जन्म क्या है - एक मोह ! अब इसे रिश्तों के मजबूत धागे कहो या बंधन .... उड़ान,पड़ाव,बंजारों सी मनःस्थिति - सब स्वनिर्मित होते हैं ! घुटन में भी आयाम है गर चाह लो तो, खुले रास्तों में भी भूलभुलैया - यदि सोच लो तो ! धागों को सुलझाना,उलझाना,बीच में ही तोड़ देना - सब सामने से उत्पन्न अपनी चाह है और यदि बिलकुल अपनी चाह नहीं तो ईश्वर के संकेत हैं - जोड़ो,तोड़ो ..... दोनों के आगे धरती आकाश है - अन्न उपजाव या घर बनाओ या गुलमर्ग ..... या फिर दोनों के विस्तृत पन्ने पर लिखते जाओ ........... यूँ ,
Sudhinama: ये रिश्ते(साधना वैद)
दूर क्षितिज तक
रेलगाड़ी की
समानांतर पटरियों जैसे
मैंने भी खूब निभाये हैं,
जिन पर सवार होकर
जाने कितने मुसाफिर
अपने गंतव्य तक
पहुँच गये लेकिन
पटरियाँ ताउम्र उसी तरह
एक दूसरे को
छुए बिना लोगों को
मंजिल तक
पहुँचाने का ज़रिया
बनी रहीं !
रंग बिरंगे उलझे धागों
में से सिरे ढूँढने की
कोशिश की तरह
मैंने तमाम उलझे
रिश्तों को भी
पूरे मनोयोग से
सुलझाने की
कोशिश में
अपना सारा जीवन
लगा दिया
वांछित फल
कभी मिला तो
कभी नहीं मिला
लेकिन ज़िंदगी ज़रूर
एक अनवरत कोशिश
बन कर रह गयी !
वर्षों से
वक्त की गर्द से
धुँधलाये, सँवलाये,
बदरंग रिश्तों को
लगन और मेहनत
सद्भावना और प्यार
के लेप से
घिस माँज कर
मैंने चमकाने की
चेष्टा की है !
रिश्ते तो शायद ज़रूर
कुछ चमक गये हों
लेकिन इस कोशिश में
मेरा चेहरा कुम्हला कर
कब बेरंग हो गया
इसका तो कभी
होश ही नहीं रहा !
बस अब यही कामना है
थकी हुई नज़र,
टूटा हौसला
और थमती साँसें
मन की झुर्रियों को
इतना न बढ़ा दें
कि उस पर
किसी रिश्ते का नाम
चिपकने से ही
इनकार कर दे
और रिश्ते सँवारने का
मेरा हर प्रयास
विफल हो जाये !
आत्महत्याओं का दौर - बस्तर की अभिव्यक्ति(डॉ कौशलेन्द्र)
दुःखी होकर
पुजारी के मुखौटों से
आत्महत्या कर ली है
ठीक उसी तरह
जैसे
राष्ट्रवाद,
शुचिता,
सदाचरण,
निष्ठा,
सद्भावना .......
और चरित्र जैसे शब्दों नें
आत्महत्या कर ली है।
अब
कोई अशोक नहीं निकलता
भीड़ से,
न जन्म लेता है
कोई कृष्ण
किसी बन्दीगृह से।
किसी भिखारी की भूख की पीड़ा का
क्या अनुमान लगा पायेगा
कोई मोटा।
किसी लक्ष्मीपुत्र से
क्या आशा की जाय
राष्ट्रवाद, शुचिता, सदाचरण, निष्ठा,
सद्भावना और चरित्र की।
इन लुभावने शब्दों को तो
दफ़न कर दिया है
तथाकथित राष्ट्रभक्तों ने।
आप
मुझे राष्ट्रद्रोही कह सकते हैं
पर यह सच है
कि मुझे
अगले चुनाव के लिये
नहीं दिखता कोई ऐसा चेहरा
जिसे दे सकूँ
अपना बहुमूल्य मत।
मेरी चिंता पर
एक अज़ब सी ख़ामोशी है,
पूरे परिदृष्य में
बेशर्मी का आलम है
और राष्ट्रवाद
लाल हो गया है
पता नहीं
गुस्से से
या शर्म से
या
अपनी पीठ और पेट में भोंके गये
नेज़ों से बहते ख़ून से।
काथम: एक टुकडा सपना(प्रेम गुप्ता `मानी')
पत्थरों के इस शहर में
मांगा था आदमी ने
ज़िन्दगी से
रुपहले सपनों का एक टुकड़ा
पर,
ज़िन्दगी अपने ही शहर में
खुद एक सपना थी
जहाँ नींद में डूबे आदमी को
खुद अपनी ख़बर नहीं थी
