चाह लो
और वही आसानी से मिल जाये
तो सीखोगे क्या ?
प्रयास क्या करोगे ?
अनुभव क्या संजोवोगे ?
चाह लेना बड़ी आसान बात है
पाना - लक्ष्य साधना
प्रयास दर प्रयास
गर्मी से बुरा हाल न हो
तो गर्म पानी में शीतलता नहीं मिलेगी
हाथ पैर जमे नहीं
तो आग ढूँढोगे नहीं
…
चाहो - खूब चाहो
फिर उस दिशा में बढ़ो
गिरो, अटको,रोवो
पाँव के छाले देखो
फिर चाहने का अर्थ जानो
देखो, समझो
- जो चाह हुई
उसके मायने भी थे या नहीं
और अगर थे
तो तुम्हारी थकान में
जो मुस्कुराहट की धूप खिलेगी
उसका सौंदर्य अद्भुत होगा …
रश्मि प्रभा
।। एकलव्य से संवाद ।।
अनुज लुगुन
(भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार से सम्मानित)
एकलव्य की कथा सुनकर मैं हमेशा इस उधेड़बुन में रहा हूँ कि द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद उसकी तीरंदाजी कहाँ गई ? क्या वह उसी तरह का तीरंदाज बना रहा या उसने तीरंदाजी ही छोड़ दी ? उसकी परंपरा का विकास आगे कहीं होता है या नहीं ? इसके आगे की कथा का जिक्र मैंने कहीं नहीं सुना। लेकिन अब जब कुछ-कुछ समझने लगा हूँ तो महसूस करता हूँ कि रगों में संचरित कला किसी दुर्घटना के बाद एकबारगी समाप्त नहीं हो जाती। हो सकता है एकलव्य ने अपना अँगूठा दान करने के बाद तर्जनी और मध्यमिका अँगुलियों के सहारे तीरंदाजी का अभ्यास किया हो। क्योंकि मुझे ऐसा ही प्रमाण उड़ीसा के सीमावर्ती झारखंड के सिमडेगा जिले के मुंडा आदिवासियों में दिखाई देता है। इस संबंध में मैं स्वयं प्रमाण हूँ। (हो सकता है ऐसा हुनर अन्य क्षेत्र के आदिवासियों के पास भी हो) यहाँ के मुंडा आदिवासी अँगूठे का प्रयोग किए बिना तर्जनी और मध्यमिका अँगुली के बीच तीर को कमान में फँसाकर तीरंदाजी करते हैं। रही बात इनके निशाने की तो इस पर सवाल उठाना मूर्खता होगी। तीर से जंगली जानवरों के शिकार की कथा आम है। मेरे परदादा , पिताजी , भैया यहाँ तक कि मैंने भी इसी तरीके से तीरंदाजी की है। मेरे लिए यह एकलव्य की खोज है और यह कविता इस तरह एकलव्य से एक संवाद।
1.
घुमंतू जीवन जीते
उनका जत्था आ पहुँचा था
घने जंगलों के बीच
तेज बहती अनाम
पहाड़ी नदी के पास
और उस पार की कौतुहूलता में
कुछ लोग नदी पार कर गए थे
और कुछ इधर ही रह गए थे
तेज प्रवाह के समक्ष अक्षम,
तब तीर छोड़े गए थे
उस पार से इस पार
आखिरी विदाई के
सरकंडों में आग लगाकर
और एक समुदाय बँट गया था
नदी के दोनों ओर
चट्टानों से थपेड़े खाती
उस अनाम नदी की लहरों के साथ
बहता चला गया उनका जीवन
जो कभी लहरों के स्पर्श से झूमती
जंगली शाखों की तरह झूम उठता था
तो कभी बाढ़ में पस्त वृक्षों की तरह सुस्त होता था
पर पानी के उतर जाने के बाद
मजबूती से फिर खड़ा हो जाता था
उनके जीवन में संगीत था
अनाम नदी के साथ
सुर मिलाते पपीहे की तरह
जीवन पल रहा था
एक पहाड़ के बाद
दूसरे पहाड़ को लाँघते
और घने जंगल में सूखे पत्तों पर हुई
अचानक चर्राहट से
उनके हाथों में धनुष
ऐसे ही तन उठती थी।
2 .
