समीक्षा - यानि समभाव पर आकर कुछ कहना .... तराजू के दोनों पलड़ों पर ध्यान रखते हुए अपने विचारों को पुस्तक के सन्दर्भ में मूर्त रूप देना .... इस परिप्रेक्ष्य में सीमा सिंघल'सदा' की समीक्षात्मक दृष्टि पर नज़र डालते हैं -

SADAपरिक्रमा ....(सीमा सिंघल)


कविता संग्रह परिक्रमा जिसके रचनाकार हैं बेहद सहज एवं सरल व्‍यक्तित्‍व के धनी आदरणीय सुमन सिन्‍हा जी ब्‍लॉग जगत में भी इनकी रचनाओं को काफी सराहा गया है इनका यह पहला काव्‍य संग्रह है जिसका विमोचन हाल ही में हिन्‍द युग्‍म के सौजन्‍य से सम्‍पन्‍न हुआ।

परिक्रमा पढ़ते हुए यदि कभी आपको यह लगे कि आप गीता का पाठ कर रहे हैं या महाभारत का अध्‍ययन तो यह रचनाकार की कलम का ओज है जो मुखर हो कभी राधा का सम्‍मान करेगा या कृष्‍ण की बांसुरी की तरह प्रत्‍येक शब्‍द पर माधुर्य बरसाएगा अपने पराये के भावों से मुक्‍त आत्‍ममंथन करते हुए....कृष्‍ण को बखूबी गुना है उन्‍होंने अपनी रचनाओं में,

इस पुस्‍तक का संपादन किया साहित्‍य एवं ब्‍लॉग जगत की चिर-परिचित लेखिका आदरणीय रश्मि प्रभा जी ने जिनके संयोजन का जादू आप परिक्रमा को पढ़ने के बाद ही जान पाएंगे ....

परिक्रमा की शुरूआत होती है ‘लक्ष्‍य साधना’ से कितनी अद्भुत सोच है रचनाकार की हर रचना इनके शब्‍द पा जीवंत हो उठी है . मन के तार तार झंकृत हो उठते हैं जहां पर इन्होंने कहा है ...

‘न्‍याय के लिए मैं सारथी हो सकता हूं,
तो अर्जुन
तुम्‍हें बस यह गांडीव उठाना है
और लक्ष्‍य साधना है’’

और फिर आगे बढ़कर आपने गुलमर्ग बनाने के लिये परिवर्तन की बात कही है ....

पानी खाद के लिए
तो सहज हो गया है कैक्‍टस
या फिर नकली फूल
फिर भी मैं हर सुबह
एक बीज परिवर्तन के बोता हूं

क्रमश: आगे बढ़ते हुए कभी राजा और रंक हो जाना तो आत्‍मा-परमात्‍मा वार्तालाप के साथ ही पृष्‍ठ दर पृष्‍ठ अपनी उत्‍सुकता कायम रखने में सफल हुए हैं ...पानी का कैनवस हो या रहस्‍योद्धाटन करते हुए कहते हैं जब कृष्‍ण ने खुद से पहले राधा का नाम लिया हो .और व्याख्‍या कालजयी ग्रंथ की इस तरह से ...

मैने बंद दरवाजे खोल दिए हैं,
अब मैं एक सूक्ष्‍म विचार हूं
वह कलम
और लिखा जा रहा है एक कालजयी ग्रंथ

परिक्रमा में रचनाकार ने कई जगह प्रेरक संदेश भी दिये हैं कुछ इस तरह से जो उनकी रचनाओं को ऊंचाई के शिखर पर विराजित करती हैं ...
पाने से पहले देना सीखो,
किसी एक चेहरे की
मुस्‍कान बनकर देखो
तुम अपने आप में पूर्ण हो जाओगे ।

इस संदेश के बाद हम अनेक भावों को समेटे सशक्‍त रचनाओं से परिचित होते हैं तब परिक्रमा के पूरे होने की बात करते हुए रचनाकार कह उठता है जब जिन्‍दगी रूपी धुंए के रहस्‍य से पर्दा उठाता है और उससे मित्रता कर बैठता है तो वह अगर का धुंआ हो जाता है और वह उससे अलग नहीं होना चाहता बल्कि उस धुंए में समाहित हो विलीन हो जाना चाहता है हमेशा के लिए एक साधक की तरह ....

