एक
गजल
तसलीमा
के
तसलीमा
के
बहाने
प्रसंगवश -
कहीं आँगन , कहीं छप्पर नहीं दिखता ।
कहीं आँगन , कहीं छप्पर नहीं दिखता ।
कोई सदभाव सा मंज़र नहीं दिखता ।।
यहाँ हैवानियत का है घना कोहरा -
कि जिसमें आदमी अक्सर नहीं दिखता ।।
करें किससे सनद हम बेगुनाही की -
सभी शैतान हैं , परवर नहीं दिखता ।।
बड़ी मुश्किल यहाँ घर ढूँढना महबूब का -
कि मुझको भीड़ में रहबर नहीं दिखता ।।
करे जारी सभी फतबा उसी पर क्यों - कि जिसके हाँथ में खंज़र नहीं दिखता ?
हमारी बात सुन न हंस सके न रो सके -
वही नेता बना , अजगर नहीं दिखता ?
आंधियां आती सहम करके " प्रभात "
कि हर सूं रेत का अब घर नहीं दिखता ।।
() रवीन्द्र प्रभात
अरे वाह। बहुत अच्छा लिखा। तसलीमा के लेखन से बहुत बेहतर।
जवाब देंहटाएंसुंदर! अति सुंदर!
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी गजल लिखी आपने. सच्चाई से भरपूर. जारी रहें.
अरे वाह भाई कमाल की ग़ज़ल लिखी है आपने. बधाई. ऐसे ही लिखते रहें.
जवाब देंहटाएंनीरज
करे जारी सभी फतबा उसी पर क्यों
जवाब देंहटाएंजिसके हाँथ में खंज़र नहीं दिखता
--------------------
वैसे तो पूरी गजल ही गजब की है पर यह पंक्तिया एक सन्देश लिए हुए हैं
दीपक भारतदीप
सुन्दर रचना, विचारणीय प्रश्न! बहुत खूब!
जवाब देंहटाएं