हजार पे सिर्फ आठ सौ छियासठ लडकियां... ये आंकड़े है हमारे देश की राजधानी के... वैसे इसके कई कारण हो सकते है... पर सबसे बड़ा कारण है भ्रूण हत्या.... अब आप लोग ये मत सोंचने लगना कि मैं भ्रूण-हत्या जैसे गंभीर विषय पर अब कोई आलेख-वालेख लिखूंगा. भाई अपना ऐसा कोई इरादा नहीं है. वैसे भी अपना स्टायल अलग है. सीरिअस बातें अपने पल्ले नहीं पड़ती. सीधी बात को सीधे तरीके देखता हूँ...


हजार पे सिर्फ आठ सौ छियासठ लडकियां.... मतलब एक सौ चौतीस लड़के बेचारे अकेले... (भाई मैं तो इसमें आने से बच गया और भला हो मेरे माँ-पापा का जिन्होंने मेरे लिए इतने कम संख्या में बची लड़कियों में से एक ठीक-ठाक सी लड़की ढूंढ़ दी, सगाई भी हो गयी है और शादी भी हो ही जाएगी)... भाई चिंता तो मुझे इन बचे एक सौ चौतीस लड़कों की है... इन के लिए मेरे पास कुछ आप्शन है... (कॉपीराईट नहीं है, आपलोग इस्तेमाल कर सकते है)
१. आप लोग आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन शुरू कर दें, और देश के प्रति अपना योगदान दे.
२.  ब्रह्मचर्यता अपनाना अगर आसान नहीं हो तो आप लोग समलैंगिक बन सकते है.
३. गे बनकर अगर सामाजिक और पारिवारिक समस्या आ रही है तो फिर कोई आप्शन नहीं सिवाय अकेले जीवन जीने के.

मुझे कुछ बातें समझ में नहीं आती. लोग बेटी के पैदा होने के पहले ही उन्हें मार देते है. क्या उन्हें ये नहीं लगता कि अगर लड़की न होती तो वो कहाँ से आते? किसी टेस्ट-ट्यूब से हो सकते थे... इस में जिम्मेदार सिर्फ पुरुष ही है ऐसा नहीं है, पुरुषों से ज्यादा जिम्मेदार और कसूरवार महिलाएं है. बहु को बेटा ही हो इसके लिए रोज-रोज उनको याद दिलाया जाता है जैसे बेचारी बहु कोई बच्चा पैदा नहीं कर रही बल्कि रोटी बना रही हो कि खुद से डिसाइड कर ले... अच्छा ऐसी सासों का भी अच्छा झमेला है, बहु अगर बेटी जन्म दे दे तो फिर लग गए बहु के.. पर इन्ही के बेटी को अगर बेटी हो जाये तो ख़ुशी परवान चढ़ने से खुद को रोक नहीं पाती... इनकी बेटी की सास अगर इनकी बेटी को बेटी होने के लिए कोसे तो बस इनकी बेटी की सास हो गयी इस दुनिया की सबसे दकियानुस और बुरी औरत. भले ये खुद अपनी बहु का जीना हराम कर दें...

खैर किसे समझाए और कैसे समझाए... कसूर सिर्फ ऐसे माँ-बाप का नहीं है जो अपने ही हिस्से को जन्म से पहले ही काट के फ़ेंक देते है. इन सबसे बड़ा कसूर हमारे समाज का है. लड़की के पैदा होते ही माँ-बाप के मन में सिवाय डर के और कुछ आता भी नहीं होगा. समाज की जो हालात है हर माँ-बाप अपनी बेटी को घर से बाहर भेजने से डरता है. जब तक वो घर से बाहर रहती है तब तक न जाने कितने ही भगवानों को धर्म-निरपेक्ष बन के याद कर लेता है. किसी तरह डर-डर के समाज के बुरी नजर से बचा कर बड़ा कर लेता है तो समस्या आती उसे किसी और को सौंपने की. एक और डर के साथ कि वो इंसान उनकी बेटी को खुश रखेगा या नहीं. और वो इंसान उनकी बेटी को अपनाने भर के लिए लाखों की डिमांड कर लेता है और मजबूर माँ-बाप अपने औकात से बाहर जा के उसकी हर डिमांड इस उम्मीद पे पूरा करते है कि उनकी बेटी खुश रहेगी.

पर वो माँ-बाप ये कैसे भूल जाते है कि उनकी बेटी उनके साथ ज्यादा खुश रह सकती है. किसी लोभी व्यक्ति के हाथ अपने टुकड़े को सौपने से बेहतर तो मेरे ख्याल से उसे अपने दायरे में रखना ज्यादा उचित है. पर यहाँ भी समाज चीखें मार-मार के लड़की को घर से जल्दी से जल्दी निकाल देने के लिए उलाहने देने लगेगा. मुझे ये समझ में नहीं आता है कि बेटी किसी की, खिलायेगा उसका बाप फिर ये साले समाज को क्या तकलीफ होती है.... उस वक़्त ये समाज क्यों सामने नहीं आता जब दहेज़ के कारण लडकियां घर बैठने को या फिर मजबूरी में किसी का भी हाथ थामने को मजबूर रहती है? उस वक़्त क्यों नहीं आता जब लड़कियों की हालात उन्ही के ससुराल में खराब कर दी जाती है? उस वक़्त समाज क्यों नहीं आता सामने जब लड़की को या तो दहेज़ के नाम पे मार दिया जाता है या वो खुद को मार देती है? समाज देख नहीं सकता अगर कोई लड़की अपने पिता के साए में अपनी माँ की ममता के साथ अपने भाई-बहनों के प्यार के साथ अपने घर में खुशियों से जिए... भले वो अपने ससुराल में सास-ससुर की गालियाँ, ननद-देवर के ताने और अपने ही पति की हर रात ज्यादतियां सहे...

अगर ऐसे डर के साथ कोई भी माँ-बाप पैदा होने से पहले अपनी बेटी को मार देना चाहता है तो कोई गुनाह नहीं करता है वो... मैं तो कहता हूँ समाज जिस दिशा में आगे बढ़ रहा है वहां हर माँ-बाप को किसी को भी पैदा करने से पहले सौ बार अच्छी तरह से सोंच विचार लेना चाहिए...

मैं तो जल्द ही दुनिया का विनाश देख रहा हूँ पता नहीं आप सब क्या कर रहे है...

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