लिखते सभी हैं,
पढ़ने में प्रतिस्पर्धा है !
ऐसा क्यूँ ?
एक हाथ दे, एक हाथ ले - यह भी कोई साहित्यिक भावना हुई !
रूचि यदि शब्दों की है,
मर्म की है
तो यात्रा बाधित हो ही नहीं सकती।
पर यहाँ आवश्यक है - समीक्षा
टिप्पणी
सबकुछ व्यावसायिक !!!
रश्मि प्रभा
हीरा तो हीरा ही होता है, खरीदो या न खरीदो -
जो बेहतरीन हैं, वे हर हाल में बेहतरीन होंगे ..........
क्रमशः मिलवाती हूँ बेहतरीन रचनाकारों से,
पिता को याद करते हुए
राजेश उत्साही
1.
पिता
पिता जैसे ही थे
अच्छे
लेकिन
इतने भी नहीं कि
उन्हें बुरा न कह सकूं।
2.
पिता
बहुत प्यार करते थे
अपनी मां से,
इसलिए
कभी कभी
हमारी मां की पीठ
हरी नीली हो जाया करती थी।
3.
पिता
रेल्वे के मुलाजिम थे
ईमानदारी से कमाई रोटी
पकती थी
जुगाड़ की आंच पर ।
4.
पिता
जुआ नहीं खेलते थे
पर सट्टे का गणित लगाते थे
जीतते थे कि नहीं, क्या पता
पर जिंदगी में हारते कभी नहीं देखा।
5.
पिता
कभी सुन नहीं पाए
हमारे मुंह से पिता
सबके
बाबूजी
हमारे भी थे।
6.
पिता
सूक्तियों में मरने की हद तक
विश्वास करते थे,
शेर की नाईं चार दिन जियो
गीदड़ की तरह सौ साल जीना बेकार है
वे जिये इसी तरह।
7.
पिता
कहते थे
आत्महत्या समाधान नहीं है,
इससे समस्या नहीं हम स्वयं खत्म हो जाते हैं
आत्महत्या के तमाम असफल प्रयासों
के लिए जिम्मेदार
उनके ये शब्द ही हैं जो
अंतिम क्षणों में याद आते रहे।
तो क्या कोरी हूँ मैं ?
वंदना गुप्ता
अक्सर जुडी रहती हैं स्त्रियाँ
अपनी जड़ों से
फिर उम्र का कोई पड़ाव हो
नहीं छोड़ पातीं
ज़िन्दगी के किसी भी मोड़ पर
घर आँगन दहलीज
और अक्सर
शामिल होते हैं उनमे उनके दुःख दर्द और तकलीफें
स्मृतियों के आँगन में
लहलहाती रहती है फसल
फिर चाहे सुख का हर सामान मुहैया हो
फिर चाहे नैहर से ज्यादा सुख और प्यार मिला हो
फिर चाहे पा लिया हो मनचाहा मुकाम
जो शायद कभी हासिल न हो पाता वहां
फिर भी स्त्रियाँ
जुडी रहती हैं अक्सर
अपनी जड़ों से
देखती हूँ अक्सर
खुद को रख कर इस पलड़े में
तो पाती हूँ
खुद को बड़ा ही बेबस
क्योंकि
मेरी स्मृतियों का आँगन बहुत उथला है
रच बस गयी हूँ अपनी ज़िन्दगी में इस तरह
कि
नैहर बस सुखद स्मृति सा पड़ा है मन के कोनों में
आखिर कब तक पाले रखे कोई
दुखो के पहाड़
स्मृतियों की तलहटी में
जो अतीत की याद में
हो जाए वर्तमान भी बोझिल
भुला चुकी हूँ
ज़िन्दगी की दुश्वारियाँ भी इस तरह
कि अब चारों तरफ अपने
देखती हूँ सिर्फ ज़िन्दगी की खुश्गवारियाँ
क्योंकि
ज़िन्दगी सिर्फ चुटकी भर नमक सी ही तो नहीं होती न
भूल कर विगत के सब गम
जीती हूँ आज में
तो क्या कोरी हूँ मैं ?
कुछ भी तो नहीं...
शिखा वार्ष्णेय
वो खाली होती है हमेशा।
जब भी सवाल हो,क्या कर रही हो ?
जबाब आता है
कुछ भी तो नहीं
हाँ कुछ भी तो नहीं करती वो
बस तड़के उठती है दूध लाने को
फिर बनाती है चाय
जब सुड़कते हैं बैठके बाकी सब
तब वो बुहारती है घर का मंदिर
फिर आ जाती है कमला बाई
फिर वो कुछ नहीं करती
हाँ बस काटती रहती है चक्कर उसके पीछे
लग लग के साथ उसके
निबटाती है काम दिन के
बनाकर खिलाती है नाश्ता
और रम जाती है उस नन्हें बच्चे में
जो कूदता है उसकी पीठ पर, कन्धों पर
करता है मनमानी, उठाकर कर फेंकता है सामान
पर वो कुछ नहीं करती
बस समेटती रहती है सब कुछ
कुछ नहीं कहती
वो तो खेलती है उसके संग
सो गया बालक
चलो अब चाय का समय है
साथ साथ कटती है तरकारी
बीच में आता है प्रेस वाला
और भी न जाने कौन कौन वाला
भाग भाग कर देखेगी सबको
फिर बनाएगी खाना रात का
बस परोसेगी, खिलाएगी जतन से
फिर खुद भी खाकर
बैठ जायेगी टीवी के सामने
देखने कोई भी सीरियल ,
जो भी चल रहा हो उसपर
और बैठे बैठे ही मुंद जाएँगी उसकी बोझिल आँखें
आखिर किया ही क्या उसने
करती ही क्या है वो सारा दिन
कुछ भी तो नहीं .
तीनों रचनाएँ बेहतरीन हैं
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति हेतु आभार!
एक हाथ ले एक हाथ दे तो है ही
जवाब देंहटाएंपर बहुत बार महसूस
ये भी होना शुरु हो जाता है
उधर तो हाथ भी है नहीं :)
सुंदर रचनाऐं ।
रश्मि दी राजेश जी और शिखा की रचनाएँ एक बार फिर पढवाने के लिए आभार उनके साथ मुझे भी स्थान दिया हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंतीनो ही बहुत बढिया हैं,आभार,रश्मिजी
जवाब देंहटाएंवन्दना जी की कविता सचमुच बेजोड़ है . शिखा जी व उत्साही जी की कविताएं पढ़ी हुई हैं और मर्म को छूने वालीं हैं . बहुत खूब रश्मि जी .
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