परिक्रमा की समीक्षा करना मेरे लिये इतना आसान तो नहीं है परन्‍तु इनके भावों ने और प्रस्‍तुतिकरण ने मुझे आपके सामने लाने के लिये प्रेरित किया ...परिक्रमा खुद में एक कालजयी ग्रन्थ है , जिसे पढ़ने के बाद आत्मा परमात्मा में एकाकार हो जाती है ।

आपका ब्‍लॉग ....Main hoo ....

बोधि प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित कृति "स्त्री होकर सवाल करती है " स्त्री विषयक काव्य संग्रह एक उपलब्धि से कम नहीं ...........माया मृग जी और डॉक्टर लक्ष्मी शर्मा जी के अथक प्रयासों का जीवंत रूप है ये काव्य संग्रह जिसे उन्होंने आभासी दुनिया को संगठित करके संगृहीत किया है जो अपने आप में एक अनोखा प्रयोग है . फेसबुक पर लिखने वालों को एकत्रित करना और फिर उनकी रचनाओं को संकलित करना बेशक एक प्रयोगधर्मिता है जिसे कोई भी प्रकाशन इस तरह प्रकाशित करने की  हिम्मत नहीं कर पायेगा जिसमे कोई खास चर्चित नाम ना हो सब आम लेखक ही वहाँ जुड़े हों जो अभी अपनी पहचान बनाने में संलग्न हों..........इतना बड़ा जोखिम उठाकर बोधि प्रकाशन ने सिद्ध कर दिया कि वहाँ सिर्फ रचनाओं को सम्मान दिया जाता है ना कि किसी व्यक्तिगत नाम को या प्रतिष्ठित नाम को .............इसके लिए पूरी प्रकाशन टीम  बधाई की पात्र है  .
इसी श्रृंखला में मेरी ३ कविताओं को भी सम्मिलित करके सम्मानित किया है जिसके लिए मैं बोधी प्रकाशन की दिल से आभारी हूँ :
१) झीलें  कब बोली हैं २) वर्जित फल ३) कोपभाजन से कोखभाजन तक  
अब बात करते हैं इस कृति से जुड़े कवियों और कवयित्रियों की ..........चाहे पुरुष हो या स्त्री सबने अपने भावों में स्त्री के हर पहलू को छुआ है चाहे आदिम हो या आधुनिक स्त्री की स्थिति , सोच और व्यवहार सबका अवलोकन सूक्ष्मता से किया गया है . 
मैं कोई समीक्षक तो हूँ नहीं एक पाठक की दृष्टि से जो मैंने महसूस किया वो लिख रही हूँ . सबके बारे में लिखना तो मेरे लिए संभव नहीं मगर इनमे से कुछ कविताओं ने सोचने को तो मजबूर किया ही और साथ में नयी सोच भी परिलक्षित की ..........उन्ही में से कुछ कविताओं का जिक्र कर रही हूँ ........ 
इस सन्दर्भ में सबसे पहले बात करते हैं अर्पण कुमार जी की कविता "नदी" की जिसे उन्होंने स्त्री को नदी के बिम्ब से शोभित करते हुए स्त्री मन के भावों को पकड़ा है, क्या है स्त्री.... ये बताया है जो इन पंक्तियों में चरितार्थ होता है  
दुष्कर नहीं है  नदी को समझना दुष्कर है उसे विश्वास में लेना ये है स्त्री और उसका स्वरुप ............जिसे अर्पण कुमार जी ने चंद लफ़्ज़ों में समेट दिया है . 