हवा के हल्के झोकों से
हिले पत्तों की दरार से
तुमने देख लिया था मदरा मुंडा
झुरमुटों में छिपे बाघ को
और हवा के गुजर जाने के बाद
पत्तों की पुनः स्थिति से पहले ही
उस दरार से गुजरे
तुम्हारे सधे तीर ने
बाघ का शिकार किया था
और तुम हुर्रा उठे थे -
'जोवार सिकारी बोंगा जोवार!'
तुम्हारे शिकार को देख
एदेल और उनकी सहेलियाँ
हँड़िया का रस तैयार करते हुए
आज भी गाती हैं तुम्हारे स्वागत में गीत
"सेंदेरा कोड़ा को कपि जिलिब-जिलिबा।"
तब भी तुम्हारे हाथों धनुष
ऐसे ही तनी थी।
3 .
घुप्प अमावस के सागर में
ओस से घुलते मचान के नीचे
रक्सा, डायन और चुड़ैलों के किस्सों के साथ
खेत की रखवाली करते कांडे हड़म
तुमने जंगल की नीरवता को झंकरित करते नुगुरों के
संगीत की अचानक उलाहना को
पहचान लिया था और
चर्र-चर्र-चर्र की समूह ध्वनि की
दिशा में कान लगाकर
अँधेरे को चीरता
अनुमान का सटीक तीर छोड़ा था
और सागर में अति लघु भूखंड की तरह
सनई की रोशनी में
तुमने ढूँढ़ निकाला था
अपने ही तीर को
जो बरहे की छाती में जा धँसा था।
तब भी तुम्हारे हाथों छुटा तीर
ऐसे ही तना था।
ऐसा ही हुनर था
जब डुंबारी बुरू से
सैकड़ों तीरों ने आग उगली थी
और हाड़-माँस का छरहरा बदन बिरसा
अपने अद्भुत हुनर से
भगवान कहलाया।
ऐसा ही हुनर था
जब मुंडाओं ने
बुरू इरगी के पहाड़ पर
अपने स्वशासन का झंडा लहराया था।
4.
हाँ, एकलव्य !
ऐसा ही हुनर था।
ऐसा ही हुनर था
जैसे तुम तीर चलाते रहे होगे
द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद
दो अँगुलियों
तर्जनी और मध्यमिका के बीच
कमान में तीर फँसाकर।
एकलव्य मैं तुम्हें नहीं जानता
तुम कौन हो
न मैं जानता हूँ तुम्हारा कुर्सीनामा
और न ही तुम्हारा नाम अंकित है
मेरे गाँव की पत्थल गड़ी पर
जिससे होकर मैं
अपने परदादा तक पहुँच जाता हूँ।
लेकिन एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है।
मैंने तुम्हें देखा है
अपने परदादा और दादा की तीरंदाजी में
भाई और पिता की तीरंदाजी में
अपनी माँ और बहनों की तीरंदाजी में
हाँ एकलव्य ! मैंने तुम्हें देखा है
वहाँ से आगे
जहाँ महाभारत में तुम्हारी कथा समाप्त होती है।
5.
एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
तुम्हारे हुनर के साथ।
एकलव्य मुझे आगे की कथा मालूम नहीं
क्या तुम आए थे
केवल अपनी तीरंदाजी के प्रदर्शन के लिए
गुरू द्रोण और अर्जुन के बीच
या फिर तुम्हारे पदचिह्न भी खो गए
मेरे पुरखों की तरह ही
जो जल जंगल जमीन के लिए
अनवरत लिखते रहे
जहर-बुझे तीर से रक्त-रंजित
शब्दहीन इतिहास।
एकलव्य, काश ! तुम आए होते
महाभारत के युद्ध में अपने हुनर के साथ
तब मैं विश्वास के साथ कह सकता था
दादाजी ने तुमसे ही सीखा था तीरंदाजी का हुनर
दो अँगुलियों के बीच
कमान में तीर फँसाकर।
एकलव्य
अब जब भी तुम आना
तीर-धनुष के साथ ही आना
हाँ, किसी द्रोण को अपना गुरु न मानना
वह छल करता है
हमारे गुरु तो हैं
जंगल में बिचरते शेर, बाघ
हिरण, बरहा और वृक्षों के छाल
जिनसे सीखते-बतियाते
हमारी सधी हुई कमान
किसी भी कुत्ते के मुँह में
सौ तीर भरकर
उसकी जुबान बंद कर सकती है।
प्रभावी रचना ...
जवाब देंहटाएंUtkrisht prastuti.....
जवाब देंहटाएं