मैं - अस्तित्व चिन्ह ....
दो अस्तित्व - 
यानि दो मैं एकाकार होकर - हम बनते हैं 
पर एक मैं - अस्तित्व 
एक मैं अहम् ..... एकाकार होते ही नहीं 
और जहाँ दोनों मैं अहम् हो 
तो रचना से परे विध्वंसात्मक तत्व 
हर युग को प्रश्न चिन्ह बना जाते हैं !!! .................

बोतल खाली नहीं है पतवार छीन लो!(उमेश महादोषी)


मझधार में नाव हो
और मेरे हाथों में 
पतवार हो
मैं लहरों पर 
कविताएँ  लिखता रहूँ 
और नाव डूब जाये
बताओ

क्या मुझे माफ कर दिया जाये?

इसलिए कहता हूँ 
देश को 
देश के नजरिए से देखो
मुसाफिरो! 
आंखें खोलो और समझो
एक जर्जर नाव की तरह देश
हिचकोले खा रहा है 
और वह, जिसे नाव खेनी है
बस कविताओं का स्वप्नजाल 
बिछा रहा है

उठो!
एक ऐसा नाविक ढूंढ़ो
जिसके बारे में 
चाहे जो कहा जाये
पर वह
पतवार चलाना जानता हो
नाव को मझधार से 
निकालना जानता हो

देश रहेगा
तो देश चलेगा भी
लहरों पर कविताएँ लिखने से
न देश बचता है
न देश चलता है
और आज जो हमारा नाविक है
वह सिर्फ और सिर्फ

लहरों पर कविताएँ लिखता है!


बोतल खाली नहीं है: एक व्यक्ति का होना(उमेश महादोषी)


सत्ता के साये से निकलकर

कितना महत्वपूर्ण होता है

एक व्यक्ति का होना

सत्ता के चरित्र/और

सत्ता के विरोध

दोनों को दरकिनार करके

कितना महत्वपूर्ण होता है

सत्ता की ही एक कुर्सी पर

एक व्यक्ति का बैठना

यह साबित करता है

इस शहर से

पॉलीथीन का गायब होना


भले, इस भले काम में

शामिल है आज- पूरा का पूरा शहर

पर शहर तो यही था कल भी

नहीं था तो बस एक व्यक्ति!


कुछ लोग कहते हैं-

कितने दिनों तक रहेगी यह बंदिश

हो सकता है- लोग सही हों

और कल फिर फैल जाये वही तपिश

लेकिन क्या तब

और अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो जायेगा

एक व्यक्ति का होना?

जो सत्ता का चरित्र नहीं बनता

सत्ता का विरोध भी नहीं करता

सिर्फ सत्ता का उपयोग करता है

और बिना जताये/पूरी सहजता के साथ

‘सत्ता के विरोध’ के उद्देश्य तक पहुँचता है


अन्यथा जो ‘उद्देश्य’

नहीं हो पाता है हासिल

व्यक्तियों के होने से

क्यों हासिल हो जाता है

एक व्यक्ति के होने से!


और हाँ,

यदि हासिल हो सकता है

कोई एक उद्देश्य

तो ‘और’ भी हो सकते हैं

बात-

सिर्फ सत्ता के साये से निकलने की है

‘एक व्यक्ति होने’ की है! 


कितनी उर्वरा होती है वह ज़मीन -
My Photoजहाँ बोते हैं हम बीज
चिंताओंके ---
बेटे की बेरोज़गारी -
घर की दाल रोटी-
बेटी की शादी -
रिश्तों में अविश्वास-
किस्म किस्म के बीज.....
देखते ही देखते
एक जंगल खड़ा हो जाता है -
एक घना जंगल-
चिंताओंका -
एक चलता फिरता जंगल-....

हम सब उस बोझ को ढोकर-
घूमते रहते हैं -
दिनों ..महीनों..सालों ...
जंगल गहराता जाता है -
बोझ बढ़ता जाता है
और कंधे झुकते जाते हैं...

क्यों न हम काट छांटकर
तराश दें उसे
और जंगली बेतरतीब बोझ को
उतार फेंके -
हाँ -
चिंताएँ फिर उग आएँगी
उस उर्वरा ज़मीन पर !
लेकिन हर चिंता का समाधान है -
उसे सिर्फ खोजना है ...तराशना  है....
और अपने बोझ को हल्का करते जाना है .... 


ज़रूरतअनगढ़(रमाकांत सिंह)

My Photo
कुम्हार गीली मिट्टी से
अनगढ़ गढ़ गया
वेदों की बातें
लकड़हारा कह गया

बच्चा के संगत में संत
निपट मूरख रह गया
सत्य खोजने में कब?
बुद्ध खो गया. 

कंठ मुक्त होता है
जब प्रश्न अनुत्तरित
तब दिशा भ्रम में 
क्रोध उपजता है
धारणाएं छिन्न-भिन्न होती हैं
सुसुप्त जागृत होती है
झरने फूटते नहीं
लावा बह निकलता है.

शिशुपाल और बर्बरीक ही
क्यों कटते हैं सुदर्शन से
धर्म और अधर्म की
क्यों परिभाषाएं बदलती हैं.

परिकल्पना उत्सव विशेष में आज हिन्दी के महान अभिनेता दिलीप कुमार से दयानंद पाण्डेय की बातचीत 

हो रही है .....आप इस बातचीत का आनंद लें ......मैं मिलती हूँ एक मध्यांतर के बाद ।

7 comments:

  1. बहुत अच्छी रचनाएं , उमेश जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ , नाव के डूबने पर कवितायेँ लिखना बुद्धिमानी नहीं है -
    वो गली के मोड़ पर , चीखता ही रह गया ,
    उसकी चीखों से मेरी , डायरी भरती रही |

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक ... सभी रचनाकारों को बधाई
    आपका आभार इस प्रस्‍तुति के लिये

    जवाब देंहटाएं
  3. पठनीय रचनाएं..इस प्रस्‍तुति के लिये बधाई .

    जवाब देंहटाएं

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