चिंतन का अस्तित्व व्यापक है , बिना चिंतन मार्ग चयन संभव नहीं .... व्यंग्य हो आवेश हो .... पर चिंतन हो , समय यानि मैं तभी बदलता हूँ !
मुखातिब हों आशुतोष जी के इस चिंतन से और देखिये बातों में आग कितनी है, उसकी आँच कितनी है !
अपने बच्चों को सुनाओगे ये लोरियां भी क्या
अपने बच्चों को सुनाओगे ये लोरियां भी क्या
अपने बच्चों को सुनाओगे ये कहानियां भी क्या
अपने बच्चों को कैसे भला बहलाओगे यहाँ
हाल बिगड़े हुए देश के सुनाओगे भी क्या
कैसे कहोगे के बच्चों ये सूनी जागीर है
कंचन वाली धरती हो गयी बच्चों फकीर है
कैसे कहोगे ये सीने पे हाथ रखकर
देखो बेटा कैसी प्यारी ये तस्वीर है बच्चों
पेड़ के तले लेती हुई तस्वीर शेर की
जंगल होते थे कभी ये जागीर शेर की
हमने अपने लिए जंगलों को काट लिया था
पत्ता जड़ तना शाख सब बाँट लिया था
और सजाने के लिए ड्राइंग रूम घर का
हमने जंगल के राजा को भी मार दिया था
देखो बेटा तस्वीर मस्त मौला हाथी की
मस्त मौला हाथी की मस्त मौला साथी की
हमने इनके दांतों से अपना श्रंगार किया था
इनके दांतों के लिए ही इन्हें मार दिया था
देखो बेटा तस्वीर अब गेंडा बिशाल की
बोली लग गयी थी कभी यहाँ इनकी खाल की
इसके सींग ने इसे ही बर्बाद कर दिया
भोले -भाले जीव को यहाँ तबाह कर दिया
देखो बेटा सैकड़ों हैं ये तस्वीरें तभी की
भालू चीता बाघ लोमड़ी लंगूर सभी की
हमने इनकी खालों से अपना श्रंगार किया था
इन्हें मारा काटा इनका व्यापार किया था
उनसे कहना हमने गंगा को भी काला कर दिया
बड़ी बड़ी नदियों को भी हमने नाला कर दिया
बच्चे देखेंगे जो बहती हुई खून की नदी
कैसे मानेंगे की बहती थी दूध की नदी
बकरी भेड़ों सबको तबाह कर दिया
उनकी बोटी बोटी कटी निर्यात कर दिया
उनसे कहना देखो बेटा गेंहू दाल के दाने
बच्चों को शायद तुम्हारे लगे ये भी अनजाने
इनके लिए यहाँ होने लगी कालाबाजारी
राशन दुकानों पे होने लगी मारामारी
अपने बच्चों को दिखाना तस्वीर गेहूं की
उनसे कहना कभी खाते थे हम रोटी इनकी
मैंने सोचा कुछ और ही सिखाऊंगा उन्हें
पैड होते AK47 थमाऊंगा उन्हें
दूंगा उनको अब तालीम अब इसको चलाने की
इस माँ के लिए मिट जाने की मिटाने की
उनसे कह दूंगा अन्याय का प्रतिकार करना है
सह चुके आज तक नहीं और सहना है
माँ का आँचल कहें को कोई फाड़ रहा हो
गहरी जडें इस देश की उखड रहा हो
हल्दी में मिला के बेंचे गर पीली हो मिटटी
घी के नाम पे जो बेचे पशुओं की चर्बी
औरत की अस्मिता को कोई रौंद रहा हो
माँ का आँचल कहीं जो कोई खौंद रहा हो
बच्चों क़र्ज़ देश का सारा उतार देना तुम
इन जाहिलों को खुले आम मार देना तुम
अपने बच्चों को सुनाऊंगा मैं लोरियां यही
अपने बच्चों को सुनाऊंगा कहानियां यही
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बच्चे भी अब अपना फर्ज निभा रहे हैं
एक दिन जब शाम को थककर घर लौटा
मैंने बड़े प्यार से अपनी बिटिया को बुलाया
उससे एक गिलास पानी मंगवाया
बिटिया ने दी अपने तमाम कामों की दुहाई
दुनिया भर की बातें बताईं
पर पानी नहीं लायी
एक दिन फिर मैंने अपने बेटे को भी आजमाया
उसे भी प्यार से बुलाया
अपने दुखते सर का देकर हवाला
मैंने कह डाला
बेटा जरा सर दबा दो
हो सके तो बाम भी लगा दो
बेटा बहुत झुंझलाया
कई कोने का मुंह बनाया
पर सर नहीं दबाया
यह देखकर फिर कुछ सोचकर
मैंने ठहाका लगाया
फिर मुस्कुराया
यह देखकर मौके पर मौजूद ;
मेरे मित्र सकते में आया
उसने एक सवाल उठाया
गुस्से की बात पर गुस्सा नहीं दिखा रहे हो
मुस्कुराना नहीं था मुस्कुरा रहे हो
इस रहस्य से पर्दा उठाओ
जल्दी से माजरा बताओ
मैंने कहा तो फिर सुनते जाओ
मैं समझता था सिर्फ हम फर्ज निभा रहे हैं
आज खुशी से मेरा दिल भर आया है
जबसे गूढ़ रहस्य समझ आया है
कि बच्चे भी अब अपना फर्ज निभा रहे हैं
हम उन्हें उनके पैरों पे और ..
और वो हमें हमारे पैरों पे
खड़ा होना सिखा रहे हैं!!
डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान,गोंडा,उत्तरप्रदेश
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डॉ आशुतोष मिश्र की रचनाओं के बाद आइये प्रवेश करते हैं उत्सव के अट्ठाइसवें दिन के प्रथम चरण में प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की ओर :
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भाग-2 से आगे >>>> ए0आई0एस0एफ0 की स्थापना के बाद का समय सम्मेलन की स्थापना के बाद 1936 और 1937 का साल छात्रों...
कहीं जाइयेगा मत,हम उपस्थित होंगे पुन: एक अल्प विराम के बाद....
वाह!!!! अतिसुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह!!!! अतिसुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह ...बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ..आभार ।
जवाब देंहटाएंआशुतोष जी की दोनों रचनाएँ आज के ज़माने के हिसाब से सटीक हैं ..विचारणीय
जवाब देंहटाएंआशुतोष जी की दोनों रचनाएँ अच्छी हैं....आभार ।
जवाब देंहटाएंतेजस्वी रचनाएँ....!!
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब..सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक हैं बधाई के साथ शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंसचमुच अद्भुत रचनाओं की श्रृंखला श्रृंखला है यह, अच्छी -अच्छी कविताओं से परिचय हुआ ..
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति ..आभार ।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाओं का अपना एक अलग रूप प्रभावित करता है ...
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