अरुण कनक की  कविता " प्रेम करने वाली औरतें " बताती है कि कैसे एक औरत जो प्रेम करती है तो उस प्रेम के दर्प से उसका ओजपूर्ण व्यक्तित्व खिल उठाता है . अपनी आकांक्षाओं के साथ ऊँचे उड़ते जाना और फिर प्रताड़ित  होने पर भी प्रेम से लबरेज़ रहना ही शायद उनके प्रेम को उच्चता प्रदान करता है और मुख प्रेम मे ओज से दर्पित .......ऐसी औरतें जो प्रेम के विभाजन नहीं चाहतीं प्रेम के हर अणु में जैसे उनका अस्तित्व बंधा  होता है , प्रेम का विखंडित  होना उनके लिए किसी परमाणु विस्फोट से कम नहीं फिर भी कवि का प्रश्न खड़ा हो ही जाता है .........आखिर क्या चाहती हैं प्रेम करने वाली औरतें ? प्रेम के बदले प्रेम या वो सब जो एक अस्तित्व की तलाश होती है .........ये प्रश्न  करता कवि इस सवाल का जवाब ढूँढने में अनुत्तरित रहता है और इसे भी औरतों पर छोड़ अपने कर्त्तव्य की  इतिश्री कर लेता है .
अरुणा मिश्र की कविता " कविता " स्त्री के प्रति पुरुष की सोच को दर्शाती एक उत्कृष्ट रचना है . चंद  शब्दों में उन्होंने बता दिया कि कैसे कैसे पुरुष ने स्त्री अंगों का इस्तेमाल किया सिर्फ अपने फायदे के लिए कैसे उसका दोहन किया मगर फिर भी स्त्री से कहीं ना कहीं हारता ही है एक सोच में डूब जाता है सब कुछ अपनाने के बाद भी एक प्रश्न उसे कचोटता है ......कि अब आगे और क्या ? सुख कहाँ है ? स्त्री देह में या स्त्री अस्तित्व में या मानस के अन्तस्थ में .
देवयानी भरद्वाज की "स्त्री, एक पुरुष की कामना में " एक ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति है जिसे एक स्त्री ही समझ सकती है कैसे पुरुष के लिए स्त्री सिर्फ एक स्त्री ही होती है उसका कोई रूप नहीं होता और ना ही वो जानता  जब स्त्री सामने हो तो उसमे सिर्फ देह ही दिखती है और देह में भी वो अंग जिनका उपयोग करके वो अपने पौरुष को तो संतुष्ट करे ही मगर स्वयं को बिना किसी अग्निपरीक्षा से  गुजारे  , अपने दामन पर पान की पीक  एक छींटा भी किसी को नज़र ना आये इस तरह इस्तेमान करना चाहता है और स्त्री, यदि स्वेच्छा से समर्पण करे तो उसकी नज़रों में गिर जाती है फिर चाहे खुद ने गिरावट की हर हद को पार ही क्यों ना किया हो . पुरुष की कामना में स्त्री कभी देह से इतर होती ही नहीं यही कहना चाहा है देवयानी जी ने .
गोपीनाथजी की "कमरा, बच्ची और तितलियाँ " कविता के माध्यम से गोपीनाथ जी ने भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध को उजागर किया है . उस अजन्मे भ्रूण की मनःस्थिति को इतनी मार्मिकता से पेश किया है कि आँख नम हो जायें और भ्रूण हत्या करने वाले भी सोचने को विवश .
"उस लड़की की हँसी " कविता में गोविन्द माथुर जी ने बेहद संजीदगी से एक अल्हड, किशोरवय: लड़की की उन्मुक्त हँसी का जिक्र किया है जो दुनियादारी की पाठशाला से अनभिज्ञ  है . कितनी निश्छल हँसी होती है ना किसी भी किशोरी की  आने वाले कल से अनजान मगर वो ही हँसी आप उम्र भर फिर चाहे कितना ही ढूंढते फिरो वो मासूमियत फिर नहीं मिलती इसलिए सहेज लो उन पलों को जिसमे ज़िन्दगी ज़िन्दगी से मिल रही हो अपनी संपूर्ण उन्मुक्तता के साथ .
"यही है प्रारंभ" कविता में हेमा दीक्षित जी ने नारी के उस स्वरुप का वर्णन किया है जो स्वप्न में भी नहीं चाहती कि कोई उसे सिर्फ देह ही समझे और स्वप्न  में ही एक टकराव बिंदु का आरम्भ  करती हैं  जो पुरुष के अहम् से जुदा है यानि एक ऐसी नारी जो स्वप्न में भी अपना सिर्फ देह होना नहीं स्वीकारती और पुरुष को ललकारती है और करती है एक नयी शुरुआत ......
