निर्णायक सदस्यों दवारा चयनित दो रचनाकार उड़ान भरने को तैयार 





प्रीति 'अज्ञात' अहमदाबाद से ज्ञात एक बहुत ही सुरुचिपूर्ण महिला हैं और सुरुचिपूर्ण लेखिका। 
जन्म-तिथि - १९ अगस्त १९७१
जन्म-स्थान - भिंड(म.प्र.) 
वर्तमान निवास-स्थान - अहमदाबाद (गुजरात) 
शिक्षा - स्नातकोत्तर (वनस्पति-विज्ञान)
संप्रति - संस्थापक एवं संपादक - 'हस्ताक्षर' मासिक वेब पत्रिका, लेखिका, सामाजिक कार्यकर्त्ता 

प्रकाशित साझा-संग्रह - एहसासों की पंखुरियाँ 
                           मुस्कुराहटें...अभी बाकी हैं 
                         हार्टस्ट्रिंग्स "इश्क़ा" 
                         काव्यशाला 
                         गूँज (हिन्द -युग्म प्रकाशन)
                                  
पुस्तक - समीक्षा - सपनों के डेरे (प्रीति सुराना)

संपादन -   एहसासों की पंखुरियाँ 
              मुस्कुराहटें..अभी बाकी हैं 
              मीठी- सी तल्खियाँ (भाग-2)
              मीठी- सी तल्खियाँ (भाग-3)
              
प्रकाशनाधीन साझा-संग्रह -  बैरंग , वजूद की तलाश , सरगम TUNED
प्रकाशनाधीन संपादित पुस्तक - उदिशा                         
        
अन्य लेखन उपलब्धियाँ - विभिन्न राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक पत्रिकाओं, समाचार पत्रों में कविताएँ / आलेख प्रकाशित, कई वेब पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित, मासिक वेब पत्रिका ज्ञान मंजरी में नियमित स्तंभ 'कैमरे की नज़र से'

विशेष - 
* 'साहित्य-रागिनी' वेब पत्रिका में मुख्य संपादक (सितंबर २०१३ से सितंबर २०१४ तक)
* 'डेवेलपमेंट फाइल' (अँग्रेज़ी की मासिक पत्रिका) में गुजरात प्रमुख रिपोर्टर (नवंबर २०१४ से)
* तीसरे 'दिल्लीअंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव' ( 20 -27 दिसंबर 2014) में हिंदी श्रेणी में रचना चयनित व् प्रकाशित 
* 'म.प्र पत्र-लेखक संघ' द्वारा पुरूस्कृत
*  वर्तमान में अपने ब्लॉग 'ख्वाहिशों के बादलों की......कुछ अनकही,कुछ अनसुनी' और 'यूँ होता, तो क्या होता....!' पर नियमित रूप से लेखन


ई-मेल -  preetiagyaat@gmail.com


'हस्ताक्षर' मासिक वेब पत्रिका
http://www.hastaksher.com/index.php
ख़्वाहिशों के बादलों की..कुछ अनकही, कुछ अनसुनी
यूँ होता...तो क्या होता !

प्रीति अज्ञात  शब्दों में,
'लेखन' मेरी प्राणवायु -

"शब्द ही शब्द मंडराते हैं हर तरफ, सहेजना चाहती हूँ उन्हें , गागर में सागर की तरह , वक़्त की धूल कभी आँखों में किरकिरी बन नमी ला देती है , तो कभी इस धूल को एक ही झटके में झाड़ फटाक से खड़ा हो उठता है मन, जरा सी ख़ुशी मिली नहीं कि बावलों-सा मीलों दूर नंगे पैर दौड़ने लगता है, रेत में फूलों की ख़ुश्बू ढूंढ लेता है , घनघोर अन्धकार में भी यादों की मोमबत्तियाँ जला उजास भर देता है ! पर उदासी में अपने ही खोदे गहरे कुँए में नीचे तक उतर जाता है, बीता हर दर्द टटोलता है, सहलाता है, भयभीत हो चीखता चिल्लाता है  ! पुकार बाहरी द्वारों से टकराकर और भी भीषण ध्वनि के साथ वापिस आ मुंह चिढ़ाने लगती है ! दोनों हाथों को कानों से चिपकाकर, चढ़ने की कोशिश आसान नहीं होती। घिसटना किसे मंज़ूर है भला ? चाहे हिरणी-सी मीलों दूर की दौड़ हो चाहे जमीन के भीतर बनी खाई, दोनों ही जगहों से लौटना आसान नहीं होता, पर फिर भी, जिम्मेदारियों की रस्सी गले  में फंदा बाँध ऊपर खींच ही लेती है ! एक गहरी ख़राश, कुछ पलों का मौन, चीखता सन्नाटा और हारी कोशिशों का खिसियाता मुंह लिए लौट आता है तन और ठीक तभी मैं, स्वयं को भावों को अभिव्यक्त करने की कोशिशों में जुटा पाती हूँ !

