सजते हैं वन्दनवार हमारे भी द्वार पर
और हम-
माटी के लोथडे की मानिंद
खड़े हो जाते हैं भावुकता की चाक पर
करते हैं बसब्री से इंतज़ार
किसी के आने का .....!
कोई न कोई अवश्य आता है मेरे दोस्त
और ढाल जाता है हमें -
अपनी इच्छाओं के अनुरूप
अपना मतलब साधते हुए
शब्जबाग दिखाकर .....!
उसके जाने के बाद -
टूटते चले जाते हैं हम
अन्दर हीं अन्दर
और फूटते चले जाते हैं थाप-दर-थाप
अनहद ढोल की तरह .....
यह सोचते हुए , कि-
" वो आयेंगे वेशक किसी न किसी दिन , अभी जिंदगी की तमन्ना है बाकी ......!"
()रवीन्द्र प्रभात
और फूटते चले जाते हैं थाप-दर-थाप
जवाब देंहटाएंअनहद ढोल की तरह .....
यह सोचते हुए , कि-
" वो आयेंगे वेशक किसी न किसी दिन , अभी जिंदगी की तमन्ना है बाकी ......!"
bahut sahi farmaya,bahut badhiya
बन्दनवार लगने लगे हैं। देखिये क्या होता है!
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