बचपन कौन भूलता है भला .... धूल सने हाथ पांव,खिलखिलाती हंसी - माँ की गोद में बेपरवाह छुप जाती है . माँ का आँचल साफ़ होने के लिए सबसे ख़ास अनमोल होता है और माँ के आँचल में बच्चे के आंसू हीरे जवाहरात बन जाते हैं . लड़ना-झगड़ना,चौकलेट चुराना, इधर-उधर से सीखी गलियाँ धड़ल्ले से बोलना .... कान उमेठे जाने पर भी दांत पिसना ..... बचपन की पोटली की अमीरी सबसे जुदा होती है .
चलिए कागज़ की नाव बनायें , दादी-नानी की कहानियों को याद करें -
बचपन | दिल की बातें (बोधमिता)
कोई आ रहा है मेरे
बचपन के गाँव से
धूल मिट्टी से सने हुए
हाथ - पैर
साथ साथ सायकल से गिरकर
आये जो चोट के निशान
खेल खेल में होने वाली
तू-तू मैं-मैं से उपजी
खिसियाहट
एक दूसरे को मारने छेड़ने की
हरदम तिलमिलाहट
गिल्ली अपनी चतुराई से
आगे ले जाने की
कसमसाहट
खुद को हरदम जीतता हुआ
देखने का घमण्ड
रेत पर घरोंदे बनाने और
तोड़ने का सुकून
जिम्मेदारियों का आभाव
चेहरे पर हरदम
ताजे फूल सी मुस्कान
भले ही कुछ देर के लिए
वो ला रहा है
मेरे बचपन के गाँव से
कोई आ रहा है
मेरे बचपन के गाँव से ।।
रजनीश का ब्लॉग: बचपन की बात (रजनीश तिवारी)
बचपन के दिन थे
ऊपर खुला आसमां था
पूरा शहर अपना मकां था
हर बगिया के बेर
होते अपने थे
खेलते कंचे और
बुनते सपने थे
ना दुनियादारी की झंझट
ना कोई नौकरी का रोना
बस काम था पढ़ना
खेलना-कूदना और सोना
पर तब क्या सब मिल जाता था
क्या जैसा चाहा हो जाता था
क्या दिल तब नहीं दुखता था
क्या कांटा तब कोई नहीं चुभता था
दिल चाहता था उड़ना बाज की तरह
खो जाना वादियों में गूँजती आवाज़ की तरह
हर खिलौना मेरी झोली में नहीं था
मेरा बिछौना भी मखमली नहीं था
बचपन में ही जाना पराया और अपना
कि सच नहीं होता है हर एक सपना
सीखी बचपन में ही चतुराई और लड़ाई
अच्छे और बुरे की समझ भी बचपन में आई
अफसोस तब भी
दर्द तब भी होता था
कुंठा तब भी
प्यार तब भी होता था
कुछ बातें ऐसी थी
लगता बचपन कब बीतेगा
जैसे नियंत्रण में रहना
और पढ़ना कब छूटेगा
बस उम्र ही कम थी
और सब कुछ वही था
थोड़ी सोच कम थी
इसलिए सब लगता सही था
उत्सुकता ज्यादा
और शंका कम थी
सौहार्द्र ज्यादा और
वैमनस्यता कम थी
पर थे सब एहसास
हर भावना मौजूद थी
लगते थे संतोषी
पर हर कामना मौजूद थी
बचपन है आखिर जीवन का हिस्सा
दिन वही और रात वही है
बस कुछ रंग हैं अलग
तस्वीर वही और बात वही है
कोई बचपन महलों में रहता
कोई फुटपाथ पे सो जाता है
किसी को सब मिल जाता है
कोई बचपन खो जाता है
हर बचपन एक जैसा नहीं होता
जैसे नहीं हर एक जवानी
अलग अलग चेहरे हैं सबके
सबकी अलग कहानी
दिल की बात: अमित की कविता --मेरा बचपन कहा गया ?(डॉ अमित जैन)
वो भी क्या दिन थे जब बस खिलोने टुटा करते थे ,
खिलखिला कर हंसती थी खुशियाँ ,
अलविदा कह कर भी कहाँ छूटा करते थे …
बरस के सावन हमे हंसाया करता था ,
प्यारा सा बचपन हरदम खुशिया लुटाया करता था …
पापा के कंधो पर बैठ देखते थे दुनिया ,
सारा जमाना हम पर सर झुकाया करता था ….