लेखन मेरी प्राणवायु है, ये कभी समाज की कुरीतियों और अपराधों के प्रति निकली हुई झुंझलाहट है , तो कभी धर्मजाल के खेल में उलझते लोगों के लिए कुछ न कर पाने की बेबसी !, ये घुटन को दूर करने की व्याकुलता है और नम आँखों पर हँसी बिखेर देने की ज़िद भी! कभी ये छोटे-छोटे पलों को जीने का अहसास बन एक मासूम बच्चे -सा मेरे काँधे पर झूलता हुआ बचपन है तो कभी खुशियों को कागज़ पर समेट देने की असीम उत्कंठा! पर इन सबके पीछे 'परिवर्तन' की एक उम्मीद आज भी कहीं जीवित है ! लेखन मेरे लिए एक आत्म-संतुष्टि से कहीं ज्यादा 'प्रयास' है कि समाज में एक सकारात्मक और आशावादी सोच भी उत्पन्न कर सकूँ ! संघर्षों से हारना मैंने सीखा ही नहीं, इसलिए यह यात्रा अब तक अनवरत जारी है !

शुरूआती दौर में, लेखन को प्रोत्साहित करने का पूरा श्रेय मेरे माता-पिता(नलिनी जैन और डॉ. सुभाष कुमार जैन) को जाता है और उसके बाद बच्चों ऋषभ और सौम्या को ! पति मुकुल को कविताओं का इतना शौक़ तो नहीं, लेकिन फिर भी उनका सहयोग हमेशा मेरे साथ रहा !
अच्छा लगता है , जब लिखे हुए शब्दों को सराहा जाए और इसके लिए मैं अपने सभी दोस्तों और पाठकों का भी हृदयतल से आभार व्यक्त करती हूँ !"


परिकल्पना की स्वप्निल उड़ान भरने के लिए इन्हें इनकी दो सशक्त रचनाओं पर पंख मिले हैं  . उन रचनाओं से भी मिलिए, और कहिये है न पंख पाने के काबिल  … 



