कल एक समाचार चैनल पर यह बार-बार प्रदर्शित किया जा रहा था, कि ईराक में तैनात ब्रिटिश सैनिकों को गीता का पाठ पढाया जा रहा है , उन्हें जीवन और मृत्यु के साथ-साथ शरीर और आत्मा की सच्चाईयों से रू-ब-रू कराया जा रहा है । इसे विडंबना ही कहेंगे कि भारतीय धर्म -ग्रंथों की सदैव उपेक्षा करने वाली ब्रिटिश सेना को आज अपने सैनिकों के टूटते आत्मबल को बचाने की जद्दोजहद के बीच याद भी आयी तो भारतीय धर्म ग्रन्थ की । इराक के सैनिक शिवरों में गीता का पाठ पढाने हेतु हिन्दू धर्म पुरोहितों की न्युक्ति भी की गयी है , यह हमारी विरासत के लिए एक ऊर्जादायक बात है।
यद्यपि विदेशों में हमारे धर्म ग्रंथों को महत्त्व देने की यह पहली कोशिश नही है , ऐसे मौके कई बार आए हैं जब अवसाद के शिकार विदेसियों को हमारी संस्कृति ने शांति, सुख, संतुष्टि प्रदान की है। मगर इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि जिस ग्रन्थ को विदेशों में इतना तबज्जो दिया जा रहा हो उसी ग्रन्थ को हमारे देश में साम्प्रदायिकता से जोड़कर देखा जाता है। विगत दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक वक्तव्य आया था कि गीता कोई धर्म विशेष का ग्रन्थ नही अपितु राष्ट्रीय ग्रन्थ है , हालांकि इसे राजनीतिक रंग दे दिया गया और इसे खारिज करने में कोई कसर नही छोडा गया । वैसे इसमें क़ानून मंत्री की भुमिका विवादोंमुखी रही है, किंतु महान्यायवादी के कथन एवं जन सम्मति से " सत्यमेव जयते" की पुष्टि हुई है ।
खैर इन राजनीतिक पचड़ों में पड़ने से क्या फायदा ? जहाँ अंधेर नगरी हो और चौपट राजा हो, वहा भाजी और खाजा में क्या फर्क, सब टेक सेर .....! जहाँ तक मेरी अपनी व्यक्तिगत राय है , मैं धार्मिक ग्रंथों को सेकूलर-विजन से देखता हूँ, क्योंकि यदि न्याय पूर्वक अध्ययन किया जाए तो कोई भी धर्म ग्रन्थ किसी अन्य धर्म पर आक्रमण या अतिक्रमण नही करता है। यही हमारे संविधान में मुझे जितना ज्ञात है " सेकूल्रिज्म" की परिभाषा है । यदि गीता को " राष्ट्रीय शास्त्र" की संज्ञा दी जारही है तो इस सन्दर्भ में न कोई अतिश्योक्ति होनी चाहिए और न कोई शक की गुंजाइश ही । क्योंकि इसी ग्रन्थ ने सत्य मेव जयते का शंखनाद कर एक सुंदर और खुशहाल सह-अस्तित्व की परिकल्पना को मूर्तरूप देने का वचन दिया था। आज जिस अशप्रिशयता को लेकर यूं पी की मुख्यमंत्री और कॉंग्रेस के बीच तू तू मैं मैं हो रही है , दोनों को मेरी राय है कि गीता पढो सब समझ में आ जायेगा ...!
श्री कृष्ण में कभी कोई संकीर्णता शेष नही थी। बालक अवस्था में ग्वालों के संग लीला से लेकर योग दर्शन की कुशल शिक्षाओं में उनकी दृष्टि समदर्शी ही रही है । इसकी एक बानगी देखें-
" विद्याविने सम्पन्ने ब्राह्मने गावी हस्तिनी !
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदार्शिनी:!! ५!!"