हरकीरत हीर जी यूँ तो अपनी पहचान आप हैं फिर भी उनकी कविता "तवायफ की एक रात " के माध्यम से पुरुष के दोगले चरित्र को छान रही हैं कैसे पुरुष धार्मिकता , सज्जनता और साफ़ चरित्र का लबादा ओढ़े अपने पौरुष को ढकता है मगर उससे तो वो तवायफ अच्छी जो खुले आम स्वीकारती तो है सच्चाई की परतों को ............
हरी शर्मा जी की "औरत क्या है " कविता औरत की शक्ति का दर्पण है . औरत के बिना इंसान का कोई अस्तित्व नहीं दर्शाती कविता  औरत को सिर्फ जिस्म मानने से इंकार करती है साथ ही बताती है हर इन्सान के अन्दर एक औरत का वजूद जीवित रहता है बशर्ते वो उसे पहचाने तो सही .... 
जीतेन्द्र कुमार सोनी "प्रयास" की कविता "नाथी -सरिता" औरत की उस स्थितिको इंगित करती है जब वो लड़के को जन्म नहीं दे पाती और उस स्थिति में चाहे वो शहर की हो या गाँव की औरत दोनों में से किसी की भी स्थिति में कोई फर्क नहीं होता . गाँव की औरत तब तक बच्चा जनती है जब तक लड़का ना हो जाये और शहर की गर्भपात  का दंश झेलती है मगर पढाई लिखाई या जगह बदलने  से मानसिकता में बद्लाव नहीं  दिखता ..........
दूसरी तरफ "दोष "कविता में जीतेन्द्र जी ने उन पौराणिक नारियों को दोष दिया है  जिन्होंने चुपचाप अत्याचार सहे जिसका दंश आज की नारी के भाग्य की लकीर बन गया है क्योंकि पौराणिक नारियां ही तो नारी सतीत्व का प्रतीक रही हैं तो उनके आचरण पर चलना उनकी नियति बन गयी हैऔर यही उनका दोष आज की नारी  के भाग्य का सबसे बड़ा दोष . 
कुमार अजय की कविता "सोचना तो होगा ....." एक व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण को उजागर करती है और पुरुष पर आक्षेप लगाती  है साथ ही रस्मो रिवाजों और सुहाग प्रतीकों में बंधी नारी के जीवन की विवशता को दर्शाती  है . पुरुष हर बार अपना वर्चस्व  कायम रखने के लिए कोई  ना कोई रास्ता निकाल ही लेता है   तो दूसरी तरह "कोई स्त्री ही होगी वह ..." कविता में पुरुष को बताते हैं जीवन के हर मोड़  पर चाहे घर हो स्कूल हो या ज़िन्दगी का सफ़र सब जगह तुम्हें प्यार करती और तुम्हें ज़िन्दगी की खुशियों से सराबोर करने में एक स्त्री का ही हाथ होगा और वो भी यकीन के साथ ....... 
लीना मल्होत्रा की "आफ्राm तुम्हें शर्म नहीं आती तुम अकेली रहती हो " अकेले रहने वाली स्त्रियों के साहस को सलाम करती है . जी सकती है अकेले वो एक अपनी दुनिया में जहाँ हर प्रश्न दुम दबाकर भागता नज़र आता है . 
मनोज    कुमार झा "विज्ञापन-सुंदरियों से " कविता में एक प्रश्न खड़ा कर रहे हैं उन स्त्रियों से जिन्होंने नारी मुक्ति को सिर्फ अंग प्रदर्शन या आगे  बढ़ने की होड़ में स्त्री देह को उत्पाद की तरह प्रयोग करना शुरू कर दिया बिना जाने कि आज भी उनका प्रयोग ही किया जा रहा है ......इस प्रयोगात्मक दृष्टिकोण से  बचने और एक आदर्श स्थापित  करने को प्रेरित करती कविता वास्तव में सार्थक है ...... 