1. 'स्वतंत्रता'.....महसूस क्यों नही होती?
सोमवार से लेकर शनिवार तक, हम सभी की दिनचर्या कितनी नियमितता से चला करती है। वही समय पर उठना, रोजमर्रा की भागदौड़ भरी ज़िंदगी, काम पर जाना, तय समय पर लौटना और सुकून भरे कुछ पलों की तलाश करते हुए एक और सप्ताह का गुजर जाना ! लेकिन शनिवार की शाम से ही हृदय उड़ानें भरने लगता है. एक निश्चिंतता-सी आ जाती है ! बच्चे भी उस दिन विद्यालय से लौटते ही बस्ता एक जगह टिकाकर क्रांति का उद्घोष कर देते हैं। उनके लिए 'स्वतंत्रता' के यही मायने हैं ! 'स्वतंत्रता', 'फ्रीडम' कितने क्रांतिकारी शब्द लगते हैं और 'आज़ादी' सुनते ही महसूस होता है, जैसे किसी ने दोनो कंधों पर पंख लगा खुले आसमान में उड़ने के लिए छोड़ दिया हो; पर सिर्फ़ 'लगता' है, ऐसा होता नहीं ! 'पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना ही आज़ादी है', पर क्या बिना किसी के हस्तक्षेप के जीना संभव है ? आज़ादी का अर्थ उच्छ्रुन्खलता नही, लेकिन एक स्वस्थ, सुरक्षित और भयमुक्त वातावरण में जीवन-यापन हमारी स्वतंत्रता का हिस्सा अवश्य है. क्या मिली है हमें, ये आज़ादी ?
स्व+तंत्र अर्थात मेरा अपना तंत्र, मेरा अपना तरीका, जिसके अनुसार हम काम करना चाहते हैं, जिसमें सहज हैं पर क्या हम सचमुच ऐसा 'कर' पाते हैं ? नहीं न ! वो तो दूसरों की सुविधानुसार करना पड़ता है, किसी और के बनाए क़ायदे-क़ानून ही सही ठहराए जाते हैं. यानी हम उम्र-भर वो करते हैं, जो हमारे नियम, हमारे बनाए तन्त्र से पूर्णत: भिन्न होता है. ये कैसी स्वतंत्रता है, जहाँ अनुशासित होना तो सिखाया जा रहा है, सामजिक नियमों का पालन भी ज़रूरी है, सबका सम्मान भी करना है..और कीमत ? ये अधिकतर अपनी स्वतंत्रता और आत्मसम्मान को बेचकर ही अदा की जाती है। क्या तन और मन दोनों के शोषित होने की अवस्था ही स्वतंत्रता है ? ध्यान रहे, यहाँ एक आम भारतीय नागरिक की बात हो रही है, सत्ता के गलियारों में ऊँचे पदों पर आसीन शाही लोगों की नहीं ! इसी 'आम नागरिक' की तरफ से कुछ सवाल हैं, मेरे -
* अगर मैं स्वतंत्र हूँ तो मेरी स्वतंत्रता मुझे महसूस क्यों नही होती ? कहीं पढ़ा था कि "स्वतंत्रता, स्वतंत्र रहने या होने की अवस्था या भाव को कहते हैं; ऐसी स्थिति जिसमें बिना किसी बाहरी दबाव, नियंत्रण या बंधन के स्वयं अपनी इच्छा से सोच समझकर सब काम करने का अधिकारहोता है!"
* तो फिर, किसने छीन ली है मेरी आज़ादी ? मुझे मेरे कर्तव्य तो हमेशा से दिखते आए हैं, पर अधिकारों का क्या हुआ ? उन्हें पा लेना मेरी स्वतंत्रता का हिस्सा नही ? स्त्री और पुरुष के बीच अधिकार और कर्तव्य का ये कैसा बँटवारा, कि स्त्री के हिस्से में कर्तव्य आए और पुरुषों के में अधिकार? किसने तय की है स्वतंत्रता की ये परिभाषा ? क्या संविधान ऐसा कहता है ?