श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! इस जगत में पंडित अर्थात ज्ञानी व्यक्ति विद्या एवं विनम्रता से युक्त ब्राह्मण में, गाय में, हाथी, कुत्ते और चांडाल में समदर्शी होते हैं ।
इस विचार को क्या गांधी जी के " अश्प्रिश्यता अपराध है" विचार से सम्बद्ध नही मान सकते । इसकी न्याय पूर्वक व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि जो भेदभाव करता है, वह विद्वान तो नही हो सकता चाहे और कुछ भी हो। यह क्या आज के समाज में प्रासंगिक नही है? समभाव की महत्ता को इंगित करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि-
" इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितन मन: !!
निर्दोषण ही सम ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मानी ते स्थिता: !!"
अर्थात जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया, क्योंकि परमात्मा निर्दोष है सम है और वह परमात्मा में ही स्थित है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सभी प्राणियों में ईश्वरीय शूक्ष्म तत्व का निवास है।
बिना कर्म के संन्यास भी अप्राप्य -
यद्यपि संन्यास का अर्थ लिया जाता है जिसने सांसारिक विषयों का मन-वचन-कर्म से पूर्णत: परित्याग कर दिया है तथापि कृष्ण कहते हैं-
" संन्यासस्तु महाबाहो दु:खाप्तुमयोगत: !
योगयुक्तो मुनिब्रह्म नाचिरिनाधिग्च्छाती !!"
हे अर्जुन ! कर्मयोग के बिना संन्यास ( मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग ) प्राप्त होना कठिन है और मुनि ( भगवान् के स्वरूप का मनन करने वाला) और कर्मयोगी परब्रहम परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है । तात्पर्य है व्यक्ति को सं न्यस्त होने पर भी अपने कर्म का त्याग नही करना चाहिए प्रत्युत किए गए कार्य में " मैंने किया है" इस भाव का लेश मात्र भी प्रवेश नही होना चाहिए । अर्थात कार्य में समग्र रूप से भागवतसमर्पण होवें ।
मनुष्य स्वयं ही मित्र और स्वयं ही शत्रु
श्री पार्थसारथी गीता में कहते हैं कि मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु है, जब वह अपने मन, इन्द्रियों समेत शरीर के सामने घुटने टेक देता है तो वही मनुष्य उसी प्रकार दु:खों से दु:खी रहता है जिस प्रकार शत्रुओं द्वारा सताया जाता हुआ मनुष्य ।
" बन्धुरात्मंस्त्स्य येनात्मैवात्मना जित: !
अनात्मंस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत !!"
अर्थ है कि जिस जीवात्मा द्वारा मन, इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का मित्र वह स्वयं ही है और जिसके द्वारा मन इन्द्रियों सहित शरीर नही जीता गया है उसके लिए वह स्वयं ही शत्रु के सदृश है।
अर्थात यदि अपना सच्चा और सदा सानिध्य रखने वाला मित्र खोजना है, तो अपने मन और इन्द्रियों एवं शरीर को जीत लो, आप पायेंगे अपने ही अन्दर अपने मित्र को और वह मित्र आपको लेशमात्र भी दु:ख नही पहुँचायेगा , साथ ही चिरानंद का संचार करेगा ।
क्या आज के भागमभाग भौतिकवाद के युग में यह एक सटीक मन्त्र नही है सुख का ?
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भग्वद्गीता को सदैव नये सन्दर्भों में अर्थ दिये जा सकते हैं। आपने बहुत सुन्दर लिखा है।
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा पढ़कर ...धन्यवाद रवीन्द्र जी
जवाब देंहटाएंरविन्द्र जी ,शुक्रिया ये सब बाँटने के लिए......
जवाब देंहटाएंब्लागर दुनियाँ में दर्शन कुछ पिछे रहा है…
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद आपकी रचना का आनंद लिया है…
यह मात्र रचना नही है… प्रायोगिक गीता ज्ञान है…।