थोड़ी सी जमीन
गिरिजा कुलश्रेष्ठ
माँ अब खड़ी है जीवन के
अंतिम पड़ाव पर
नहीं चाहिये उसे कोई एशोआराम
बस एक आत्मीय सम्बोधन
सुबह-शाम .
चुग्गा की तलाश में
किसी चिड़िया सी ही
वह जीवनभर उडती रही है
यहाँ-वहां , ऐसे-वैसे
बस मुडती रही है .
अस्त्तित्त्व और अधिकार के
सारे प्रश्न उसके लिये हैं बेकार
जो कुछ भी था उसके पास
तुम्हें सब दे चुकी है .
अब थके-हारे पांवों को ,
तुम दे दो थोड़ी सी जमीन.
बिना गमगीन .
फैला सके निश्चिन्तता के साथ
अपने लड़खड़ाते पाँव.
जमीन --
अपनत्त्व की
घर में उसके अस्तित्त्व की
तुम्हारा जो कुछ है ,उसका भी है .
उसे आश्वस्ति रहे कि
अशक्त और अकर्म होकर भी
माँ अतिरिक्त या व्यर्थ नहीं है
तुम्हारे लिए .
वह जो भी सोचती है ,
महसूस करते हो तुम भी
जमीन--
छोटी छोटी बड़ी बातों की
कि दफ्तर से लौटकर
कुछ पलों के लिए ही सही
बेटा मिलने जरुर आता है
अपने कमरे में जाने से पहले .
पास बैठकर हाल-चाल पूछता है
“माँ ने कुछ खाया कि नहीं ?”
ना नुकर करने पर भी
बुला लेता है अपने साथ .
कि एक पिता की तरह .
घर में बनी या
बाजार से लाई हर चीज
माँ को देता है ,खुद खाने से पहले
नकारकर कहीं से उभरती आवाज को कि,
“अरे छोड़ो ,बड़ी-बूढ़ी क्या खाएंगीं !”
कि रख देता है माँ की हथेली पर
पांच-पचास रुपए बिना मांगे ही .
भले ही वह लौटा देती है
“मैं क्या करूंगी ”, कहकर
लेकिन पा लेती है वह
अपने लिए थोड़ी सी जमीन .
तुम उसके सबसे करीब हो
बुढ़ापे की लाठी कहती थी वह तुम्ही को
जन्म और जीवन में..
सम्बल के नाम पर मन में .
बेटे से बढ़कर कोई नहीं होता माँ के लिए
वह तुम्हें दुनिया में
बड़े गर्व और विश्वास के साथ लाई है
बेटे की माँ बनकर फूली नही समाई है .
यों तो हर सन्तान की तरह
माँ रही है तुम्हारे मन में
लेकिन अब इसे एक कर्त्तव्य के साथ
महसूस करो .
और कराओ औरों को , माँ को भी ,
कि माँ तुमसे अभिन्न है ,
फिर क्यों खिन्न है ?
तुम्हारी शिराओं में बह रहा है उसी का रक्त
स्रोत है वह जीवन की नदी का
द्वार है संसार का .
माँ के लिए अब बहुत जरूरी है
ध्यान और मान
उतना ही जितना शरीर के लिए प्राण .
जरा देखलो तो
माँ की आँखें क्यों हैं खोई खोई सी ?
क्यों रात में सोते-सोते
घबराकर उठ जाती है ?
मौन मूक माँ की आँखें
उन आँखों की भाषा पढलो-समझ लो .
लगालो गले ,
सहलादो माँ की बोझ ढोते थकी पीठ
उठालो , सम्हालकर रखलो
बौछारों में भीग रही है वह जर्जर किताब
एक दुर्लभ इतिहास
अनकहे अहसास
खो जाएंगे जाने कब ! कहाँ ! .
देखलो माँ के दुलारे ,!
कि कहाँ लडखडा रही है तुम्हारी जननी
पड़ी है जो तुम्हारे सहारे
देखलो कि तुम्हारा सहारा पाकर
वह कैसे खिल उठती है
मोगरे की कली सी .
“मेरा बेटा ...”,
यह अहसास पुलक और गर्व के साथ
बिखर जाता है खुश्बू सा उसके अन्दर बाहर
ये दो शब्द तुम्हारे काम आएंगे
किसी भी धन से कहीं ज्यादा...यकीनन
थोड़ी सी जमीन के बदले
माँ देती है एक पूरी दुनिया .