* मैं रोज ही देखा करती हूँ उसे, कभी कचरे में से सामान बीनते हुए, कभी सर पर स्वयं से भी अधिक बोझा ढोते हुए, कभी  वो किसी होटल में मेहमानों का कमरा साफ करते हुए अपनी 'टिप' के इंतज़ार में दिखाई देता है तो कभी किसी रेस्टोरेंट में बर्तन मांजते हुए चुपके-से एक नज़र दूर चलते हुए टी. वी. पर डाल लिया करता है। मंदिर की सीढ़ियों पर उसे रोते-सुबकते उन्हीं उदार इंसानों की डाँट खाते हुए भी देखा है, जो अपने नाम का पत्थर लगवाने के हज़ारों रुपये दान देकर उसके पास से गुजरा करते हैं, इन सेठों के जूते-चप्पल की रखवाली करता बचपन अपनी स्वतंत्रता किसमें ढूँढे ?
* इन मासूम बाल श्रमिको और आम नागरिकों में बस इतना ही अंतर है, कि हमें अपने अधिकारों का बखूबी ज्ञान है। पढ़े-लिखे जो हैं, क़ानून जानते हैं, सुरक्षा के नियम भी बचपन में ही घोंट लिए थे, तभी दुर्भाग्य से समानता के बारे में भी पढ़ बैठे थे कहीं ! ये तो मूलभूत अधिकार था....बरसों से है ! आख़िर ये समानता इतने बरस बीत जाने पर भी दिखती क्यूँ नहीं ? सब धर्मों को समान अधिकार है, तो कोई दंभ में भर, खुद को श्रेष्ठ ठहराने के लिए इतना लालायित क्यों रहता है ? सब वर्ग समान ही हैं, तो हमारे आसपास रोज ही कोई युवा बेरोज़गार, आरक्षण से इतना निराश क्यों दिखाई देता है ? सुरक्षा का अधिकार है तो अकेले बाहर निकलने में डर क्यों लगता है ?
* क़ानून है तो न्याय के इंतज़ार में जीवन कैसे गुजर जाता है? सरेआम अपराध करने पर भी, अपराधी बच क्यों जाता है ? ये समाज और इसके दकियानूसी क़ानून, कुछ स्थानों की सड़ी-गली मान्यताएँ और उनका पालन करने को उत्सुक पंचायती लोग जो, कर्तव्य-पालन से चूक जाने पर सज़ा देना कभी नही भूलते पर स्त्री के अधिकारों की माँग पर कायरों से भाग खड़े होते हैं, सवाल करने पर इन्हें अचानक साँप कैसे सूंघ जाता है? इनके बनाए नियम, ये कभी स्वयं पर क्यों नहीं आजमाते ?
* कौन है, जिसने स्त्री की स्वतंत्रता को छीनकर कर्तव्य की गठरी और तालाबंद अधिकारों की एक जंग लगी संदूकची उसके दरवाजे रख दी है. वो जब-जब उस संदूकची को खोलने का दुस्साहस करे, तो उसके सर और दिल का बोझ दोगुना कैसे हो जाता है ? अगले ही दिन वो टुकड़ों में सड़क किनारे पड़ी क्यों मिलती है ?
* कौन सी सरकार है, जो स्त्रियों के आत्म-सम्मान को वापिस देगी ? कौन सा दल है जो चुनाव के वादों के बाद सिर्फ़ 'अपनी' नही सोचेगा ? कौन सी अदालत है, जो निर्भया को निर्भय हो जीना सिखा पाएगी ? 
* कौन से अख़बार या टीवी चैनल हैं, जो निष्पक्ष हो खबरें बताएँगे ? 
.ये सब तो फिर भी परिभाषित हो सकेगा पर मानसिक स्वतंत्रता ? उसे पाने के लिए किस युग में जाना होगा ?
मेरी स्वतंत्रता मेरे पास नहीं, मेरे अधिकार मेरे पास नहीं ! मेरे पास भय है..कि मुझे हर हाल में अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है, भय है सुरक्षा का, अपने धर्म, संस्कारों के पूर्ण-निर्वहन का...क्योंकि उनको 'ना' कहने की स्वतंत्रता मेरे पास नहीं!  मैं विश्वास रखती हूँ हर धर्म में..