बात कोई बीस-बाइस साल पुरानी होगी। लंच टाइम में कुछ लोग भोजन कर रहे थे तो कुछ चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे और कुछ अखबार पढ़ रहे थे। एक साहब ज़ोर-ज़ोर से समाचार पढ़-पढ़कर भी सुना रहे थे। उन्होंने एक समाचार पढ़कर सुनाया कि कुछ लोगों ने एक महिला के साथ छीना-झपटी और बलात्कार किया। समाचार सुनाने के बाद उसने दाँत फाड़ दिए। ‘‘ये औरतें होती किसलिए हैं? छीना-झपटी और मज़े लेने के लिए ही तो होती हैं’’, ये कह कर एक अन्य व्यक्तित्वहीन श्रोता ने अपनी टिप्पणी दी और बेहयाई से उसने भी दाँत फाड़ दिए।

     मैं उबल पड़ा और प्रतिवाद किया लेकिन उनकी बेहयाई जारी रही। मैंने कहा कि यदि उस महिला की जगह तुम्हारी बहन या पत्नी होती तो क्या फिर भी इसी तरह दाँत फाड़ते? ‘‘हमारी बहन क्यों होती तेरी बहन नहीं होती’’, एक ने निर्लज्जापूर्वक उत्तर दिया। बात इतनी बढ़ गई कि नौबत हाथापाई तक जा पहुँची। दस-बारह लोग थे। सभी लोग शिक्षित थे जिनमें से ज़्यादातर एमए बीएड अथवा बीए बीएड थे। और हम सभी जिस अत्यंत सम्मानित पेशे से संबंधित थे आप अवश्य ही समझ गए होंगे। कुछ तटस्थ थे और बाक़ी सभी ने मुझे दोषी ठहराया।

     वो सब एक हो गए थे और एक सज्जन ने मुझे धमकी भरे अंदाज़ में कहा कि हम सब तेरा सामाजिक बहिष्कार कर देंगे। मैंने कहा कि तुम क्या मेरा सामाजिक बहिष्कार करोगे मैं ही तुम सब का सामाजिक बहिष्कार करता हूँ। और सचमुच लंबे समय तक सामाजिक बहिष्कार का ये सिलसिला चला। बाद में सब कुछ सामान्य सा हो गया लेकिन उनकी मानसिकता को न तो मैंने उस समय सही माना और न आज ही मानता हूँ।

     16 दिसंबर 2012 की हृदयविदारक सामूहिक बलात्कार की झकझोर कर रख देने वाली घटना आप भूले नहीं होंगे। इस घटना के बाद मेरे पास कई प्रबुद्ध मित्रों के फोन आए कि मैं इस घटना पर अवश्य ही अपने विचार प्रकाशित करवाऊँ। जब भी मैं 16 दिसंबर 2012 की घटना के बारे में सोचता तो उपरोक्त वही बीस-बाइस साल पुरानी घटना मेरी आँखों के सामने आ जाती। क्या हमारी ऐसी ही मानसिकता और उत्तरदायित्व के अभाव का परिणाम नहीं हैं आज आम हो चुकी बलात्कार की घटनाएँ?

     हमने क्रूरता की शिकार नवयुवती को बहादुर लड़की का खिताब दिया। उसकी मृत्यु को शहादत का दर्जा दे दिया। न केवल एक बेबस, लाचार युवती की अस्मिता को कुचला गया है अपितु उसके शरीर को भी रौंदा और कुचला गया है जिससे उसकी मौत तक हो गई लेकिन इसमें शहादत कैसी? एक पीडि़ता व मृतका के लिय नए-नए विशेषण गढ़ कर अथवा पुरस्कार स्थापित करके हम आखि़र सिद्ध क्या करना चाहते हैं? एक मज़्लूम अथवा नृशंसता की शिकार युवती की मौत को महामंडित कर कहीं हम अपनी चरित्रहीनता, कर्तव्यहीनता, अयोग्यता अथवा विकृत मनोग्रंथियों को छुपाने का प्रयास तो नहीं कर रहे हैं?

