मैं अनिल जी के चौखट पर कई बार गया ... भावनाएं थीं , पर बाड़ नहीं लगे थे... हवाएँ थीं , नमी थी पर सिंचन में कमी थी .... आज कुछ विराम के बाद मैं वहाँ गया और देखा फसलों में एक अंकुरण है , जो कह रहे हैं ' देर है अंधेर नहीं '... आइये मेरी सच्चाई का आकलन कीजिये ,

मैं कहता हूँ ...

लोग कहते हैं... क्यूँ
बेतरतीब सा रहा करते हो?
लोग अपने संग हुजूम ज़माने सा लगाते हैं
तुम क्यूँ दोस्त बनाने से डरते हो ?
मैं कहता हूँ - मैं खुश न रहूँ खुद से तो न !

कहा करते हैं सब
अंडर सेट्स कपडे क्यूँ नहीं पहना करते तुम ?
शकल अच्छी न सही, कम से कम
लोगों की नक़ल तो ठीक से कर लो
मैं कहता हूँ - नक़ल तो कर लेता मगर मैं, मैं बचूं तो न

अक्सर झेलनी पड़ती है
तमाम मेरी आदतों की खिलाफत
घर से बाहर तक
क्यूँ ये नहीं, क्यूँ वो नह ?
मैं कहता हूँ मैं ऐसा ही हूँ

लोग उदहारण दिया करते हैं लोगों की ..
सुझाव बहुत सारे
हर वक़्त मेरे कानों की चैन छीन लिया करते हैं
मैं कहता हूँ मैं ठीक हूँ जो ..
अभी की तरह नहीं हूँ
कम से कम जो हूँ.. वो दीखता तो हूँ ..
घिन आती है रंगे सियारों से
सफेदपोशों की दकियानूसी विचारों से

मुझे रहने दो मुझ सा ही
मैं बहुत खुश हूँ मैं जैसा भी हूँ..
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कलम मेरी..

रोज चलती है कलम मेरी
तेरी ही वजह सिर्फ
तय करके चंद रास्ते मगर
कलम मेरी
ठिठक जाती है, ठहर जाती है

गर.. किस्सा शुरू करता हूँ कोई और
लिखने को सिर्फ
नई एक दास्ताँ पूरी भी नहीं होती
एक अधूरी दास्ताँ.. पूरी की पूरी
आँखों से होकर गुजर जाती है

फिर ....
कलम मेरी सहमकर..
ठिठक जाती है, ठहर जाती है

कुछ नया खुशनुमा
रचना चाहती है मेरी कलम
तरस जाती है खुशियों को
नहीं मिलती चाहकर भी

स्याही की औकात कहाँ ?
कागजों पर आंसुओं की
बेतरतीब बूँदें उभर जाती हैं

फिर .....
कलम मेरी सहमी सी
किसी कोने में रहती है घंटों
कोशिश करता हूँ मनाने को
मगर लिखने को मुकर जाती है

और भी रोता हूँ
जब लिख नहीं पाता
जब कलम मेरी डर जाती है
आदतों के खिलाफ...
कलम मेरी ठहर जाती है
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मुझे कवि न समझे..

नन्हीं सी हाथों में
पकड़ कर कलम करची की
लिखा पहला कौन सा अक्षर, ख्याल नहीं

मगर याद है.. तब भी, अब भी
महज खुश करने को नहीं
अपनी अभिव्यक्ति में
नए रंग भरने को भी
शब्दों को सुरमयी बनाने की कोशिश की हमने

गीत बनी या गजल,
कागज़ की आयतों पर
कीचड दिखी या कमल
ये तो सौदागर जाने शब्दों के

मैं तो वही लिखता हूँ बस
जो मेरी यादों में बसी जाती है
बयां वही करता हूँ हर्फों की दुआ से
जा कभी बनके कहानी
मेरी आँखों से बही जाती है

टिमटिमाते दूर गगन में ओझल सा
तारा हूँ मैं तारा...
कोई मुझे रवि न समझे

अभिव्यक्तियों के लिए बहुत ही कम
शब्द भटकते हैं मेरे पास
बस समझ लेता हूँ सबों की
और कह लेता हूँ खुद की बेसुर होकर
आवारा हूँ मैं आवारा...
कोई मुझे कवि न समझे..

अनिल अवतार
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11 comments:

  1. सचमुच अद्भुत रचनाओं की श्रृंखला श्रृंखला है यह, अच्छी -अच्छी कविताओं से परिचय हुआ ....यह परिकल्पना वाकई अद्भुत,अद्वितीय और अतुलनीय है, रवीन्द्र जी,अविनाश जी और रश्मि जी को बधाईयाँ ब्लॉगोतसव को नया मुकाम दिलाने हेतु !

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  2. वाह बहुत खूब..सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक हैं बधाई के साथ शुभकामनाएं

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  3. आपने सही कहा, यहाँ है रचनाओं का विस्तृत आकाश !

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  4. टिमटिमाते दूर गगन में ओझल सा
    तारा हूँ मैं तारा...
    कोई मुझे रवि न समझे.....!

    वाह बहुत खूब..सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक ..!!

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  5. व्वाह!! बहुत खुबसूरत रचनाएं हैं अनिल जी की..
    सादर बधाई एवं आभार...

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  6. अनिल जी कि रचनाओं से परिचित कराने का बहुत बहुत शुक्रिया

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  7. अनिल जी के ब्लॉग कि किसी भी पोस्ट को क्लिक करने पर रश्मि प्रभा जी का ब्लॉग खुल रहा है ... अलग से उनकी कोई पोस्ट कैसे खोलें ?

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  8. अनिल जी की कविताओं में अनगढ़ ही सही अपना अंदाज है . कच्ची अमिया सा तेज . थोड़ी देर डाल पे रहे तो बड़े मीठे आम होंगे ये.

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