पर यदि कोई किसी धर्म विशेष के बारे में बुरा बोल रहा है, तो उसे रोकने की स्वतंत्रता मेरे पास नही, मेरे पास उस वक़्त भय होता है, अधर्मी कहलाने का, सांप्रदायिकता फैलाने का ! बाज़ार से गुज़रते हुए मैं सरे-राह क़त्ल होते देख सकती हूँ, शायद कुछ पल ठिठक भी जाऊं, पर संभावना यही है कि मैं डर से छुपकर या अनदेखा कर आगे बढ़ जाऊं; उस अपराधी को रोक पाने की स्वतंत्रता नही है मेरे पास ! सिखाया गया है इसी समाज में, कि दूसरे के पचड़ों में न पड़ना ही बेहतर, वरना अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा ! मुझे जान प्यारी है, अपना घर, परिवार, दोस्त सभी प्यारे हैं.....इसलिए मैं दंगों में खिड़कियाँ बंद कर लेती हूँ, हिंसा-आगज़नी के दौरान घर से निकलना ही छोड़ देती हूँ! मैं बलात्कार की खबरें देख सिहर उठती हूँ..और घबराकर बहते हुए पसीने को पोंछ, अपनी स्वतंत्रता के बारे में सोचा करती हूँ..जो मिली तो थी, कई बरस पहले ! हाँ, वर्ष याद है मुझे, सबको याद है. क़िताबें भी इसकी पुष्टि करती हैं ! पर कोई ये नही बताता कि तब जो स्वतंत्रता मिली थी, वो अब कहाँ खो गई ? किसने छीन ली, हमारी आज़ादी ? क्या उन स्वतंत्रता-सेनानियों का बलिदान व्यर्थ गया, जिन्होंनें इसके लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी ? मुझे संशय है कि दूर-दराज आदिवासी इलाक़ों में उस 'आज़ादी' की सूचना अब तक पहुँची भी है या नहीं ? उनकी परिस्थितियाँ तो कुछ और ही कहानी कहती हैं ! लेकिन फिर भी लगता है कि वे ज़्यादा स्वतन्त्र हैं, अपनी मर्ज़ी का खाते-पहनते हैं, इन्हें लुट जाने का भय नहीं, ये धर्म के लिए लड़ते नहीं, शिक्षा का अधिकार इन्होंने सुना ही नहीं !
जो मिली थी कभी, उस 'आज़ादी' का 'खून' तो हम भारतीयों की आपसी लड़ाई ने स्वयं ही कर दिया है ! स्वीकारना मुश्किल है, क्योंकि हमारी मानसिकता दोषारोपण की रही है और इसमें विदेशी ताक़तों का हाथ कैसे बताएँ ?
सच तो ये है कि आम भारतीय के लिए आज का दिन आज़ादी के अहसास से भावविभोर होने से कहीं ज़्यादा, 'छुट्टी का एक और दिन' होना है. जिसके रविवार को पड़ने पर बेहद अफ़सोस हुआ करता है !
आज रविवार नहीं, इसलिए मुबारक हो !
आज के दिन अपने स्वतंत्र होने के भाव को दिल खोलकर जी लीजिए ! देशभक्ति के गीत, लहराता तिरंगा, स्कूलों से मिठाई ले प्रसन्न हो घर लौटते बच्चे, परिवार के साथ समय गुज़ारते हुए कुछ लोगों को देख हृदय बरबस कह ही उठता है -
"स्वतंत्रता दिवस की अनंत शुभकामनाएँ!"
नमन उन शहीदों को, सभी वीर-वीरांगनाओं को, जिनका त्याग और समर्पण हम संभाल न सके ! 
अब भी वक़्त है, आइए अब बेहतर राष्ट्र-निर्माण के लिए एक प्रयत्न हमारी ओर से भी हो! सच्चे राष्ट्रभक्तों के बलिदानों को हम यूँ व्यर्थ नहीं जाने दे सकते। एक सफल प्रशासनिक ढाँचा ही हमें सच्ची स्वतंत्रता दिलवा सकता है और इस ढाँचे को बनाने में सभी भारतवासियों का योगदान अत्यावश्यक है! पहला क़दम उठाना ही होगा! ईश्वर हम सभी को इस लक्ष्य प्राप्ति में विजयी बनाए, इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ, जय हिंद!