     इंडिया गेट पर जाकर मोमबत्तियाँ जलाना सरल है। हालांकि इंडिया गेट पर जाकर मोमबत्तियाँ जलाकर ग़लत का विरोध करना अथवा न्याय की मांग करना बुरा नहीं लेकिन उससे अच्छा है जहाँ भी ग़लत बात दिखलाई पड़े उसका विरोध किया जाए चाहे उसमें हमें परेशानी ही क्यों न उठानी पड़े। ऐसी घटनाओं के लिए वास्तव में हम सब दोषी हैं। सरकार और प्रशासन ही नहीं दोषी है पूरा समाज। दोषी है हर शख़्स। माना कि यह कुछ लोगों का वहशीपन है लेकिन हमारी नैतिकता को क्या हुआ? हमारी सतर्कता को क्या हुआ? हम सबकी कुछ जिम्मेदारियाँ होती हैं उनका क्या हुआ?

     एक बात और और वो ये कि जब हमारे अपने नज़दीकी लोग कोई ग़लत कार्य करते हैं तो हम न केवल तटस्थ बने रहते हैं अपितु उन्हें बचाने की कोशिश में जी-जान से लग जाते हैं। क्या व्याभिचार अथवा उत्पीड़न में लिप्त अपने किसी रिश्तेदार अथवा मित्र का हमने कभी विरोध या बहिष्कार किया? क्या अपने बच्चों विशेष रूप से बेटों के ग़लत आचरण को लेकर उनकी भत्र्सना की, उन्हें सुधारने के लिए कभी भूखे-प्यासे रह कर सत्याग्रह किया? किया तो अच्छा है क्योंकि इसी के अभाव में पनपते हैं सारे विकार।

     इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर अत्यंत न्यायप्रिय व प्रजावत्सल शासक हुई हैं। युवावस्था में ही पति की मृत्यु हो गई थी। उनका एक मात्र पुत्र था भालेराव होल्कर। वह अत्यंत उद्दण्ड हो चला था। युवा लड़कियों के साथ छेड़छाड़ और जबरदस्ती करना उसके लिए सामान्य सी बात हो गई थी। अहिल्याबाई को जब अपने पुत्र की इन करतूतों का पता चला तो उसने उसे सार्वजनिक रूप से हाथियों के पैरों तले पटकवा दिया जिससे हाथी उसे कुचल सकें और उससे सबक़ लेकर कोई भी पुरुष किसी महिला से अभद्रता दिखाने का साहस न कर सके। अपनों की ग़लती पर सज़ा देना तो दूर हम अपने विकृत मनोभावों से छुटकारा पाने तक का प्रयास नहीं करते। 

     वहशीपन अनैतिकता व अपराध है लेकिन तटस्थता भी कम अनैतिकता व अपराध नहीं। ये कुछ लोगों का वहशीपन हो या हमारी तटस्थता अथवा सरकार व प्रशासन की लापरवाही इन सबके पीछे भी कुछ कारण हैं और वो हैं सही शिक्षा, संस्कार व नैतिक मूल्यों का अभाव। तटस्थता व नैतिक मूल्यों के अभाव में इस समस्या का समाधान सरल नहीं। आज हम किसी को सार्वजनिक रूप से हाथियों के पैरों तले तो नहीं कुचल सकते लेकिन अपराधियों को कठोर दंड तो दिया जा रहा है। अपराधियों को मृत्युदंड के बावजूद ये सिलसिला थम नहीं रहा है तो इसका यही कारण है कि अपराध के बीज हमारी सोच में हैं। उस विकृत सोच को कुचलना अथवा मानसिकता को बदलना ज़रूरी है।

     यदि हम स्वयं अपनी और दूसरों की मानसिकता बदलना चाहते हैं और वहशीपन से समाज को छुटकारा दिलाना चाहते हैं तो आज ही और सदैव ही यही संकल्प कीजिए और करवाइए:

मैं न केवल स्वयं किसी पर अत्याचार नहीं करता अपितु दूसरों द्वारा किए गए अत्याचार को भी नज़रअंदाज़ नहीं करता।
मैं जहाँ भी अत्याचार होते देखता हूँ अपनी आवाज़ उठाता हूँ।
शोषण व उत्पीड़न के विरुद्ध मैं तत्क्षण आवाज़ उठाता हूँ।
शोषण, अत्याचार व उत्पीड़न के विरुद्ध मैं तटस्थ होकर शोषक, अत्याचारी व उत्पीड़क के विरुद्ध आवाज़ उठाता हूँ।

() सीताराम गुप्ता
ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा,
दिल्ली-110034
फोन नं. 09555622323
Email: srgupta54@yahoo.co.in

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