कुछ साँसें इकट्ठी करके
अनुभवों की भट्ठी सुलगाई
जो आज भी प्रज्ज्वलित है
भावनाओं की चिंगारियों से अछूते रह पाना संभव नहीं !!!
रश्मि प्रभा
एक अनुभवी भट्ठी मीना चोपड़ा की
मीना चोपड़ा
अवशेष
वक्त खण्डित था, युगों में !
टूटती रस्सियों में बंध चुका था
अँधेरे इन रस्सियों को निगल रहे थे।
तब !
जीवन तरंग में अविरत मैं
तुम्हारे कदमों में झुकी हुई
तुम्हीं में प्रवाहित
तुम्हीं में मिट रही थी
तुम्हीं में बन रही थी|
तुम्हीं से अस्त और उदित मैं
तुम्हीं में जल रही थी
तुम्हीं में बुझ रही थी!
कुछ खाँचे बच गए थे
कई कहानियाँ तैर रही थीं जिनमें
उन्ही मे हमारी कहानी भी
अपना किनारा ढूँढती थी!
एक अंत !
जिसका आरम्भ,
दृष्टि और दृश्य से ओझल
भविष्य और भूत की धुन्ध में लिपटा
मद्धम सा दिखाई देता था।
अविरल !
शायद एक स्वप्न लोक !
और तब आँख खुल गई
हम अपनी तकदीरों में जग गए।
टुकड़े - टुकड़े
ज़मीं पर बिखर गए।
आनन्द मठ
मीना द्वारा निर्मित पेस्टल ऑन पेपर
हाथों की वो छुअन और गरमाहटें
बन्द है मुट्ठी में अबतक
ज्योतिर्मय हो चली हैं
हथेली में रक्खी रेखाएँ।
लाखों जुगनू हवाओं में भर गए हैं
तक़दीरें उड़ चली हैं आसमानों में
सर्दियों की कोसी धूप
छिटक रही है दहलीज़ तक,
और तुम – कहीं दूर –
मेरी रूह में अंकित
आकाश-रेखा पर चलते हुए –
एक बिंदु में ओझल होते चले गए।
डूब चुके हो
जहाँ नियति –
सागर की बूँदों में तैरती है।
मेरी मुट्ठी में बंधी रेखाएँ
ज्योतिर्मय हो चुकी हैं।
तुम्हारी धूप
मुझमें आ रुकी है।
प्रज्ज्वलित कौन?
देह मेरी
कोरी मिट्टी!
धरा से उभरी,
तुम्हारे हाथों में
तुम्हारे हाथों तक
जीवन धारा से
सिंचित हुई यह मिट्टी।
अधरों और अँधेरों की
उँगलियों में गुँथती
एक दिये में ढलती मिट्टी,
जिसमें एक टिमटिमाती रौशनी को रक्खा मैंने
और आँखों से लगाकर
अर्श की ऊँचाइयों को पूजा
एक अदृश्य और उद्दीप्त अर्चना में।
कच्ची मिट्टी का दिया है
और कँपकँपाती हथेलियाँ
मेरा भय!
मेरी आराधना और तुम्हारी उदासीनता
के बीच की स्पर्धा में
दीपक का गिरना
चिटखना और टूट जाना,
रौशनी का थक के बुझना
बुझ के लौट जाना
मेरी इबादत का अन्त
क्या यूँ ही टूटना, बिखरना
और मिट जाना है?
तो फिर
प्रज्ज्वलित कौन?
बहुत उम्दा रचनाऐं ।
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