- प्रीति अज्ञात

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2.  'मज़हब' नहीं सिखाता....!

'मज़हब' नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना....
फिर ये ';मज़हब'; है ही क्यों ?
क्योंकि ये जो नहीं सिखाता, वही तो सब सीखते आए हैं !
'धर्म' न होता तो लड़ने के लिए कौन सा मुद्दा होता ?  देश में जितने भी दंगे-फ़साद , आगजनी, हत्याएँ और इस तरह के असंख्य अमानवीय कृत्य होते रहे हैं , इनका जिम्मेदार कौन है ? क्या सचमुच 'धर्म' ही इसकी वज़ह है या उन अराजकीय तत्वों  की मानसिकता, जिन्हें 'घृणा' से 'प्रेम' है ? पर फिर भी जनता बेवकूफ बनती आ रही है, ये 'जनता' भोली नहीं रही, बल्कि चंद सिक्कों के लिए आसानी से अपना ईमान बेचना सीख गई है।  इन लोगों को होश तभी आता है, जब स्वयं पर बीतती है, इनके ही 'धर्म' की आड़ में जब इन पर प्रहार होता है। 

'धर्म' का इंसान से कोई भी सीधा सम्बन्ध नहीं सिवाय इसके कि ये जन्म के साथ आपको 'बोनस' में मिलता है. बात इसके सही इस्तेमाल की है. इंसानियत पैदाइशी नहीं होती, ये आपको सीखनी होती है. आप 'इंसान' बनें रहें, 'धर्म' कहीं नहीं जाने वाला ! एक इंसान, अच्छा या बुरा हो सकता है, धर्म का उसकी सोच से क्या संबंध ? क्या किसी धर्म ने बुरा व्यक्ति बनने के रास्ते दिखाए हैं ? संवेदनहीनता, हिंसा, अमानवीय और पाश्विक व्यवहार का समर्थन कौन सा धर्म करता है ? और यदि धर्म के कारण ऐसा हो रहा है, तो फिर ये 'धर्म' ही हर परेशानी की जड़ है ! इसे हटाने की हिम्मत जुटानी होगी ! पर अगर सारे धर्मों के लोगों के अपराधों का हिसाब-क़िताब लगाया जाए, तो हरेक के हिस्से में हर तरह का अपराध आएगा ! फिर तो सारे ही धर्म, अत्याचार के समर्थक हुए ? जो धर्म जितना बड़ा, उसका हिस्सा उतना ही ज़्यादा ? ये भी संभव है कि जो धर्म छोटा, उस पर अत्याचार ज़्यादा ? दुनिया की रीत है, पलटवार करने वाले से सब भयभीत रहते  हैं और दुर्बल को सताने में सबको अपार आनंद की अनुभूति होती है ! लेकिन जब 'दुर्बल' की सहनशक्ति टूट जाती है, तो उसके सामने कोई नहीं टिक पाता. ये इंसानी फ़ितरत है. पुनश्च, इसका आपके 'धर्म' से कोई ताल्लुक़ नहीं !

अपराधी, 'अपराधी' ही है. बहस, उसके जघन्य कृत्य पर ही होना चाहिए. उसके नाम के पीछे क्या लगा है, वो उसे परिभाषित नहीं करता. पर इस  सुशिक्षित, सभ्य समाज का  सर्वाधिक दुखद पक्ष यही है, कि लोग अपराधी की जात पर पहले गौर करते हैं, और उसकी बर्बरता की चर्चा बाद में होती है. दुर्भाग्य की बात है कि अपराध के विरोध और समर्थन में दो गुटों का निर्माण उसी वक़्त हो जाता है।

अगर समाज में परिवर्तन चाहते हैं, तो 'उपनाम' के मोह से बचें ! ज़्यादातर लोग धर्म के नाम पर मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं. आपकी इज़्ज़त, आपका रूतबा, आपके प्रति लोगों का नज़रिया...आपके व्यवहार पर निर्भर करता है. दूसरे के बुरे व्यवहार को अपनी क़ौम पर हमला न समझें. वो बुरा है, इसलिए उसने ऐसा किया. वो आपको मारना चाहता है, इंसानियत का विरोधी है, आप 'उसका' विरोध करें, पर अपने धर्म की महानता का बखान करे बिना. क्योंकि जब गिनाने की बात आएगी, तो आप बगलें झाँकते नज़र आएँगे ! सच तो यह है कि सबका हृदय जानता है, कि धर्म हमें सही राह दिखाते हैं और सभी धर्म 'सर्वश्रेष्ठ' हैं ! विचारणीय बात यह है  कि इसके बावज़ूद भी आतंक का इतना गहरा साया क्यूँ है. बाहरी ताक़तों की बात तो समझ आती है, पर जो घर में होता आ रहा है उसका क्या ? ये सब, कौन करवा रहा है ? कहीं राजनीतिक पार्टियां , वोट बैंक की लालसा में आम जनता को ही बलि का बकरा तो नहीं बना रहीं ? गरीबी-भुखमरी, अशिक्षा , बेरोजगारी ; इन  समस्याओं का निवारण हो गया है क्या ? या इनकी चर्चा 'आउटडेटेड' है !

इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण आप लोगों ने भी अवश्य देखे  होंगे कि कई घरों में ऐसी घटनाओं की निंदा करते समय ऐसे वाक्य सुनने को मिलते हैं....';इनकी तो जात ही ऐसी है';, ';ये लोग बहुत कट्टर होते हैं, किसी को नहीं छोड़ते';, ';इनके साथ तो ऐसा ही होना चाहिए'; वग़ैरह-वग़ैरह ! अगले दिन, उन घरों के बच्चे यही बात अपने साथियों से कह रहे होते हैं, बिना किसी प्रामाणिक तथ्य के। ये आगामी पीढ़ी के 'सोच' के पतन की शुरुआत है ! हमें इन्हें, यहीं से रोकना होगा ! अन्यथा ये समस्या जस-की-तस रहेगी !

यदि आप ईश्वर में सचमुच विश्वास रखते हैं तो  अपने-अपने घरों में, अपने बच्चों को सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाएं ! यदि नास्तिक हैं तो यह आपकी स्वतंत्रता है पर किसी और को सोच बदलने के लिए बाध्य न करें। हर इंसान को धर्म, जाति  से ऊपर उठकर अपनी एक पहचान बनाने का अवसर दें यही एक तरीका है, आने वाली नस्लों को हैवानियत से बचाने का !

एक सवाल, स्वयं से भी करें ! आप कौन हैं ? आप किस  रूप में याद किये जाना पसंद करेंगे या अपने धर्म से ही अपनी पहचान बनाएंगे ? वो पहचान जो पहले से ही तय की जा चुकी है , तो फिर आपके होने-न-होने का मतलब ही क्या ? क्या धर्म , इंसानियत से भी बड़ा होता है ?

विमर्श करें -

मैं कौन हूँ
मेरा उठना-बैठना
खाना-पीना, रहन-सहन
बातचीत का तरीका
स्वभाव,शिक्षण,व्यवसाय
विवाह की उम्र
शिष्टाचार,जीवन-शैली
यहाँ तक कि
मौत के बाद की
विधि भी,
सब कुछ तय है
मेरे जन्म के समय से.

पैदा होते ही तो लग जाता है
ठप्पा उपनाम का
जुड़ जाता है धर्म 
पिछलग्गू बन 
नाम के साथ ही
और उसी पल हो जाती है
सारी राष्ट्रीयता एक तरफ.
आस्था हो, न हो
विश्वास हो, न हो
पर इंसान को जाने बिना ही
समाज निर्धारित कर लेता है
उसके गुण-अवगुण,
चस्पा कर दी जाती हैं
उसके व्यक्तित्व पर
कुछ सुनिश्चित मान्यताएँ.

सीमाएँ लाँघने पर 
तीक्ष्णता-से घूरती हैं 
एक साथ कई निगाहें
फिर समवेत स्वर में उसे
नास्तिक करार कर दिया जाता है,
उन्हीं लोगों के द्वारा
जिन्होंने संकुचित कर रखी है
अपनी विचारधारा !
अपने धर्म की परिधि के भीतर ही
ये बुहारा करते हैं, रोज ';अपना'; आँगन 
सँवारते हैं, उसे
गीत गाते हैं मात्र उसी के हरदम.
धर्म-विधान के नाम पर
हो-हल्ला मचाते
ये तथाकथित संस्कारी लोग
रख देते हैं अपनी भारतीयता 
ऐसे मौकों पर, दूर कहीं कोने में.

राष्ट्र-हित की आड़ में 
बातें करने वालों ने
बो दिया है ज़हरीला बीज
तुम्हें खुद ही तोड़ने का
और हो गये हैं सभी सिर्फ़
अपने-अपने धर्म के अधीन.
तो फिर स्वतंत्र कौन है ?
मैं कौन हूँ?
तुम कौन हो?
जो वाकई चाहते हो स्वतंत्रता
तो तोड़ना होगा सबसे पहले
धर्म और प्रांत का बंधन.

