सालों बाद देखा है

धनपतिया को आज

धुप की तमतमाहट से कहीं ज्यादा

उग्र तेवर में

भीतर-भीतर धुआंती

जीवन के एक महासमर के लिए तैयार ।

महज दो-तीन सालों में

कितना बदल गयी है वह

भड़कीले चटख रंगों की साडी में भी

अब नहीं दमकता उसका गोरा रंग

बर्फ के गोले की तरह

हो चले हैं बाल

और झुर्रियां

मरुस्थल के समान बेतरतीब ।

पहले-

बसंत के नव-विकसित पीताभ

नरगिस के फूलों की तरह

निर्मल दिखती थी धनपतिया

हहास बांधकर दौड़ती

बागमती की तरह अल्हड़

आसमानी रंग की साडी में

उमगती जब कभी

पास आती थी
बेंध जाती थी देह का पोर-पोर

अपने शरारती चितवन से ।

अब पूछने पर

कहती है धनपतिया-

बाबू !

औरत होना पाप है पाप....

कहते-कहते लाल हो जाता है चेहरा

तन आती है नसें

और आँचल में मुँह छुपाकर

बिफरने लगती है वह

नारी के धैर्य की

टूटती सीमाओं के भीतर

आकार ले रही

रणचंडी की तरह !

() रवीन्द्र प्रभात

5 comments:

  1. आज के समय मे यह कह ही सकते है कि औरत होना पाप है जो पुरुष को जन्म तो देती है लेकिन ममता में अन्धी हो कर उसे मानव की बजाय दानव बना देती है या बन जाने देती है. चण्डी बन कर ही अपना भय दिखाना होगा और नर को सही राह पर चलाना होगा. (कुछ अपवाद हैं उन माताओं को प्रणाम जिनके कारण कुछ पुरुष देव बन गए.)

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  2. कविता अच्छी लगी ।
    घुघूती बासूती

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  3. कविता कई देखे - पढ़े चरित्र मन में कौंधा गयी। यही उसकी सफलता है। धन्यवाद।

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  4. नारी के धैर्य की

    टूटती सीमाओं के भीतर

    आकार ले रही

    रणचंडी की तरह !


    बहुत अच्छी लगी ये पंक्तियाँ।

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  5. हृदय स्पर्शी कविता
    दीपक भारतदीप

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