ब्लॉग की दुनिया एक साहित्यिक दुनिया है .... एक वह माध्यम, जहाँ हम अपनी इच्छा से लिखते हैं . टिप्पणियों की चाह होती है,पर व्यर्थ की टिप्पणियों से बेहतर है - ना पढ़ें ! खैर, ब्लॉग से निकलकर एक बहुत बड़ी संख्या संग्रहों की दुनिया में आई,कई सशक्त तो कई कमज़ोर प्रकाशक प्रकाशन के क्षेत्र में आये .... जिसने भी पैसे देकर खुद को छपवाया या शुरू में एकत्रित करके या फिर अपने बल पर साझा संग्रह निकाला , उसकी साहित्यिक अभिलाषा को संतुष्टि मिली .... लगा कुछ कर पाए यूँ ही खर्च होती ज़िन्दगी में . प्राप्य ? पैसे का प्राप्य किसी को नहीं - संभवतः कुछ प्रकाशकों की मोनोपोली हो सकती है,पर संपादन में जो उतरे या अपना संग्रह निकलवाया - वह उनके लिए स्वान्तः सुखाय जैसी भावना थी- वसुधैव कुटुम्बकम सी !
पैसे यदि पेड़ पर भी उगें तो कोई दूसरों को नहीं देता, पर यदि वह यह हिम्मत करता है तो बहुत बड़ी बात है न . एहसासों की ज़मीन पर जो खड़े हैं,उनके लिए तो यह समझना अति आसान है कि ऐसे कदम उठानेवाला कहीं न कहीं अपने अकेलेपन से लड़ रहा है . किताबें जब आप नहीं खरीदते तो कैसे सोच लिया कि औरों ने खरीदा होगा और आर्थिकरुपी मस्ती मिली होगी ! यहाँ इस भीड़ में खड़े होने की बजाये सब रेंगने लगे हैं, पैरों के नीचे से जमीं खींचने की भावना लिए ...
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अपनी कुर्सी,अपना कमरा देखना ज़रूरी नहीं लगता .... धूल के कण कहाँ नहीं होते .... देखकर भी समझौते की थकान कहाँ नहीं होती .... फिर क्यूँ अपना घर छोडकर दूसरे के घर को निशाना बना रहे - वो भी बिना जाने-समझे .
जिस तरह से हम अपनी पसंद से खाना खाते हैं,उसी प्रकार पढने में भी अपनी पसंद होती है . मैं अंग्रेजी फर्राटे से नहीं बोलती,अंग्रेजी किताबें नहीं पढ़ती,अंग्रेजी फ़िल्में नहीं देखती ... तो क्या मैं आधुनिक नहीं ? आधुनिकता की परिभाषा किसने अंग्रेजी बोली,अंग्रेजी पहनावा और सरेआम शराब पिने को बना दिया ? उम्र की डिग्निटी यदि बोली,सोच,पहनावे में ना हो तो कैसी आधुनिकता !!! बेबाक सिगरेट के कश लेती लड़कियों को, घर से दूर होटल में गए रात डगमगाती युवा पीढ़ी को देखकर उनसे अधिक उनके अभिभावकों पर तरस आता है ...... तरस आता है उन माँ पिताओं पर जो बुद्धिजीवी से अंदाज में कहते हैं कि 'इसमें गलत क्या है' और बेटे,बेटियों के साथ जाम बनाते हैं .
यह नशा अकेलेपन को जन्म दे रहा ..... रिश्तों को (खून के हों या पानी के) पैने नुकीले शब्दों से काटने की बजाये,किसी के अच्छे कृत्यों में कमी ढूँढने की बजाये उसकी विशेषता ढूंढिए, फर्क नज़र आ जायेगा .
संग्रहों के संपादन में जो उतरे हैं,उन्हें कोई रोयालिटी नहीं मिल रही ..... उनसे उम्मीदें पालने की बजाये उनको सहयोग देना आपको उचित नहीं लगता ?
प्रकाशक बिना किसी क़ानूनी अनुबंध के कार्य कर रहे हैं,जिससे रचनाकारों को परेशानी हो रही है- सोचना तो इस दिशा में आवश्यक है ....
आज अपने इस आलेख में मैं तीन नामों का उल्लेख करना चाहूंगी, जिन्होंने साहित्य के क्षेत्र में निःस्वार्थ अपना योगदान दिया
क्षितिज के उस पार
जहाँ चाँद समुंदर में उतर आया है
चलो जल्दी से नहां लें
कंही चाँद खो न जाये
अभी अभी
एक बच्चे नें वहां
पत्थर उछाला है
अंजू चौधरी - अपनों का साथ जो कहती हैं,
मुझे पसंद है,
बहता हुआ दरिया
नित नए पानी सी
उमंग से भरी जिंदगी
जो अपने साथ
एक गहरी चुप्पी रखती हो
सदा' - SADA जो कहती हैं,
कभी खोये से ख्याल,
मिल जाते हैं जब
एक जगह तो सवाल करते हैं
अपने आप से ?