ईश्वर एक ही है
मौजूद है, हर शहर, हर गली
हर चेहरे में,
हटा दो मुखौटा
और देखो
एक ही खुश्बू है
हर प्रदेश की मिट्टी की
हरेक घर का गुलाब 
एक-सा ही महकता है
महसूस करना ही होगा
तुम्हें  ये अपनापन,
तभी पा सकोगे 
दंगे-फ़साद, आगज़नी-तोड़फोड़
सारी अराजकताओं से दूर
एक स्वतंत्र-भारत !






एक और उड़ान अतुल श्रीवास्तव जी की होगी, उन्हें ये पंख उनके ब्लॉग लिंक के आधार पर मिला है  … 

- अतुल श्रीवास्तव
पारिवारिक स्थिति
पिता का नाम - श्री प्रकाश श्रीवास्तव
माता का नाम - स्व. श्रीमती रत्ना. श्रीवास्तव
पत्नि - श्रीमती रूचि श्रीवास्तव
पुत्री - कु. देवी श्रीवास्तव
जन्मतिथि - 13/01/1973
जन्मत स्थाीन  - छुईखदान (जिला राजनांदगांव)
शिक्षा - स्नातक
कार्य-अनुभव
01) वर्ष 1995 से 1998 तक राजनांदगांव से प्रकाशित दैनिक सबेरा संकेत में सह-संपादक।
02) 1998 से 2000 तक रायपुर में देशबन्धु अखबार में सह संपादक ।
03) 2001 से 2004 तक हरिभूमि राजनांदगांव और हरिभूमि रायपुर में नगर संवाददाता।
04) 2005 से लेकर जुलाई 2015 तक सहारा समय में राजनांदगांव  जिला संवाददाता के रूप में कार्यरत।
05) बीच में एक वर्ष सन 2013 में राजनांदगांव से प्रकाशित दैनिक भास्कर भूमि
में संपादक के रूप में कार्य का अनुभव।
06) वर्तमान में अगस्ता 2015 से राजनांदगांव में ‘पत्रिका’ समाचार पत्र में कार्यरत 
विशेष -  पांच-छह सालों से ब्ला ग लेखन जारी। 
कई प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में लेखों का नियमित प्रकाशन। 
वर्ष 2004 में खबरों का एक संकलन किताब के रूप में प्रकाशित।
एक किताब प्रकाशन की प्रक्रिया में...
पता
स्थाई पता - स्टेशन पारा, डॉ. सिद्दकी अस्पताल के पास, वार्ड नं. 12
राजनांदगांव (छ.ग.)
वर्तमान पता - ममता नगर, गली नं. 5, आनंद विहार कालोनी,  वार्ड नं. 19
राजनांदगांव (छ.ग.)
मोबाईल नम्बर - 94252 40408
89828 40408
ई मेल पता - aattuullss@gmail.com
ब्लालग पता - atulshrivastavaa.blogspot.in
ब्लालग नाम  सत्यvमेव जयते! ...(?)

पुरस्कृत लिंक 
1-    गण गौण, तंत्र हावी    http://atulshrivastavaa.blogspot.in/2013/01/blog-post_26.html

2-    तो न आना किसी गांव सीएम साहब http://atulshrivastavaa.blogspot.in/2012/04/blog-post_18.html

11 comments:

  1. दोनों रचनाकार लेखन में अनुपम हैं...........बधाई और शुभकामनायें

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  2. लेखन के क्षेत्र में, उपस्थिति दर्ज़ कराने का यह अहसास बेहद सुखद है ! बहुत-बहुत आभार सभी का ! अतुल जी को भी हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई !

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  3. अतुल जी, प्रीती जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें🙌
    ------ नीलू 'नीलपरी'👼

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  4. प्रीति और अतुल दोनों मेरे बेहतरीन मित्रों में से एक हैं.........इनको अवार्ड मिलना सुखद है ........दोनों को दिल से बधाई !!

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  5. अतुल भइया के लिए चंद लाइनें । जरूर पढ़ें

    मेरी कलम से । अतुल का नहीं , ये है देश का सम्मान http://ajaysoni1984.blogspot.com/2015/09/blog-post.html

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  6. अतुल जी और प्रीती जी को बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनायें!
    प्रस्तुति हेतु आपका आभार!

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