सचमुच आतंक का कोई मजहब नही होता , न वह हिंदू होता है न मुसलमान , वह होता है तो बस इन्सान की शक्ल में हैवान । रमजान जैसे पाक माह में पवित्र दरगाह अजमेर शरीफ में विष्फोट करने वाला तथा कल ईद के मौक़े पर लुधिआना के एक सिनेमा घर में खूनी खेल खेलने वाला मेरे समझ से किसी कॉम का हो ही नही सकता । कल जब मैं दूरदर्शन के साथ-साथ सभी समाचार चैनलों पर लुधियाना के शृंगार सिनेमा हॉल में हुये विष्फोट के दारुन दृश्यों को बार-बार देख रहा था तो मेरा कवि मन बार-बार व्यथित हो रहा था , जिसकी उपज है ये चार पंक्तियां-
बेकशों की माँग है, ललकार है संसार की ,
दर्द को अगवा करो तुम रोशनी दो प्यार की।
क्या मिलेगा तुमको आख़िर मज़हवी उन्माद से ,
क्या यही बुनियाद है उस धर्म की दीवार की ?
लाख बिस्तर पर सजा लो फूल के टूकडे सही ,
अहमियत होती है फिर भी ज़िंदगी में खार की।
फंस गयी कश्ती भंवर में हो किनारा दूर जब ,
मत कहो मांझी ज़रूरत है नही पतवार की ।
चार दिन की ज़िंदगी यह चांदनी की हीं तरह
पांचवे दिन की तमन्ना है मियाँ बेकार की ।
() रवीन्द्र प्रभात
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
चार दिन की ज़िंदगी यह चांदनी की हीं तरह
जवाब देंहटाएंपांचवे दिन की तमन्ना है मियाँ बेकार की ।
--सच कहा. काश, लोग समझें.
चार दिन की ज़िंदगी यह चांदनी की हीं तरह
जवाब देंहटाएंपांचवे दिन की तमन्ना है मियाँ बेकार की ।
बहुत अच्छा है हुज़ूर. पते की बात कह गए आप.
मीत
बहुत सुन्दर और सामयिक!
जवाब देंहटाएंचार दिन की ज़िंदगी यह चांदनी की हीं तरह
जवाब देंहटाएंपांचवे दिन की तमन्ना है मियाँ बेकार की ।
वाह वाह साहब. मुझे एक और शेर एक बडे शाय्रर का याद आ गया
उम्रे दराज माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरजू मे कट गये दो इंतजार मे
पांचवे दिन का तो सवाल ही नही उठता.
बह्त खूब्