और वह
अनजाने ही
अख़बार के काले अक्षरों में सिमटा
एक सुर्ख ख़बर था
इन ख़बरों ने
उसकी ज़िन्दगी को निगल लिया था
अपने अजगरी जबड़े से
सपनों के इस शहर में
अब दफ़न हैं- सपने
पर आदमी
नींद में अब भी ढूंढ रहा है
उन सपनों को
जो खुशियों के गीत गुनगुनाते वक़्त
स्पर्शित कर गए थे मन
आदमी,
उन स्पर्शों की महक को
अब भी महसूसता है
इसीलिए-
ज़िन्दगी से सपनों की बात करता है
पर,
वह नहीं जानता
कि अब
ज़िन्दगी सपने नहीं बाँटती
वह तो अपने व्यापार में
घाटा खाकर
खुद उधार माँग रही है
रुपहले सपनों का एक टुकड़ा
सपने-
इस शहर में ढेरों हैं
पर,
उससे ज़्यादा हैं वे पत्थर
जो अपने सपनों को पोषित करने के लिए
तोड़ते हैं
दूसरों के सपने
तो दोस्तों,
भूल जाओ सपनों की बात
क्योंकि,
अब नींद पर
ज़िन्दगी नहीं
मौत भारी है.....।
जिंदगी की राहें: मैया(मुकेश कुमार सिन्हा)
मैया !! मैं बड़ा हो गया हूँ.
इसलिए बता रहा हूँ
क्यूंकि तू तो बस
हर समय फिक्रमंद ही रहेगी....
.
याद है तुझे
मैं देगची में
तीन पाव दूध लेकर आया था
चमरू यादव के घर से
..... पर मैंने बताया नहीं था
कितना छलका था
लेकिन तेरी आँखे छलक गयी थी
तुमने बलिहारी ली थी
मेरे बड़े होने का...
.
एक और बात बताऊँ
जब तुमने कहा था
सत्यनारायण कथा है
..राजो महतो के दुकान से
गुड लाना आधा सेर...
लाने पर तुमने बलाएँ ली थी
बताया था पत्थर के भगवान को भी
गुड "मुक्कू" लाया है !!
पर तुम्हें कहाँ पता
मैं बहुत सारा गुड
खा चूका था रस्ते में
पर बड़ा तो हो गया हूँ न....!
मैया याद है ...
मेरी पहली सफारी सूट
बनाने के लिए तुमने
किया था झगडा, बाबा से
पुरे घर में सिर्फ
मैंने पहना था नया कपडा
उस शादी में...
पर मुझे तो तब भी बाबा ही बुरे लगे थे
उस दिन भी
आखिर बड़े होने पर फुल पेंट जरुरी है न...
.
मैया मैं जब भी
रोता, हँसता, जागता, उठता
खेलता पढता
तेरे गोद में सर रख देता
और तू गुस्से से कहती
कब बड़ा होगा रे.....
अब तू नहीं है !!!
पर मैं सच्ची में बड़ा हो गया...
मेरा मन कहता है
एक बार तू मेरे
गोद में सर रख के देख
एक बार मेरी बच्ची बन कर देख
मेरी बलिहारी वाली आँखों में झांक
कर तो देख..
देखेगी.............??????
(मैया बाबा... मेरे माँ-पापा नहीं मेरे दादा-दादी थे, और मुक्कू ..मैं !!!)
उठो,मंजिल तुम्हारी है ...यहाँ किलिक करें
सभी रचनाएं एवं प्रस्तुति अनुपम ...
जवाब देंहटाएंआभार इस प्रस्तुति के लिये
सादर
abhaaar meri rachnao ko jagah dene ke liye...:)
जवाब देंहटाएंसभी पोस्ट हमेशा की तरह चुनिन्दा ......जैसे सागर से मोती .....:)
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक !
जवाब देंहटाएंमेरी रचना के चयन के लिए आभार रश्मिप्रभा जी ! सभी रचनाएं बहुत ही सुन्दर हैं ! मुझे भी यहाँ स्थान देने के लिए धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंरश्मिजी बहुतउम्दा रचनाएँ चुनी हैं आपने सभी बहुत भावपूर्ण हैं |
जवाब देंहटाएंआशा
इन सुन्दर रचनाओं के लिए आभार |
जवाब देंहटाएंसादर