दर्द वही गहरा होता है 
जिसमें अनजाने दर्द भी पनाह पाते हैं  … 

रश्मि प्रभा 




"खूंटी पे टंगे जिस्म"

रूह मेरी,
बिस्तर पर,
पड़े पड़े, 
ताक रही है,
सामने लगी, 
खूंटियां,
दीवार पे |
जिस पर, 
लटक रहे हैं, 
कतार से, 
तमाम सारे,
जिस्म |
जिन्हें मै ही ओढ़ता हूँ,
मौका बे-मौका, 
बदल बदल के |
एकदम बाईं ओर टंगा, 
सबसे नया है, 
इसमें भरा है, 
बहुत सारा नकली रुआब,
और,
अकड़न मुर्दा जैसी, 
ये काम आता है, 
चंद बड़े और, 
ज्यादा दौलत वालों से,
मिलने जुलने में |
इसके बगल टंगे जिस्म में, 
भरा है खोखला, 
अफसराना, 
जिसके बगैर लोग कहते हैं, 
इसमें o.l.q.. नहीं है,
इसे पहनता हूँ, 
दफ्तर में मजबूरन |
एक जिस्म के कालर में, 
बकरम नहीं है,
ओढ़ता हूँ इसे, 
अपने से ओहदे में बड़ों के आगे |
जिस्म एक ऐसा है, 
जिसमे हवा ही हवा भरी है, 
ना मुड सकता है,
ना शिकन पड़ सकती है,
काम आता है, 
अपनी गली महल्ले,
और रिश्तेदारों में |
अब तो बच्चे भी, 
पड़ जाते हैं,
उलझन में अक्सर, 
क़ि ये वाकई वालिद है,
या, 
सिर्फ ओढ़ रखा है जिस्म, 
वालिदाना |
बीवी भी मेरी, 
उकता जाती हैं, 
अक्सर, 
देखके, 
मुझे बदलते,
लिबास जिस्मानी |
हकीकतन,
उसके करीब कौन है, 
बस ढूँढती रहती है,
उसी जिस्म को |
कोशिश,
भी करती है,
बिठाने की तालमेल,
बदलते जिस्मानी लिबास से,
नाकाम ही रहती है,
और,
उफ़ भी नहीं करती | 
(इतनी तकलीफ तो द्रौपदी को भी नहीं हुई होगी )
रूह मेरी, 
थक सी जाती है, 
निचुड़ जाती है, 
बदले बदलते, 
जिस्म इतने सारे |
ना बदले, 
तो जिन्दा रहना दूभर,
क्योंकि मौके,
और मिज़ाज के, 
हिसाब से, 
जिस्मों के भी,
'ड्रेस कोड',
होते हैं शायद |
"वैसे पता चला है आजकल 'डिजाइनर जिस्म' भी 'फैशन' में आ गए हैं |"

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