माया मृग जी ने "खुश रहो स्त्री " कविता में एक व्यंग्यात्मक शैली में चंद लफ़्ज़ों में स्त्री को स्थापित कर दिया.... बता दिया समाज या पुरुष समाज उससे क्या चाहता है और उसी को कैसे पूजित किया जाता है देवी बताकर ........यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ....... 
मुकुल सरल की कविता "एक बुरी औरत की कहानी " यथार्थपरक कविता है. आजकी उस आधुनिक कही जाने वाली नारी का चित्रण है जो हर सच के लिए ज़माने से लड़ जाती है, अपने अधिकारों का हनन नहीं होने देती, बड़ी बेबाकी से सच को कहने की हिम्मत रखती है और पुरुषात्मक समाज की छाती पर पांव रखकर आगे बढ़ने की हिम्मत रखती है . शायद इसीलिए वो एक बुरी औरत है जिससे हर मर्द अपने घर परिवार को बचाना चाहता है कहीं ये चिंगारी उनके घर के शोलों को भी ना भड़का दे . 
निधि टंडन की "नारी की स्वतंत्रता" कविता के दोहरे रूप को दर्शाती एक सशक्त अभिव्यक्ति है. एक ऐसी नारी जो बाहर जाकर नारी स्वतंत्रता का ढोल पीटती है इस उम्मीद से कि एक दिन सब कुछ बदल जाएगा  मगर घर में वो ही तिरस्कृत , उपेक्षित जीवन जीती है . सिर्फ एक आस में शायद उसके द्वारा उठाये क़दमों से किसी के जीवनका तो सच बदले , कोई तो पूर्ण स्वतंत्र हो. वैचारिक स्वत्नत्रता ही नहीं संपूर्ण स्वतंत्रता भी मायने रखती है 
ॐ पुरोहित कागद की कविता "पुरुष का जन्म " एक कटाक्ष है और नारी मन की वेदना जहाँ वो अपने अस्तित्व की तलाश के साथ एक अदद पहचान और अपने घर के लिए तरस रही है . सब कार्य पुरुष सत्ता को इंगित करने क्यों होते हैं जबकि जननी स्त्री ही है हर कार्य की पूर्णाहुति स्त्री से होती है फिर भी क्यों वो उपेक्षित रहती है ? 
पल्लवी त्रिवेदी की "बताना चाहती हूँ ज़माने को " उस नारी की पुकार है जो अपने ढंग से जीना चाहती है . उसी उन्मुक्तता के साथ जैसे कोई पुरुष जीता है क्योंकि ख्वाहिशों का कोई जेंडर नहीं होता.
तो दूसरी तरफ "उसकी रूह कुछ कह रही थी पहली बार " में पल्लवी जी ने स्त्री को जागृत किया  है और कहती  हैं कि सुन अपनी आत्मा की आवाज़ और अपने लिए रास्ते खुद चुनना  ताकि सुलग सुलग कर जीने की विवशता से आज़ाद हो  सके . 
प्रेरणा शर्मा की "मैं हूँ स्त्री " देह के बंधनों से मुक्त होती स्त्री की एक सशक्त आवाज़ है जो लैंगिक भेदभाव को पूरी तरह नकार कर स्वयं को स्थापित कर रही है. 
प्रवेश सोनी की "घरौंदा " स्त्रियों के मन का दर्पण है जिसमे वो बताती हैं उम्र के एक मोड़ पर जीवन कितना सहज होता है दूसरे मोड़ पर जब वो पूरा आकाश मुट्ठी में भरना चाहती है  तो उम्र का संकोच कहो या  स्त्री सुलभ लज्जा उसे उड़ान भरने  से रोकने लगती है और मन की बिछावन पर परतें जमने लगती हैं उम्र की , उन्माद की , सिसकन की . 
रंजना जायसवाल की कविता "माँ का प्रश्न " वास्तव में सोचने को मजबूर करता है एक उम्र आने पर बेटे को माँ का सब कुछ बुरा लगने लगता है यहाँ तक कि इससे उसे लगता है कि उसकी इज्जत कम होती  है मगर भूल जाता है कि उसमे ना जाने कितने ऐब भरे पड़े हैं  तो क्या उसके ऐबों की वजह से उस माँ  की  इज्जत नहीं जाती प्रश्न करती कविता एक सशक्त हस्ताक्षर है . 
तो दूसरी कविता "इन्सान" वास्तव में मरती इंसानियत पर कटाक्ष है एक अबोध बच्ची के माध्यम से हैवानियत की सच्चाई को जिस तरह उकेरा है वो अपने आप में बेजोड़ है . सरल शब्दों में गहरा मार करती कविता एक अदद इन्सनियात से भरा  इन्सान ढूँढ रही है . 
रितुपर्णा मुद्राराक्षस की "कुछ कहना चाहेंगे आप " कविता पुरुष की आदिम सोच को दर्शाती है जो स्त्री से चाहे जो भी सबंध रखे यहाँ तक कि कितना ही अच्छा दोस्त बनने का अभिनय करे आखिर में रहता  वह वो ही आदिम सोच से युक्त पुरुष है जो स्त्री को सिर्फ शरीर ही समझता है जबकि स्त्री के लिये हर सम्बन्ध की एक मर्यादा होती है मगर पुरुष क्यों देह से इतर किसी सम्बन्ध को नहीं देख पाता  ये प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है . 
राजीव कुमार 'राजन' की "मैं मनुष्य हूँ" कविता में स्त्री स्वयं को मुक्त कर रही है .हर सकारात्मक या नकारात्मक बँधन से जो पुरुष ने उसे दिए हैं . नहीं बनना उसे देवी, त्याग की मूर्ति , छिनाल या कुल्टा  वो बस एक मनुष्य  के रूप में अपनी सम्पूर्णता के साथ जीना चाहती है  इसलिए स्वयं को मुक्त कर रही है हर विशेषण से . 
राजेंद्र शर्मा जी ने अपनी कविता "स्त्री" में औरत के उस रूप को दर्शाया है जो चाहे पत्नी हो  , माँ हो , बहन  या बेटी हर रूप में वो सबकी सलामती की दुआएँ मांगती ही दिखती है . एक डर के साये में जीती औरत का सुन्दर चित्रण करने के साथ एक प्रश्न पुरुष समाज पर भी उछाल दिया है कि स्त्री के भाग्य में ही ये सब क्यों बदा होता है जो शायद एक अनुत्तरित प्रश्न है . 
सीमांत सोहल जी की "परदेसी -पुत्र" माँ बेटे के रिश्ते की उस गर्माहट की तरफ ध्यान दिलाती है जो बेटे की तरफ से तो लुप्त होती जा  रहीहै  मगर माँ तो हमेशा हर हाल में माँ ही होती है . माँ की जरूरत पर बेटा सौ बहाने बना सकता है मगर माँ तो माँ होती है उसे तो उसकी ममता ही याद रहती है और हज़ार मुश्किलों का सामना करने पर भी बेटे की जरूरत पर उसके साथ होती हैबस इतना ही तो अंतर होता है उस रिश्ते में , उसकी गर्माहट में . 
श्याम कोरी उदय जी ने "सिर्फ औरत नहीं हूँ मैं " में एक ऐसा सवाल उठाया है जो विचारणीय है . औरत को पुरुष ना जाने क्या क्या बनाता है कभी खुशबू तो कभी रात , कभी दिन कभी चाँदनी बहुत से नामों और उपनामों से नवाजता है यहाँ तक कि अपना सारा जहाँ भी कह देता है बस नहीं मानता तो उसके संपूर्ण अस्तित्व को अर्थात सिर्फ औरत के रूप को स्वीकार नहीं पाता  . एक सोचने को विवश करती कविता. 

