहते, पागल है, तभी तो रंगीन रद्दी कागजों से किले बनवाने की बात कर रहा है।

मुझे अनुभूति हुई कि हम भी तो वही  करते है। उस फकीर की तरह हम भी रंग बिरंगे कागज संग्रह करने में व्यस्त है और उनसे दिवास्वप्न के किले बनाने  में संलग्न है। पागल तो हम है जिन सुखों के पिछे बेतहासा भाग रहे है अन्तत: हमें मिलता ही नहीं। सारे ही प्रयास निर्थक स्वप्न भासित होते है।  फकीर जैसे हम संसार के प्राणियों से कहता है, "तुम सब पागल हो, जो माया में लिप्त, तरह-तरह के किले बनाते हो और सत्ता के सपने देखते रहते हो, इतना ही नही अपने पागलपन को बुद्धिमत्ता समझते हो" 

ऐसे फकीर हर गांव- शहर में घूमते हैं, किन्तु हमने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है और कान बंद कर लिये हैं। इसी से न हम यथार्थ को देख पाते हैं, न समझ पाते हैं। वास्तव में पागल वह नहीं, हम हैं। 

पर =

तुमने रिवाज़ों की दहलीज़ पर 
जलाया होगा कई बार 
मन्नतों का दिया 
कई बार परम्‍पराओं के नाम पर 
ना चाहते हुये भी 
निभाया होगा रस्‍मों को 
... 
हर रस्‍म हर रिवाज़ परम्‍परा बने 
ये जरूरी नहीं 
कभी किसी कोशिश को दिल से 
निभाकर तुम 
आंखों को बरबस भीगने के लिए 
मजबूर कर देते हो 
... 
कुछ छूटते हुए को पकड़ने का क्रम
चलता रहता है निरन्‍तर 
सब इसी फेर में हैं 
कुछ छूटने ना पाये पर 
फिर भी छूटता जा रहा है 
कहीं कुछ !
कभी छूटते हैं जाने-अंजाने 
अपनों से अपने
कभी-कभी छूट जाते हैं 
आंखों में बसे अपने ही सपने 
ऐसे ही कहीं छूट जाता है 
हाथों से हाथ !!
दूर हो जाता है कोई बहुत खा़स 
और तो और एक दिन छूट जाती है 
यूँ ही जिन्‍दगी भी  !!!


और फिर एक नयी ज़िन्दगी करती है परिक्रमा मोह्बंधों से लेकर चक्रव्यूह तक ..... यूँ कहें गुमशुदा ख़ामोशी 

तक !


अब मैं आपको मिलवाने जा रही हूँ सुर कोकिला लता दी से। ऐसी महान विभूति से एक मुलाक़ात करवा रहे हैं वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार दयानंद पांडे जी ...यहाँ किलिक करें 

6 comments:

  1. इतनी मेहनत तो पीएच. डी. करने वाले लोग भी नहीं करते. साधुवाद.

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  2. मैं भी काजल भाई की बात से सहमत हूँ :)

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  3. बहुत बहुत आभार इस प्रस्तुति को परिकल्पना में सम्मलित करने के लिए!!

    वाकई अतुल्य श्रम है।

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  4. बहुत आभार रश्मि जी | इस उतसव की हर प्रस्तुति के लिए साधुवाद |
    शशि पाधा

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  5. सुज्ञ जी बहुत सही कहा आपने , पूर्णतः सहमत हूँ | मुझे बरबस ही दिल्ली ६ फिल्म का वो फ़कीर यद् आ गया जो राह चलते हर शख्स को आईना दिखाया करता था |

    सादर

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