इतिहास गवाह है
स्त्रियों की सहनशीलता
उन्हें दीवारों में चुनती गई है
या फिर अग्नि की समिधा बन गई है ....
देह की सीमा से परे - WORLD's WOMAN BLOGGERS ...(शालिनी)
देह की सीमा से परे
बन जाना चाहती हूँ
एक ख्याल
एक एहसास ,
जो होते हुए भी नज़र न आये
हाथों से छुआ न जाए
आगोश में लिया न जाए
फिर भी
रोम-रोम पुलकित कर जाए
हर क्षण
आत्मा को तुम्हारी
विभोर कर जाए
वक्त की सीमा से परे
बन जाना चाहती हूँ वो लम्हा
जो समय की रफ़्तार तोड़
ठहर जाए
एक - एक गोशा जिसका
जी भर जी लेने तक
जो मुट्ठी से
फिसलने न पाए
तड़पना चाहती हूँ
दिन - रात
सीने में
समेट लेना चाहती हूँ
बेचैनियों का हुजूम
और फिर
सुकून की हसरत में
लम्हा लम्हा
बिखर जाना चाहती हूँ
बूँद नहीं
उसका गीलापन बन
दिल की सूखी ज़मीन को
भीतर तक सरसाना
हवा की छुअन बन
मन के तारों को
झनझना
चाहती हूँ गीत की रागिनी बन
होंठों पे बिखर - बिखर जाना
जिस्म
और जिस्म से जुड़े
हर बंधन को तोड़
अनंत तक ..........
असीम बन जाना
चाहती हूँ
बस......
यही चाहत
! नूतन ! : पुरुष सदा निर्दोष -एक सार्वभौमिक सत्य(शिखा कौशिक)
देवी सीता का हुआ हरण
इसके पीछे था क्या कारण ?
स्त्री बोली - था नीच अधम
पर पुरुष का है भिन्न मत
उसने ढूँढा स्त्री मे दोष
बोला एक पक्ष है अनदेखा
क्यों लांघी सीता ने
लक्ष्मण -रेखा ?
चीर हरण कृष्णा का हुआ
क्यों हुआ कहो इसका कारण ?
स्त्री बोली -पुरुषों के खेल
सदियों से नारी रही झेल ,
पर पुरुष का है भिन्न मत
उसने ढूँढा स्त्री का दोष
कृष्णा वचनों की कटु चोट
दुर्योधन उर को रही कचोट
कृष्णा का दोष था इसमें साफ़
कौरव कर देते कैसे माफ़ ?
फिजा की निर्मम हत्या और
गीतिका की आत्महत्या
दोनों में दोषी है कौन ?
कहो जरा मत रहो मौन ,
स्त्री बोली-शोषण आग में वे जल गयी
मक्कार पुरुष से छली गयी ,
पर पुरुष का है भिन्न मत
उसने ढूँढा स्त्री में दोष
दोनों क्या बच्ची थी अबोध
यथार्थ का नहीं था बोध ?
उड़ने के जोश में खोये होश
क्यों रही शोषण पर खामोश ?
परिवार पिता भाई माता
सबका इसमें दोष है
चाँद और गोपाल तो
बन्दे बिल्कुल निर्दोष हैं !!!
हाँ स्त्री हूँ मै… | हृदयानुभूति(इंदु सिंह)
पुरुषत्व को जोड़ती
गहन गुफाओं में पनाह देती
स्त्री हूँ मै ।
एक नई स्रष्टि रचती
पहाड़ों से नदिया बहाती
स्त्री हूँ मै ।
इमारतों को बदल घर में
प्रेम की छाँव देती
स्त्री हूँ मै ।
अतिथि देवो भव,संस्कारों
को पिरोती पीढ़ी दर पीढ़ी
स्त्री हूँ मै ।
पिरोती समाज की हर रीत को
चटकती,बिखरती माला सी
स्त्री हूँ मै ।
हाँथों में सजा कर पूजा की थाली
आँखों में गंगा,ह्रदय में दुर्गा
स्त्री हूँ मै ।
देखो ! न दिखूँ जहाँ मै
वहाँ गौर से
सुनो ! न सुनाई दे जो
आवाज़ मेरी उसे
जवालामुखी सी बेहद शांत
स्त्री हूँ मै ।
सदियों से समाज मुझे समझाए जाए
जबकि अब तलक न ये खुद समझ पाए
स्रष्टि कर्ता ही नहीं
सम्पूर्ण स्रष्टि हूँ मै
हाँ ! स्त्री हूँ मै ….