ऐसा क्यूँ है कोई आवाज उठाता
हक़ की कोई कहता
मेरी कद्र क्यूँ नहीं की ?
मैं हालातों का जिक्र करती
समझौते की जिन्दगी
कैसे जीनी होती है बतलाती
पर कहाँ सुनते वे मेरी !
.............................. ........................... आज मुझे कहना ज़रूरी लगा,क्योंकि इनलोगों ने जो किया वह दिल से किया और यूँ भी करनेवाले दिल से अमीर होते हैं,पैसों की अमीरी ज़रूरी नहीं होती !
आज इस प्रवाह में हम पढ़ते हैं -
बैसवारी baiswari: बात अपनों से !(संतोष त्रिवेदी)
हम २१ वीं सदी में लगातार अपने कदम बढ़ाते जा रहे हैं,पर हमारे नैतिक और शैक्षिक मूल्य निरन्तर पतन की ओर अग्रसर हो रहे हैं। आज समाज में कई कुरीतियों ने जन्म ले लिया है,जिसमें एक प्रमुख रूप से यह है कि हम अपना भौतिक विकास किसी भी कीमत पर करना चाहते हैं। शिक्षा के मंदिर भी इससे अछूते नहीं रहे! न वे गुरू रहे ना ही वे शिष्य। ऐसे अध्यापक थोड़ी संख्या में ही हैं जो अपने काम से न्याय नहीं कर पा रहे पर बदनाम पूरा कुनबा हो गया है। इसका फौरी नुकसान ये हुआ है कि अधिकतर बच्चे बिगड़ रहे हैं और गुरुओं के लिए उनमें मन में सम्मान कम हुआ है। बहुत सारे अन्य कारण हैं जिन्होंने वर्तमान शिक्षा -व्यवस्था को चौपट कर दिया है। समाज ,सरकार और शिक्षकों का मिलकर यह दायित्व है कि शिक्षा -व्यवस्था के गिरते स्तर को रोकें!
काव्यान्जलि ...: तेरी फितरत के लोग,,,(धीरेन्द्र सिंह भदौरिया)
खुद रहते शीशे के घर में
पत्थर लिये खड़े क्यों लोग,
घर दूजे का झाँके क्यों लोग,
है जमीर खुद का सोया फिर
आइना लिये खड़े क्यों लोग,
जन्म लिया जिस धरती में
उससे फिर भागे क्यों लोग,
जब हमे थाम लिया धरती ने
आसमां फिर तकते क्यों लोग,
ऐ"धीर"अपनी बदल ले फितरत
नहीं यहाँ तेरी फितरत के लोग,,,
झरोख़ा: बोलते स्वर !(निवेदिता)
अनहत नाद से
अनसुने स्वर
बसेरा बनाये
हमारे बीच
ये भी घण्टी से
झंकृत हो
बोल सकते हैं
बस हमको
बनना होगा
खामोश पड़ी
घण्टी के
मन के द्वार
खोलते और
बोलते स्वर !
मैं एक बार फिर ले रही हूँ मध्यांतर और आपको ले चल रही हूँ वटवृक्ष पर जहां संत कुमार अपनी सारगर्भित अभिव्यक्ति के माध्यम से पूछ रहे हैं पश्चिम या पूरब ?
अच्छी रचनाएं पढ़वाने के लिए धन्यवाद....
जवाब देंहटाएंइतना कहूँगा अच्छे लोगों को सब अच्छे नज़र आते हैं .. कई लोग दूसरों को भी अच्छे कामों में लगाने का हुनर रखते हैं ... रश्मि जी उन्ही में से एक हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब रचनाएं पढ़ने को मिलती हैं यहाँ ...
....बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंसोचने को मज़बूर करता लेख और सुंदर रचनाएँ ..
जवाब देंहटाएंआभार!
सभी रचनाओं का चयन एवं प्रस्तुति अति-उत्तम
जवाब देंहटाएंआभार इस प्रस्तुति के लिये
सादर
बहुत सुंदर रचनाएं
जवाब देंहटाएंशुक्रिया,,,,,रश्मी प्रभा जी,,,,आभार
जवाब देंहटाएंravindra ji or rashmi di ka dil se aabhar ...3rd time parikalpna ka hissa banane ke liye...:))
जवाब देंहटाएंपूरा लेख ही बहुत अच्छा है , दिगंबर जी की चंद पंक्तियाँ बहुत प्यारी हैं |
जवाब देंहटाएंसादर