सुमन जैन की कविता "बेटियां बहुत जल्दी बड़ी हो जाती हैं " एक सत्य को परिभाषित करती है जिस सत्य को हम नकारना चाहते हैं स्वीकारना नहीं चाहते , जिस पर हम झुंझलाते रहते हैं सुनने पर , दूसरा इन्सान कहे तो बुरा लगता है सुनने पर मगर जब अपने साथ वो ही लम्हा घटित होता है तो जुबान पर लफ्ज़ बनकर वो बात आ ही जाती है और बेसाख्ता मुँह से निकल ही जाता है ........बेटियां बहुत जल्दी बड़ी हो जाती हैं. 

शबनम राठी "बीवी " कविता में हर नारी के उस दर्द को बयां कर रही हैं जो उसके अन्तस्थ में पलता है  हर नारी चाहती है कि उसका पति उसे भी इन्सान समझे, घर का जरूरी समान नहीं या जरूरत की वस्तु नही जिसे जब चाहे प्रयोग किया बल्कि एक पूर्ण इन्सान के रूप में स्वीकारे मगर उसके पास वो नज़र या वक्त ही नहीं  होता या वो  सोच ही नहीं  होती , वो भावनाएं ही नहीं होतीं या वो सोचना ही नहीं चाहता स्वीकारना ही नही चाहता उसके वजूद को एक इन्सान के रूप में ........ 