वोह दिन वो बचपन बहुत याद आता है ,
वोह जिंदगी फ़िर जीने को दिल ललचाता है …
सवाल तुझसे ए खुदा ! और नियति से भी ,
क्यो इतनी जल्दी एक बच्चा बड़ा हो जाता है …
बहुत साल पहले, बचपन में
तुमने एक टहनी दी थी मुझे
ले जाना, लगा देना इसे गीली मिट्टी में
और भिगोते रहना तब तक
जब तक दो-चार पत्ते ना निकल आएं
मैं वो टहनी लाया, गीली मिट्टी में उसे लगाया
खूब भिगोता रहा
सुबह उठते ही, शाम को स्कूल से वापस आते ही
मगर उस टहनी से पत्ते नहीं फूटे
मुझे यकीन नहीं हुआ, तुम झूठ थोड़े कहोगी
मैंने ही गलती की होगी
पानी डालने में या निगरानी करने में
आखिर वो टहनी सूख गई
मुझे लगा जैसे तुम मुझसे रूठ गई
सोचा था अगले साल जब फिर आऊंगा
एक नई टहनी तुमसे मांगकर लाऊंगा
पूरे जतन से उसमें पत्ते उगाऊंगा
आखिर तुम्हें यूं रूठा हुआ कैसे छोड़ पाऊंगा
उस अगले साल का अब तक इंतजार है
तुम्हें मनाने को दिल अब भी बेकरार है
निराला-बचपन(पूनम श्रीवास्तव)
बचपन तो होता है निराला
निश्छल, निर्मल,मस्ती वाला
वो तो खुद ही भोला- भाला ।
मां की गोदी में लोरी
सुन कर वह तो सो जाता
बातें करता परियों के संग
सपनों में वो मतवाला ।
ना कोई चिंता,ना ही फ़िकर
मस्ती में बीते हर पल
चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान
देख के हंस दे रोने वाला।
बचपन सबके संग में खेले
ऊँच नीच की बात न मन में
सबके दिल को प्यार से जीते
वो तो है मन मोहने वाला।
वो धमा चौकड़ी,वो लड़ी पतंग
वो ब्याह रचाना गुड़िया का गुड्डे के संग
वो पूड़ी हलवा मेवे वाला
सच में वो बचपन अलबेला।
कुछ खट्टा कुछ मीठा बचपन
होता कुछ कुछ तीखा भी बचपन
भूले से भी ना भूलने वाला
यादों में हरदम बसने वाला।
काश ये बचपन हरदम रहता
दुनिया का उसपर रंग ना चढता
कोई अगर मुझसे पूछे तो
माँग लूँ दिन फ़िर बचपन वाला।
दिल मिले दिल से फ़क़त इतना ज़ुरूरी है मियां
बारिशों का है तक़ाज़ा, सब तकल्लुफ़ छोड़कर
दें सदा बचपन को हम, फिर से करें अठखेलियाँ
घर तुम्हारा भी उड़ा कर साथ में ले जाएंगीं
मत अदावत की चलाओ, मुल्क में तुम आंधियाँ
किसलिए मगरूर इतने आप हैं, मत भूलिए
ख़ाक में इक दिन मिलेंगी आप जैसी हस्तियाँ
आ गए वो सैर को, गुलशन में नंगे पाँव जब
झुक गयीं लेने को बोसा, मोगरे की डालियाँ
खुशबुएँ लेकर हवाएं खुद ब् खुद आ जाएँगी
खोल कर देखो तो घर की बंद सारी खिड़कियाँ
झाँक लें इक बार पहले अपने अंदर भी अगर
फिर नहीं आयें नज़र शायद किसी में खामियां
चाहते हैं सब, मिले फ़ौरन सिला 'नीरज' यहाँ
डालता है कौन अब, दरिया में करके नेकियाँ
हाय क्या दिन थे वो भी क्या दिन थे ...... अब तो मैं अपने बच्चों की आँखों में उनका बचपन देखती हूँ और अनगिनत भावनाएं !!!
आज के कार्यक्रम को संपन्न करूँ उससे पहले आइये चलते हैं वटवृक्ष पर जहां डॉ प्रीत अरोड़ा लेकर उपस्थित हैं ...उफ ये अकेलापन
कल क्रिसमस के कारण अवकाश है, इसलिए उपस्थित होती हूँ 26 दिसंबर को सुबह 10 बजे परिकल्पना पर .......आप सभी परिकल्पना परिवार की ओर से हैप्पी क्रिसमस !
पढ़ते-पढ़ते बचपन में खो गए है.. अब तो यही मन में आता है की काश एक बार फिर वह बचपन लौट आता!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति के लिए आभार!
काश बचपन लौट पाता|
जवाब देंहटाएंअच्छा संकलन है लिंक्स का |
बहुत सुंदर संकलन । मेरी रचना को भी स्थान देने के लिए धन्यवाद । ख़ुशबुएँ लेकर हवाएँ खुद-ब-खुद आ जाएंगी ...खोल कर देखो तो घर की बंद सारी खिड़कियाँ ...वाह ।
जवाब देंहटाएंपरिकल्पना ब्लोगोत्सव पर शायद अभी तक तीन बार बचपन के विषय पर रचनाएँ पढ़ने को मिलीं हैं , और हर बार की तरह इस बार भी मैं ये बात जरूर कहना चाहूँगा कि ये शायद मेरा ही नहीं सभी का पसंदीदा विषय होगा |
जवाब देंहटाएंपुनः बहुत अच्छा संग्रह पढ़ने को मिला , नीरज जी की रचना बहुत ही प्रभावशाली है |
सादर
parikalpna me meri rachna dene ke liye dhanyavad.... yahan bachpan ki yaden taro-taja ho rahi hain....sabhi ki rachnayen bahut sundar hain.
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