तुम दे दो माँ को थोड़ी सी जमीन .
जमीन उम्मीदों की .
जमीन होगी तो आसमान भी होगा .
ज़िन्दगी को परत दर परत खोला
बीते सालों को, महीनों को टटोला,
उन्हें अच्छे से निचोड़ कर लम्हों के क़तरे निकाले
ऐसे कई छोटे-मोटे लम्हे फ़र्श पर उड़ेल डाले,
टकटकी लगाये, हर एक लम्हे पर नज़र गड़ाए
हर एक को उलटता रहा, पलटता रहा
कुछ लम्हे हसीन थे, कुछ लम्हे ग़मगीन थे,
कुछ धुंधले भी थे, कुछ अधूरे भी थे
कुछ में मैं अकेला था, कुछ में हम सभी थे,
कुछ तो ऐसे भी थे जो अजनबी थे,
कई घंटों तक उन्हें देखता रहा, सोचता रहा
इन लम्हों को भी जी लेता तो क्या हो जाता,
एक ऐसे ही अजनबी लम्हे को उठा कर
एक मासूम सा सवाल किया मैंने,
“तुम कब आये मेरी ज़िन्दगी में
मैंने तो तुम्हें कभी देखा नहीं,
क्या तुम सपनों के वो लम्हे हो
जिसे मैं सिर्फ़ ख़्वाबों में जीता था,
जब भी भाग-दौड़ की ज़िन्दगी के बाद मैं सोता था”
उस नन्हे से लम्हे ने कहा,
“वो तो मेरी ज़िन्दगी का ही हिस्सा है
‘ख़्वाबों के लम्हे’ ये तो बस एक किस्सा है
याद करो वो यारों की महफ़िल
खुला आसमान, घर की ऊपरी मंज़िल
समा जवां हो ही रहा था कि तुम उठ गए
तुम्हारे इस बेगानेपन से सब रूठ गए,
तुम्हें किताबों के दो-चार पन्नों को पांचवी बार जो पढ़ना था
आज की क़ुरबानी दे कर तुम्हें कल से जो लड़ना था”
कई देर तक उसे देखता रहा, उसकी बातों को सोचता रहा
क्या हो जाता गर दीवारों पर दो-चार तमगे कम लटकते
क्या हो जाता गर बाबूजी का सीना दो इंच कम फूलता
यारों के साथ दो गीत गुनगुना लेता तो क्या हो जाता
इस लम्हे को भी जी लेता तो क्या हो जाता,
उस अजनबी लम्हे से खुद को निकाला
एक मायूस लम्हे को उठा कर गोद में संभाला,
वो उदास था, बहुत उदास था
उसे ध्यान से देख कर याद किया
कि आखिर ऐसा क्या हुआ जब ये लम्हा मेरे पास था,
ओहो! किसी अपने ने मुझे कुछ कहा था, जो अभी याद नहीं
पर हाँ उस वक़्त मुझे वो बात बहुत बुरी लगी थी
उसने मुझे समझाने की नाकामयाब कोशिश भी की थी
पर हाँ उस वक़्त नाराज़ रहने की धुन सर पे चढ़ी थी
मगर आज न उसे कुछ याद होगा, न मुझे वो बातें याद हैं
याद करें भी तो बस वो रूठे लम्हे और वो ग़मगीन रातें याद हैं
कई देर तक उस रूठे लम्हे को देखता रहा, सोचता रहा
क्या हो जाता गर उसकी बात को दिल पे न लेता
क्या हो जाता गर उसके समझाने पर पर मैं मान लेता,
न मैं उदास होता, न वो लम्हा मायूस होता
इस लम्हे को भी जी लेता तो क्या हो जाता,
याद रखूँगा इन लम्हों की बात को
“ज़िन्दगी तो कर कोई जिया करते हैं
ज़रा हर लम्हों को जी कर देखो” …
कोशिश करूँगा, ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव पर,
ऐसे ही किसी खुद से बातें करते वक़्त मैं न कहूँ
दो पल जीने के और मिल जाते तो क्या हो जाता,
मैं वो लम्हा जी लेता तो क्या हो जाता
मैं ये लम्हा जी लेता तो क्या हो जाता|