नदी के पार सब जाना चाहते हैं
सबको लगता है उस पार कोई है
जिसकी पुकार
सन्नाटे में कौन कहे
शोर में भी सुनाई देती है
अब मन कहें
पार जाने का कोई कारण रखना अच्छा लगता है …
................... याद आती है बच्चन जी की रचना -
इस पार, प्रिये, मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!"
रश्मि प्रभा
।।सुनो उस पार चलते हैं।।
तपिश खंडेलवाल
सुनो
उस पार चलते है
तुमको छूने को बेक़रार है,
आसमां में इतनी बारीक जरी का काम है
जैसे दिवाली की रात प्लेन से कोई शहर देख लिया हो,
चाँद झील के सहारे उतरकर
बाजू आकर बैठ गया है,
और हवाएं दाँतों में कंघी फंसा
बेपरवाह दौड़ रही हैै
उस पार
जहाँ चाँद मजहबी नहीं है
न है कोई क़ानून की बेढीयां
जहाँ इश्क
सिर्फ इश्क है
कोई जिहाद
बेवकूफी
या जबरदस्ती नहीं।
सुनो
उस पार चलते है :)
नज़र के उस पार ~
आदि
देखो नज़र के उस पार
कुछ घर बसे हैं सहमे से
चिमनियों में से उठता धुंआ
गवाह है कि रिश्तों की गर्माहट अब भी बाकी है
वक़्त की आंच पर पकने रखे हैं कुछ वादे
देखो नज़र के उस पार
एक पगडंडी है घरों से लगी हुई
जो दूर शहर को जाती है
आती भी है क्या ये पता नहीं?
मटमैले घरों की खिड़कियाँ मगर एकदम साफ़ हैं
यहाँ से नज़रें दिन में पगडंडी से इश्क लड़ाती हैं
इंतज़ार का दर्द क्या कम था जो इश्क मोल ले लिया?
देखो नज़र के उस पार
इमली के पेड़ों की टहनियों पर कुछ टिक-टैक-टो खुरचे हुए हैं
गर्मियों की वो दोपहरें दिखाई पड़ती हैं इन्ही पेड़ों पर से
तब जाने क्यूँ पैर नहीं जला करते थे?
और नदी पर देखो नया डैम बन गया है छोटा सा
मछली पकड़ने अब सब वहीँ जाते हैं
घरों से लगा हुआ ही एक कुआँ है
एक दिन तुम्हे ढूंढते-ढूंढते माँ ने उसमें भी आवाज़ लगा कर देखी थी
बूढ़ा कुआँ बेचारा आजकल पलट कर बात नहीं कर पाता
वहीँ कुएं की मुंडेर पर तुम्हारी बातों के सिलसिले पड़े हैं
कुएं से सटी हुई एक बगिया है
चहल-पहल के खाद-पानी में अच्छी सब्ज़ियाँ हो जाती थीं
ख़ामोशी तो बस खरपतवार जनती है
देखो नज़र के उस पार
बहुत कुछ है
खुरदुरे कम्बलों में लिपटी जाड़ों की रातें
धूल धुसरित बकरियों के झुण्ड
स्कूल के पीछे वाला क्रिकेट ग्राउंड
शाम के रंग में घुली पंछियों की हंसी ठिठोली
भूरी पहाड़ी की गुफा में सुस्ताते शंकरजी
बिस्तर के नीचे रखा यादों का बक्सा
जर्जर सहमे से घर
और कुछ गूंगी आँखें
सब उसी पगडण्डी को तकते हैं
जिसपर दौड़कर तुमने उड़ान भरी थी.
बढ़िया ।
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