साहित्य समय की सीमाओं में कभी नहीं बंधता .वह तो शाश्वत होता है.१९२४ की इस साहित्यिक रचना को आज के परिवेश में केन्द्रित कर देखें . क्या  88  वर्ष पूर्व की धड़कनें आज आपके चतुर्दिक फैले परिवेश में नहीं धड़क रही है ? आज की बात को साढ़े आठ दशक पहले ही रचनाकार ने जिस अंत:दृष्टि से देख लिया था,वही अंत:दृष्टि शाश्वत साहित्य की-"संजय दृष्टि" है .................


वसंतोत्सव के अंतर्गत परिकल्पना पर फगुनाहट सम्मान हेतु लगातार ई-मेल पर रचनाएँ प्राप्त हो रही हैं . इस सन्दर्भ में आप सभी से मेरी विनम्र प्रार्थना है कि व्यंग्य -गीत-ग़ज़ल -दोहे - लघुकथा आदि जो भी भेजें वह छोटी हो , क्योंकि बड़ी रचना को स्थान देना संभव नहीं हो पायेगा .  कोशिश करें कि आपकी रचना ७ फरवरी तक अवश्य प्राप्त हो जाए . अभी कालजयी रचनाओं को प्रस्तुत किया जा रहा है जो फरवरी के मध्य तक चलेगा . उसके बाद हम आपकी रचनाओं को स्थान देंगे और यह क्रम फरवरी के अंत अथवा मार्च के प्रथम सप्ताह तक चलने की संभावना है . उसके बाद हर विधा से एक श्रेष्ठ रचना का चुनाव करते हुए उन्हें फगुनाहट सम्मान से नवाजा जाएगा , जिसके अंतर्गत प्रत्येक रचनाकार को १००१/- सम्मान राशि के साथ सम्मान पत्र प्रदान करते हुए उनके पते पर डाक से प्रेषित किया जाएगा .


     आज वसंतोत्सव के अंतर्गत हम प्रस्तुत कर रहे हैं राम नाथ लाल सुमन के एक ऐसे व्यंग्य जो लिखी गयी आज से साढ़े आठ दशक पूर्व और महाप्राण निराला के द्वारा प्रकाशित किया गया   "मतवाला " के १५ मार्च १९२४ अंक में---------------

!! हमारी तो बस होली !!

  • रामनाथ लाल "सुमन"

हाय ! वो भी एक दिन थे , जब इस शाश्यश्यामला भूमि पर दूध की धाराएं बहा करती थी , जब कालिंदी के कलित कलेवर में सुन्दर सरोजों की बाढ़ थी, जब सुरसरि का तट आनन्दोनमत मोरों और कोकिलों के कल-कूजन से गूँज उठता था . उसके बाद - वे भी एक दिन थे , जब मेखालाधारी ऋषिओं की  'तत्वमसि'  ध्वनि से वायुमंडल में प्रकंपन होता था , वे भी एक दिन थे , जब योद्धाओं के भयंकर हुंकार से मेदिनी काँप उठाती थी, ऊपर निचे होने लगती थी . और सुनोगे - वे हमारे ही दिन तो थे , जब एक साधारण योद्धा ने स्वयं भगवान को ही ललकार कर कहा था -" सूच्यग्र न दास्यामि विना युद्धे न केशव !"

और सुनना चाहते हो ? नहीं, जाने दो, गुलामी की चक्की के गहुओं ! अपनी कायरता की कहानी सुनकर क्या करोगे? उधर से आंख ही फेर लेना अच्छा है . जिनकी आँखों के सामने से , अभागे अशांत विश्व का त्राता,महात्मा ईशा की पवित्र वाणी से संसार को कंपा देने वाला , शान्ति का उपासक , तपस्वी - अशांति फैलाने के अपराध में - देखते-देखते छीनकर जेल की कोठरी में धकेल दिया गया हो , किन्तु ईश्वरेच्छा कहकर पिंड छुडाने में जिन्हें ज़रा भी लाज न आई हो , उन्हें उनकी मर्यादा सुनाना क्या और न सुनाना क्या ? जीवन में ही मरे हुए हम अभागे गुलामों की संतान हमारे नाम अपने मुंह पर किस हौसले से लावेगी ?

हाँ, तो उस समय भी हम होली खेला करते थे और आज भी खेलते हैं - पर उस समय अपने ह्रदय के आनंदोल्लास में डूबकर , प्रेम रंग में सराबोर होकर खेलते थे और आज रोकर, अपना कलेजा मसोसकर खेलते हैं . उन दिनों भी हम होली मनाते थे , जब हमारे बनाए हुए दिव्य मलमल से यूरोप की नवोढा युवतियों का श्रृंगार होता था और आज भी होली खेलते हैं , जबकि हमारी बहुएं वस्त्राभाव से गीली धोती पहने हुए उसके छोर सुखाकर दिन बिताती हैं . तब भी हम होली खेलते थे जब रुपयों के मनो अन्न मिलते  थे और आज भी मनाते हैं जबकि वामन किये हुए अन्न को धो-धोकर खाने वालों की कमी नहीं है !!! हमारी वेशर्मी पर , हमारी बेगैरती पर , भले ही लोग थूका करे , हंसी उडाये , आवाजें कसे, किन्तु हम अभागे जीव सुनते कब हैं ?

आज नारद की वीणा ध्वस्त हो चुकी है . हमारा संगीत भंग की धारा में बह गया है . हमारी लाज कुल बंधुओं की ओर झांकते-झांकते दूर हो गयी है . होली का संजीवनोत्पादक पवित्र प्रेम वेश्याओं के मुखड़े तक ही ख़तम हो रहा है . हमारी पवित्र जिह्वा दूसरे को गंदी गालियाँ सुनाकर तृप्ति लाभ करती है . विदेशी गुलाल और चकचकाती हुयी    अद्धी के कुरते , शत-शत विधवाओं की आहों को कुचलकर , पहने जाते हैं . हमारी ऐंठ , अपने सेवकों तक ही समाप्त हो जाती है . हम अपने नाच-रंग , खुशी-मुजरे और भंगभावानी की उपासना में यह सोचकर कभी खलल नहीं डालना चाहते कि हमारे ही घर के दस करोड़ भाईयों  के पेट में मुश्किल से एक समय चारा पड़ता है .  आज यही हमारी होली है! हम अभागों को कौन बतावेगा कि ये आंसू हर्षातिरेक में उमड़े हुए ह्रदय के मोती है वा कलेजे को चीरकर दो  टूक कर देने वाली  निगूढ़ -क्रंदन-ध्वनि के अशक्त और मौन दूत ...!

( मतवाला, वर्ष-१, अंक-३०, १५ मार्च १९२४ से साभार )
जारी है वसंतोत्सव , मिलते हैं एक छोटे से विराम के बाद ...!

4 comments:

  1. अति सुन्दर प्रस्तुति, निश्चित रूप से आपका हर कार्य प्रशंसनीय होता है . साढ़े आठ दशक पूर्व की यह रचना आज की रचना हो ऐसा महसूस हो रहा है , आपका आभार !

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  2. बहुत ही सुन्दर परिकल्पना !

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  3. इन कालजयी रचनाओं की प्रस्तुति का आभार ।

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  4. विगत में ले जाने के लिये धन्यवाद।

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