तुम कितने मील चले,कितनी थकान मिली तुम्हें ... लोग इसका ज़िक्र नहीं करते !
पर जिस दिन तुम कहोगे कि आज चलना मुश्किल है - लोग इसे कभी नहीं भूलते, और ज़िक्र करते करते इसे अपराध घोषित करते हैं
पर जिस दिन तुम कहोगे कि आज चलना मुश्किल है - लोग इसे कभी नहीं भूलते, और ज़िक्र करते करते इसे अपराध घोषित करते हैं
रश्मि प्रभा
आज इस परिकल्पना मंच पर हम वंदना शुक्ला जी के साथ उनके शब्दों की नाव में हैं .... भावनाओं की जलराशि पर शब्दों की अद्भुत नाव सोच की दिशा में ले जाती है, आइये बैठिये और किनारे पर गौर कीजिये -
वंदना शुक्ला
उलझन
जब भी देती हूँ बेटे को
सच बोलने की नसीहत
अपराधबोध से झूठ के
घिर जाती हूँ मै!
वो पूछता है मुझसे
सच बोलना क्या होता है?
क्या वो जो
सत्यवादी हरिश्चंद्र या
गांधी ने बोला था?
मै कहती हूँ नहीं
अब सत्य भी लिखा कर लाता है
उम्र अपनी ,
अपने कंधे पे टांग ,
आदमी की तरह,
आदमी के साथ , ताकि
भीष्म होने की वेदना
से बच सके!
और शायद
ज़रुरत का लिहाज़ कर
अब अर्थ भी बदल लिए हैं
सच ने अपने ...बदलते फैशन के साथ!
बेटा अपनी
मासूम
आँखों के सपने
टांग देता है मेरी
खोखली आस्था की खूंटी पर
निरुत्तर हो जाती हूँ सहमकर
शब्द अटक जाते हैं हलक में
पर कहना चाहती हूँ उससे
की सच का सच है ,,
किसी फूल का हंसते हुए खिलना
मुरझाने तक ...
कि....
किसी प्यार का
चमकदार होना
ओस कि बूँद की तरह .....
पिघल जाने तक...
कि .
यकीन को जीने के
अनंत से निहारना
क़यामत तक....
कि
पानी को बादल की तरह घिरना और
आंसू को सपने की तरह खिलना
झिलमिलाने तक.....
और तब देखती हूँ उसे मै
देखते हुए ,
एक उदास सी चुप्पी
के साथ किसी जंगल में
खड़ा
पाती हूँ उसे....
प्रतीक्षारत...!.
.....
प्रायश्चित
बचपन में माँ ने
कुछ पौधे रौंप दिए थे
मन की बगिया में मेरी!
सींचा था खाद पानी से उन्हें!
संतोष''और सहन शीलता'' की जड़ को
खूब गहरे दबा दिया था !और ,
इसी बागवानी के रख रखाव के जतन में ,
गीता प्रेस गोरखपुर और अमर चित्रकथा सी
तमाम ज्ञानवर्धक पुस्तकों से लेकर
मसालों की ताज़ा गंध से गंधाते
माँ के पल्लू से लिपट के
शिक्षाप्रद कहानियां सुनने तक बचपन ,यानि
उम्र का एक हिस्सा सौंप दिया गया था, मेरी !
माँ चाहती थीं ,उन तमाम
प्राप्य और परंपरागत संसकारों को
मुझमे उंडेल देना जो उनके पुरखे
सौंप गए थे उन्हें!
ताकि
बरी हो सकें वो
एक ''बेटी''पैदा करने के
अपराध बोध से !
और खूब आग्रह के साथ कहा था उनने
की सूखने मत देना इन्हें !
जड़ को संभालोगी तो
बाकी चीजें खुद ब खुद संभल जायेंगी!
माँ, बहुत प्रायश्चित के साथ कह रही हूँ की
तुम्हारी इस धरोहर को मैं सहेज न सकी ''
क्यूंकि
न जाने कब और कैसे तुम्हारे बोए पौधों पर,
अतृप्त इच्छाओं और विवशताओं के कीटों ने
कर दिया आक्रमण ,ले लिया अपने चपेट में!
की संक्रमित हो दूषित हो गई
जड़ें तक इसकी
और अब तो वो पौधे
तब्दील हो चुके हैं एक
घने जंगल में ,इतना घना की
रोशनी की किरण तक न पहुँच सके!
सुना है की आस्मां की चादर में कहीं हो गया है
एक छेद ,जिसमे से गर्मी का ताप
सीधे पहुच रहा है जंगलों तक
रोज़ देखती हूँ सपने में
आग का भीषण तांडव
उस बगिया में
जो बोई थी कभी तुमने माँ!
भावनाओं की नैया की अद्भुत प्रस्तुति... !!
जवाब देंहटाएंसमय के साथ अर्थ भी बदलने लगते हैं ...
जवाब देंहटाएंमनोभावों का सुन्दर प्रस्फुटन
प्रस्तुति हेतु आभार!
बहुत सुंदर रचनाऐं ।
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