माँगा था सुख, दुख सहने की क्षमता पाया,
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।

पता नहीं कैसे, हमने रच दी है, सुख की परिभाषा,
पता नहीं कैसे, जगती है, संचित स्वप्नों की आशा,
पता नहीं जीवन के पथ की राह कहाँ, क्या आगत है,
पता नहीं किसका श्रम शापित, किन अपनों का स्वागत है,
सुख, संदोहन या भिक्षाटन या दोनों की सम्मिलित छाया।
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।१।
मन की स्याह, अकेली रातें, घूम रहा मन एकाकी,
निपट अकेला जीवन उपक्रम, यद्यपि संग रहे साथी,
सुख के स्रोत सदा ही औरों पर आश्रित थे, जीवित थे,
सबके घट उतने खाली थे, कैसे हम अपने भरते,
सुख, आश्वासन अपने मन का या आश्रय का अर्थ समाया।
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।२।
सुख के हर एकल प्रयास में कुछ न कुछ तो पाया है,
विघ्न पार कर, सतत यत्न कर, मन का मान बढ़ाया है,
ना पाये आनन्द, नहीं मिल पाये जो सब चाह रहा,
श्यामवर्णयुत अपना ही है, जो अँधियारा स्याह रहा,
नहीं व्यर्थ कोई श्रम दिखता, जीवन का हर रंग लुभाया।
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।३।
गहरी चोट वहीं पर खायी, जो मन में गहराये थे,
पीड़ा उन तथ्यों में थी जो उत्सुकता बन छाये थे,
जिनकी आँखों में स्वप्न धरे, उनकी आँखें लख नीर बहा,
जिनके काँधों पर सर रखा, उनसे त्यक्ता, उपहास सहा,
सागर की गहराई समझा, ज्यों ज्यों खारा नीर बहाया ।
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।४।
मेरे जैसे कितने ही जन, सुख की आशायें पाले,
अर्थ प्राप्ति ही सुख का उद्गम, साँचों में समुचित ढाले,
कितने जन इस अनगढ़ क्रम में, वर्षों से रहते आये,
कुछ समझे, कुछ समझ रहे हैं, अनुभव जो सहते आये,
दीनबन्धु की दुनिया, संग में, आज स्वयं को जुड़ते पाया ।
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।५।
सुख दुख की सर्दी गर्मी सह, जी लूँ मैं निर्द्वन्द्व रहूँ,
प्रतिपल उकसाती धारायें, क्यों विचलित, निश्चेष्ट बहूँ,
हर प्रयत्न का फल जीवन भर, नीरवता से पूर्ण रहे,
मन में शक्ति रहे बस इतनी, सतत प्राप्ति-उद्वेग सहे,
मा फलेषु का ज्ञान कार्मिक, अनुभव घट जाकर भर लाया।
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।६।