" वसन्ति अग्नि कण: जीवदायका। यस्मिन काले पदार्थेषु स: बसंत।"
यानी बसंत का अर्थ है खुशी, आशा, विश्वास, सकारात्मकता, मादकता और ज्ञानमयता ।
बसंत जहां एक तरफ खुशियों का प्रतीक है, वहीं यह दिन सर्दी जाने और पतझड़ खत्म होने पर हर तरफ बहार आने का संकेत भी देता है। हर तरफ खिले रंग-बिरंगे फूल अहसास दिलाते हैं कि नए साल के आगमन के बाद सब कुछ नया-नया है। हिंदी साहित्य में बसंत को श्रंगार रस व भक्ति रस में अनेक कवियों ने अपने-अपने तरीके से अपनी रचनाओं में सृजित किया है।
कवि हरिवंशराय बच्चन ने बसंत कुछ यू बयां किया है, बसंत दूत, कुंज-कुज कूकता। बसंत राज, कुज-कुज कूकता। पराग से सजी, सुहाग में जली। बसंत गोद में लखी, प्रकृति परी।
चाहे वे संस्कृति के महाकवि पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला रहे हों अथवा प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत......चाहे वह राष्ट्रकवि राम धारी सिंह "दिनकर" रहे हों अथवा मैथली शरण गुप्त सभी ने गाये हैं वसंत के गीत ..
वसंत के आगमन पर आचार्य सारंग शास्त्री कहते हैं कि-"आओ हम-तुम दूर करें अब अपनी -अपनी दूरी ....नव वसंत में भूल जाएँ हम निर्बलता मजबूरी ...!"
.......इसवार धुंध की चादर ओढ़े कंपकपाती सर्द में वसंत ने दस्तक दिया है ...
वसंत के आगमन पर आचार्य सारंग शास्त्री कहते हैं कि-"आओ हम-तुम दूर करें अब अपनी -अपनी दूरी ....नव वसंत में भूल जाएँ हम निर्बलता मजबूरी ...!"
.......इसवार धुंध की चादर ओढ़े कंपकपाती सर्द में वसंत ने दस्तक दिया है ...
आज से साढ़े तीन दशक पूर्व यही वह मौसम रहा होगा जब एक वीर रस के कवि की लेखनी से यह कविता फूटी होगी । आज के इस मौसम के अनुकूल साढ़े तीन दशक पूर्व लिखी गयी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह "दिनकर" की एक कालजयी कृति पर आईये दृष्टि डालते हैं -
!! जागरण : वसंत के प्रति शिशिर की उक्ति !!
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !
खोल दृग, मधु नींद तज , तंद्राल से , रूपसि विजन की,
साज नव श्रृंगार, मधु-घट संग ले, कर सुधि भुवन की,
विश्व में तृण-तृण जगी है, आज मधु की प्यास आली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!
वर्ष की कविता सुनाने खोजते पिक मौन भोले ,
स्पर्श कर द्रुत बौरने को आम्र आकुल बांह खोले,
पंथ में कोरकवती जूही खडी ले नम्र डाली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!
लौट जाता गंधवह सौरभ बिना फिर-फिर मलय को,
पुष्पषर चिंतित खडा संसार के उर की विजय की ,
मौन खग विस्मित- " कंहा अटकी मधुर उल्लास वाली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!
मुक्त करने को विकल है लाज की मधु-प्रीति कारा,
विश्व - यौवन की शिरा में नाचने को रक्तधारा,
चाहती छाना दृग में आज तजकर गाल लाली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!
है विकल उल्लास वसुधा के ह्रदय को फूटने को,
प्रात-अंचल-ग्रंथि से नव रश्मि चंचल छूटने को,
मद्य पीने को खड़े हैं भृंग लेकर रिक्त प्याली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!
इंद्र की धनुषी बनी तितली पवन में डोलती है,
अप्सराएं भूमि के हित पंख - पट निज खोलती है,
आज बन साकार छाना चाहते कवि -स्वप्न आली !
मैं शिशिर - शीर्णा चली , अब जाग ओ मधुमासवाली !!
() () ()....जारी है वसन्तोत्सव ...मिलते हैं एक छोटे से विराम के बाद......!
nice
जवाब देंहटाएंअब लगा कि बसंत दस्तक दे रहा है।
जवाब देंहटाएंआलेख का आभार ।
जवाब देंहटाएंवसंत के आगमन पर बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति के लिए फिर एकबार फिर आपको बधाईयाँ और आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर शब्द संयोजन और बेहतर कालजयी कृति का चयन ...अच्छा लगा .
जवाब देंहटाएंहम तो मस्त हो गए कविवर बच्चन और राष्ट्रकवि को पढ़कर .
जवाब देंहटाएंबसंत के उतसव पर सुन्दर प्रस्तुति।बच्चन जी और राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जी को पढ कर मन बसंत की तरह खिल उठा। धन्यवाद्
जवाब देंहटाएं