उत्तम पुरुष: हे स्त्री(विमलेन्दु)
डगमग आस्थाओं के बावजूद
अभी
सब कुछ बीत नहीं गया है.
अभी पाना है उसे
जो अथाह है.....अमृत है.
जो दिखता है अलभ्य जैसा
क्षण क्षण पा लेने की
चुनौती देता हुआ.
हे स्त्री !
आकांक्षा के
इस सहज उत्कर्ष में
मैं तुम्हारी
सदय उपस्थिति के लिए
प्रार्थना करता हूँ ।
उत्सव का बारहवाँ दिन आज पूरे शबाब मे है । कई सृजनधर्मियों की रचनाओं की यह प्रस्तुति एक आयाम को
प्राप्त करे उससे पहले मैं आपको ले चलती हूँ वटवृक्ष पर जहां के के यादव उपस्थित हैं अपनी एक कहानी आवरण लेकर ......यहाँ किलिक करें
इसी के साथ आज का कार्यक्रम संपन्न, कल फिर मिलेंगे सुबह 10 बजे परिकल्पना पर ।
saare rachnayen bejod:)
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी सभी रचनाये ..पठनीय ,प्रशंसनीय
जवाब देंहटाएंइतिहास गवाह है
जवाब देंहटाएंस्त्रियों की सहनशीलता
उन्हें दीवारों में चुनती गई है
या फिर अग्नि की समिधा बन गई है ....
बिल्कुल सही कहा आपने ... सभी रचनाओं का चयन एवं प्रस्तुति बेहद सशक्त
आभार सहित
सादर
सभी रचनाएं सुन्दर लगीं ....बधाई इस सार्थक प्रस्तुति के लिए ......
जवाब देंहटाएंDr. Rama Dwivedi
परिकल्पना में चयन करने के लिए धन्यवाद, डॉ. शिखा, इंदु जी एवं विमलेन्दु जी कि रचनाएँ बहुत प्रभाव शाली लगीं.
जवाब देंहटाएंसाभार!
सभी रचनाएं सुन्दर लगीं ....बधाई
जवाब देंहटाएंरचना शामिल करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। सभी रचनाएँ गहन भावों को समेटे हुए हैं।
जवाब देंहटाएंसादर
इंदु
प्रभावशाली रचनाएँ...
जवाब देंहटाएंस्त्री को स्त्री होने के लिए सदा गर्वित रहना चाहिए
...सम्पूर्ण सृष्टि निहित है उसमें !!
बहुत सशक्त रचनाएँ...
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ बढ़िया !
जवाब देंहटाएं~सादर!!!
सभी रचनाएं सुन्दर और भावपूर्ण हैं..
जवाब देंहटाएंशालिनी जी,
जवाब देंहटाएंअस्तित्व का रेशा-रेशा करती सी रचना ...!
क्या भाव है, भावनाएं है जो सिर्फ मुक्ति की ओर मुक्त आकाश
की ओर ही खुले ...
आपका धरातल कितना परिपक्व है ...और आपके
शब्द या तो फूल (पुष्प) है या उस पर सुबह-सुबह की निर्मल ओस ...
जीवन के हर उन हालातों या परिस्थितियों का परिष्कार है कविता में चाहे संसार जिन्हें दुखद कहे या सुखद ...पर यहाँ तो जीवन के जीने में सभी कुछ शामिल है ...यहाँ एक जीवन-दर्शन है, परिष्कृत सा ...अभिव्यक्ति और भाषा दोनों ही
बंधनमोचक से।
ऐसी कविता को तो जिया जाए, प्रसंशा तो बाद की बात हो ।
इमारतों को बदल घर में
जवाब देंहटाएंप्रेम की छाँव देती
स्त्री हूँ मै ?
सभी रचनाएँ बहुत ही बेहतरीन है..
जवाब देंहटाएंबहुत बढियां...
:-)
बहुत सुन्दर रचनाएँ हैं दी...
जवाब देंहटाएंसभी लाजवाब...
सादर
अनु
एक से बढ़कर एक रचनाएँ
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति..आभार!!
जवाब देंहटाएंrashmi ji -hardik aabhar meri rachna ko yahan sthan pradan karne hetu.sabhi rachnaon ka vishynusar sateek chayan kiya hai aapne .badhai
जवाब देंहटाएंaapki post ka link yahan bhi hai -
जवाब देंहटाएंहम हिंदी चिट्ठाकार हैं
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...बधाई...|
जवाब देंहटाएंप्रियंका गुप्ता
स्त्री-पुरुष में समानता सिर्फ किताबों और भाषणों में ही सीमित है , सच्चाई है कि समाज में भेद आज भी है |
जवाब देंहटाएंसादर