उपासना सियाग ने "सरहद पर जब भी " कविता में युद्ध की विभीषिका में एक औरत के संवेदनशील भावों  को दर्शाया है . एक औरत चाहे इस पार  की हो या उस पार  की , कोई भी हो माँ , बहन , बेटी या पत्नी  वो सिर्फ़ सरहद पर गए के लिए उसकी सलामती के लिए दुआ ही कर सकती है क्योंकि भावनाओं में अंतर नहीं होता तो फिर औरत में कैसे होगा ये होती है स्त्री होने की सबसे बड़ी पहचान  

वीना कर्मचंदानी  "गुलाबी" कविता में उन स्त्रियों की मनः स्थिति में झाँका है जो घर -घर जाकर झाड़ू बर्तन आदि करती हैं और किसी को पढ़ते देख उनका चेहरा कैसा दमक जाता है कि साँवली रंगत भी गुलाबी दिखने लगती है  . शिक्षा का तेज़ उसकी चाहत का दर्प मुख पर उजागर होना और उसके महत्त्व को समझना उन लोगों के लिए बड़ी बात है जिन्हें ये सुविधाएं आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं . 

वन्दना शर्मा ने "बस कैलेंडर भरता है हामी" कविता में औरत के दयनीय हीन दशा का मार्मिक चित्रण किया है . कितने तरह के वीभत्स अत्याचार सहती है औरतें मगर पाषाण  युग हो या २१ वीं सदी औरत सिर्फ भोग्या ही रही तो कभी अहिल्या ही रही , शापित सी , अपमानित होती, कतरे, कुचले लहूलुहान पंखों के साथ सिसकती ही रही. युग बदलने से उसकी दशा में कोई परिवर्तन नहीं वो कल भी वस्तु थी और आज भी . 

वसुन्धरा  पाण्डेय की "बोनसाई " कविता नारी के  विचारों को व्यक्त करती है . कैसे पुरुष उसे अपने अंगूठे के नीचे दबाकर रखना चाहता  है क्योंकि जानता है एक बार यदि उड़ान भरनी शुरू की तो आसमाँ भी छोटा पड़ जायेगा फिर उसका वर्चास्व कैसे कायम रहेगा ।
  ये अपने आप मे एक ऐसी उपलब्धि है जो किसी ने सोची भी नही होगी कि फ़ेसबुक की रचनाओं के जरिये भी साहित्य सृजन हो सकता है और उसका ये एक ऐसा उदाहरण बन गया है कि आगे आने वाले दिनो मे इससे काफ़ी लोग प्रेरित होकर साहित्य मे ना केवल योगदान देंगे बल्कि अपनी भी एक मुकम्मल पहचान बनायेंगे और इसका श्रेय माया जी आपकी टीम को जाता है …… ये केवल मेरे निजी विचार हैं इन्हें किसी समीक्षक की दृष्टि से ना देखा जाए.  

किताब प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र है : 

बोधि प्रकाशन f -77  kartarpura  industrial  area  bais  godam ,jaipur ...302006  cell : 098290 -18087  
बोधि प्रकाशन के वितरण प्रभारी श्री अशोक कुमार जी  से उनके फ़ोन  
99503 30101 पर बात कर लें 

अब समय हो गया है कि आज का कार्यक्रम संपन्न किया जाये, किन्तु  उससे पहले एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति से आप सभी को रू ब रू करा रही हूँ .....चलिये चलते हैं वटवृक्ष पर जहां  देश के श्रेष्ठ कार्टूनिष्ट काजल कुमार लेकर उपस्थित हैं.....ऐसा भी होता है .... एक ब्रेक बनता है

इसी के साथ .....कल फिर मिलती हूँ परिकल्पना पर सुबह 10 बजे कुछ और सारगभित पोस्ट के साथ । 

1 comments:

आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.

 
Top