खुशियों के इतने रंग दे जाएँ ................... जोगीरा सरररर जोगीरा अररररर
सबको लाते हैं रंगों की पिचकारी संग - पुराने,नए जाने-माने जितने मिल जाएँ .....
होली / भारतेंदु हरिश्चंद्र
कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥
तुन्हें कछु लाज न आई।
होली / हरिवंशराय बच्चन
यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,
आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!
निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,
आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!
प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,
जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
मोहन हो-हो, हो-हो होरी / रसखान
मोहन हो-हो, हो-हो होरी ।
काल्ह हमारे आँगन गारी दै आयौ, सो को री ॥
अब क्यों दुर बैठे जसुदा ढिंग, निकसो कुंजबिहारी ।
उमँगि-उमँगि आई गोकुल की , वे सब भई धन बारी ॥
तबहिं लला ललकारि निकारे, रूप सुधा की प्यासी ।
लपट गईं घनस्याम लाल सों, चमकि-चमकि चपला सी ॥
काजर दै भजि भार भरु वाके, हँसि-हँसि ब्रज की नारी ।
कहै ’रसखान’ एक गारी पर, सौ आदर बलिहारी ॥
आओ खेलें होली / रंजना भाटिया
मस्त बयार बहे
रंगों की बौछार चले
रंगे सब तन मन
चढ़े अब फागुनी रंग
कान्हा की बांसुरी संग
भीगे तपते मन की रंगोली
आओ खेले होली ......
टूट जाए हर बन्ध
शब्दों का रचे छंद
महके महुआ की गंध
छलके फ्लाश रंग
मिटे हर दिल की दूरी
आओ खेले होली ......
बहक जाए हर धड़कन
खनक जाए हर कंगन
बचपन का फिर हो संग
हर तरफ छाए रास रंग
ऐसी सजे फिर
मस्तानों की टोली
आओ खेले होली .....
कान्हा का रास रसे
राधा सी प्रीत सजे
नयनो से हो बात अनबोली
आओ खेले होली ....
धुआँ और गुलाल / ऋषभ देव शर्मा
सिर पर धरे धुएँ की गठरी
मुँह पर मले गुलाल
चले हम
धोने रंज मलाल !
होली है पर्याय खुशी का
खुलें
और
खिल जाएँ हम;
होली है पर्याय नशे का -
पिएँ
और
भर जाएँ हम;
होली है पर्याय रंग का -
रँगें
और
रंग जाएँ हम;
होली है पर्याय प्रेम का -
मिलें
और
खो जाएँ हम;
होली है पर्याय क्षमा का -
घुलें
और
धुल जाएँ गम !
मन के घाव
सभी भर जाएँ,
मिटें द्वेष जंजाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !
होली है उल्लास
हास से भरी ठिठोली,
होली ही है रास
और है वंशी होली
होली स्वयम् मिठास
प्रेम की गाली है,
पके चने के खेत
गेहुँ की बाली है
सरसों के पीले सर में
लहरी हरियाली है,
यह रात पूर्णिमा वाली
पगली
मतवाली है।
मादकता में सब डूबें
नाचें
गलबहियाँ डालें;
तुम रहो न राजा
राजा
मैं आज नहीं कंगाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !
गाली दे तुम हँसो
और मैं तुमको गले लगाऊँ,
अभी कृष्ण मैं बनूँ
और फिर राधा भी बन जाऊँ;
पल में शिव-शंकर बन जाएँ
पल में भूत मंडली हो।
ढोल बजें,
थिरकें नट-नागर,
जनगण करें धमाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !
खेलन चली होरी गोरी मोहन संग / रसूल
खेलन चली होरी गोरी मोहन संग ।
कोई लचकत कोई हचकत आवे
कोई आवत अंग मोड़ी ।
कोई सखी नाचत, कोई ताल बजावत
कोई सखी गावत होरी ।
मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।
सास ननद के चोरा-चोरी,
अबहीं उमर की थोड़ी ।
कोई सखी रंग घोल-घोल के
मोहन अंग डाली बिरजवा की छोरी ।
मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।
का के मुख पर तिलक बिराजे,
का के मुख पर रोड़ी ।
गोरी के मुख पर तिलक विराजे,
सवरों के मुख पर रोड़ी ।
मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।
कहत रसूल मोहन बड़ा रसिया
खिलत रंग बनाई ।
भर पिचकारी जोबन पर मारे
भींजत सब अंग साड़ी ।
हंसत मुख मोड़ी ।
मोहन संग खेलन चली होरी, गोरी ।
कैसे खेलें आज होली / शशि पाधा
आतंक के प्रहार से सहमती है धरा भोली
प्रेम के गुलाल से आओ खेलें आज होली।
घट रही हैं आस्थाएँ
क्षीण होतीं कामनाएँ
आज धरती के नयन से
बह रहीं हैं वेदनाएँ
खो गई हँसी - ठिठोली कैसे खेलें आज होली।
स्नेह का अबीर हो
धूप अनुराग की
फागुनी बयार हो
हो राग -रंग की रंगोली ऐसी खेलें आज होली।
गांधी आएँ, गौतम आएँ
ईसा और मोहम्मद आएँ
साधु-सन्त देव आएँ
प्रेम की गाथा सुनाएँ
विश्वास से भरी हो झोली मिलजुल खेलें आज होली।
न कोई घर वीरान हो
न संहार के निशान हों
न माँग सूनी हो कोई
अनाथ न सन्तान हो
दिशा- दिशा हो रंग-रोली ऐसी खेलें आज होली।
किससे करें बरजोरी........कैसे खेलें होली ? वंदना गुप्ता
होली होली
खेलें होली
रंगों की है
बरजोरी
चलो चलो
सब खेलें होली
आवाज़ ये
आ रही है
दिल को मेरे
दुखा रही है
कैसी होली
कौन सी होली
कौन से रंगों से
करें बरजोरी
कहीं है देखो
रिश्तों के
व्यापार की होली
कहीं है प्यार के
इम्तिहान की होली
कहीं पर देखो
जाति की होली
कहीं है भ्रष्टाचार
की होली
कोई तो फेंके
बमों के गुब्बारे
कहीं पर है
नक्सलिया टोली
लहू का पानी
डाल रहे हैं
नफरतों के
बाज़ार लगे हैं
सियासती चालों की
होली खेल रहे हैं
दाँव पेंच सब
चल रहे हैं
बन्दूक की
पिचकारी बना
निशाना दाग रहे हैं
देश को कैसे
बाँट रहे हैं
ये कैसी होली
खेल रहे हैं
लहू के रंग
बिखेर रहे हैं
केसरिया भी
सिसक रहा है
टेसू के फूलों से
भी जल रहा है
हरियाली भी
रो रही है
अपना दामन
भिगो रही है
अमन शान्ति का
हर रंग उड़ गया है
आसमान भी
बिखर गया है
माँ भी लाचार खडी है
अपनों के खून से
सनी पड़ी है
बेबस निगाहें
तरस रही हैं
जिसके बच्चे
मर रहे हों
आतंक की भेंट
चढ़ रहे हों
जो घात पर घात
सह रही हो
तड़प- तड़प कर
जी रही हो
जिस माँ को
अपने ही बच्चे
टुकड़ों में
बाँट रहे हों
वो माँ बताओ
कैसे खेले होली
जहाँ दिमागों पर
पाला पड़ गया हो
स्पंदन सारे
सूख गए हों
ह्रदयविहीन सब
हो गए हों
अपनों के लहू से
हाथ धो रहे हों
बताओ फिर
कैसे खेलें होली
किसकी होली
कैसी होली
किससे करें
बरजोरी
अब कैसे खेलें होली ?
और अब -
होली की हुड़दंग, ब्लॉगरों के संग
(बुरा न मानो होली है)
बड़े ढ़ोल में बड़ी पोल, प्रेयसी रूठी रात ।
ललित बेचारे सोच रहे, कब होगी कुछ बात ?
दारू पीकर मस्त हैं, लगती भूख न प्यास ।
अपनी तो हर रात दिवाली, हर दिन है मधुमास । ।
दारू-शारू में कुछ है , या बोतल में है खास ।
झूम बराबर बोल शराबी, पूछ रहे अविनाश । ।
नए नए तकनीक के, आ गए ब्लॉगर बावला ।
जीवन के इस मेले में, खोज रहे क्या पावला ?
मुझे पता क्या शादी के, लड्डू करे सजाय ।
न खाये ललचाये, खाये तो पछताय । ।
स्वामी अरविंद के, करे ना कोई कद्र ।
काशी की ठंडई पीके, घूम रहे सोनभद्र । ।
ब्लोगजगत के ठाकुर से, गब्बर की है मांग ।
शुक्ल बड़े या लाल हैं, बतलाओ महाराज ?
पंकज जी के शर्बत मे, किसने घोली भंग ।
बन के जोकर घूम रहे, हालत हो गयी तंग ।।
चला कामरेड ब्लॉगर बनने, बन के लौटा जोकर ।
आन्टा-चाबल मंहगे हो गए, खाओ नाइस चोकर ।।
घोंडी चढ़के ताऊ जी, मस्त-मस्त इतराय ।
चंपाकली तो भाग गयी, किससे ब्याह रचाय।।
रोज नए अखबार मे, डांस पे मारे चांस ।
संपादक के जलवे हैं, कहते राय सुभाष।।
खुद डरकर घर मे पड़े, सहमे रवीन्द्र
प्रभात ।
दूजे को उपदेश दे, करना मत
उत्पात । ।
आप सभी को –
होली की ढेर सारी